विष्णु खरे : सईद जाफ़री









सिनेमा और रंगमंच के बेहतरीन कलाकार सईद जाफ़री का पिछले १५ तारीख को देहांत हो गया. प्रेमचंद की कहानी पर आधारित सत्यजीत राय की फ़िल्म ’शतरंज के खिलाड़ी’ में उनके अभिनय के लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है. उनके सिनेमाई सफर की और तमाम बाते हैं, विष्णु खरे का कॉलम. 




अदाकारी की शतरंज का उस्ताद                                    
विष्णु खरे 




ले ही सईद जाफ़री (8.1.1929 – 15.11.2015) मलेरकोटला,पंजाब की रियासत  के अपने दीवान नाना के यहाँ पैदा हुए हों, यह उनकी और हम सरीखे उनके मुरीदों की खुशकिस्मती थी कि वह वहीं पले-बढ़े नहीं, वर्ना उनके जिस ब्रान्डेड तलफ़्फ़ुज़ पर सारे उर्दूपरस्तों  को नाज़ है वह फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’ सरीखा वाहियात होता. ज़ाहिर है कि वह एक संपन्न शिया घराने से थे, ख़ुद तो ज़हीन थे ही, लिहाज़ा अलीगढ़, मसूरी, अलाहाबाद और वाशिंगटन की कैथलिक यूनिवर्सिटी में तालीम ले सके और अंग्रेज़ी साहित्य में बी.ए. और मध्यकालीन भारतीय इतिहास और (बचपन से ही थिएटर और सिनेमा की एक्टिंग का जुनूनी शौक़ होने की वजह से) ड्रामा की ललित कला में एम.ए. की डिग्रियाँ आसानी से हासिल कर सके. नाटक और फ़िल्मों में इतने पढ़े-लिखे लोग आज भी नहीं हैं.

लेकिन सिर्फ़ पढ़े-लिखे होने से कुछ नहीं होता. हुनर और प्रतिभा भी चाहिए. 1950 के दशक में ही सईद के हौसले इतने बुलंद थे कि उन्होंने अपना ड्रामा ग्रुप बना डाला. उनकी लम्बाई  पाँच फ़ुट छः इंच  के इर्द-गिर्द थी लेकिन इरादे आस्मान छूते थे. शक्ल-सूरत उस ज़माने के लाहौरी-बम्बइया चॉकलेटी हीरो जैसी नहीं थी, अलबत्ता चेहरे, आवाज़ और शरीर-भाषा में एक आत्म-विश्वास और ठसक थी. रगों में शुरूआती स्कॉच के अलावा गंगा-जमनी तहज़ीब बहती थी. लेकिन हिन्दुस्तानी ड्रामा और फ़िल्म का सीन और अपनी ज़ाती ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव  देखकर वह समझ गए थे कि उनके लिए मग़रिब का रास्ता पकड़ लेना ही बेहतर होगा. तब उनकी दो माशूकाएँ थीं – एक्टिंग और दिल्ली की मधुर (‘बहादुर’, बाद में ‘जाफ़री’).सो उन्होंने बरास्ते अमरीका लन्दन जाकर दोनों को हासिल किया.


हम-आप जैसे लोग बहुत खुशनसीब हैं कि सईद जाफ़री अपनी आत्मकथा, भले ही अंग्रेज़ी में, आज से सत्रह बरस पहले लिख कर छोड़ गए. हिंदी के एक जाहिल प्रकाशक को मैंने बरसों पहले समझाया था कि तू सिनेमा पर एक बड़ी सीरीज़ शुरू कर लेकिन उसकी अक्ल पर उसके बदन से भी ज़्यादा चर्बी बढ़ती गई है, वर्ना अब तक वह हिंदी अनुवाद में मुहय्या रहती. बहरहाल, अगर आप ‘’सईद : एन एक्टर्स जर्नी’’ पढ़ पाएँ तो मालूम होगा कि सईद जाफ़री की अपनी दिलफेंक फ़िकरनॉट ज़िन्दगी हरगिज़ किसी फिल्म से कम सिनेमाई नहीं थी और डेविड नाइवेन, पीटर सैलर्स और एलेक गिनेस सरीखे समकक्ष हरफ़नमौला उस्तादों की याद दिलाती है.

रेडियो, डबिंग, कमेंटरी, लेखन, रंगमंच, टेलीविज़न और सिनेमा में सईद जाफ़री ने अमेरिका, ब्रिटेन और हिंदुस्तान में कुल मिलाकर जितना और जिस क्वालिटी का काम किया है - उनके नाम पर इन विधाओं की क़रीब 200 गतिविधियाँ दर्ज़ हैं - उसकी टक्कर का कोई व्यक्तित्व मुझे दक्षिण एशिया में दिखाई नहीं देता – न अब्राहीम अल्काज़ी, न दिलीप कुमार, न अमिताभ बच्चन.  आज के मुम्बइया सो-कॉल्ड हीरो वगैरह तो सईद जाफ़री के आगे करोड़ों कमानेवाले टिड्डों-गुबरैलों से क़तई कम नहीं.

उन्होंने 1950 की दहाई  के अपने दिल्ली के दिनों में फ़्रैंक ठाकुरदास जैसे दोस्तों के साथ ज़्याँ कोक्तो, क्रिस्टोफ़र फ़्राइ, टी.एस.एलियट सरीखे नाटककारों को स्टेज किया था. वह अपने वक़्त से बहुत आगे थे और भारत के लिए तो हमेशा वैसे रहे. हमारे यहाँ प्रमुख रूप से पहली बार वह 1969 की द्विभाषीय फिल्म ‘द गुरु’ में देखे गए लेकिन प्रतिभा के लिए जौहरी गृध्र-दृष्टि रखनेवाले सत्यजित ‘’माणिकदा’’ राय ने उन्हें अपनी, उर्दू-हिंदी और प्रेमचंद की ‘’शतरंज के खिलाड़ी’’ के लिए तत्काल या उसके पहले ही ताड़ लिया था.  अंग्रेज़ी का मुहाविरा है – ‘दि रैस्ट इज़ हिस्ट्री’. भारतीय सिनेमा के इतिहास  में इस तरह की कास्टिंग फिर देखी न गई.

मीर रोशन अली के किरदार में सईद जाफ़री हिंदी फ़िल्मों में एक धीमी गति के बम की फटे. माणिकदा की यह एक महान फिल्म है ही, सईद तो लगता है कि मिर्ज़ा सज्जाद अली कहीं बिना मात खाए निकल न जाएँ लिहाज़ा सीधे 1856 के गोमतीवाले इमामबाड़े से सौमेन्दु रॉय के कचकड़े में दाखिल हो गए थे. अस्तंगता सामंती शिया संस्कृति उनमें जीवंत हो उठी. हिंदी फिल्मों में पहली बार उर्दू ऐसे अंदाज़ से बोली-सुनी गई. ऐसा ख़ान्दानी मुस्लिम किरदार इससे पहले रुपहली परदे पर देखा न गया था. और जहाँ तक अदाकारी का सवाल है, गोली चलने से पहले जब मिर्ज़ा सज्जाद अली बाज़ी के दौरान रोशन अली की तौहीन करते हैं, तब सईद जाफ़री जिस तरह चोट खाकर उसका बिलबिलाया हुआ रुआँसा जवाब देते हैं वह हिंदी और सत्यजित राय के सिनेमा में बेजोड़ है. उसे महान एक्टिंग भी कहा जाता है. आप ‘शतरंज के खिलाड़ी’ से सईद (और शायद शबाना) को हटा दीजिए, फिल्म अवध के सूबे की तरह अपंग होकर गिर जाएगी.

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सईद जाफ़री के बेहतरीन बरस 1977-2000 के ही कहे जाएँगे जिस दौरान उन्होंने करीब सौ सफल-असफल फ़िल्मों में हर किस्म के निदेशकों और हीरो-हीरोइनों के साथ पिताओं और अन्य रिश्तेदारों, रोजगारदाताओं, हास्य-खलनायकों, मामूली पेशों के लोगों आदि के किरदार किए. अगर किसी फिल्म में उनकी एक्टिंग को खराब कहा गया तो गौर से देखने के बाद मालूम पड़ता है कि वह रोल ही ग़लत या कमज़ोर लिखा गया था. यह सच है कि सईद किसी फिल्म में अपने पहले शॉट पर कैमरे के लेंस को गंभीरता से प्रणाम करते थे लेकिन इसकी परवाह नहीं करते थे कि उनकी फ़नकारी के साथ इन्साफ हो रहा है या अन्याय – वह अपनी तरफ से अपना बेहतरीन उसे देते थे. अगर कोई डायरेक्टर इतना जाहिल है कि वह सईद जाफ़री को अच्छे डायलाग या सीन नहीं दे सकता, या उन्हें अच्छी तरह शूट नहीं कर सकता तो उससे बहस क्या करना – अपना मुआविज़ा लीजिए और सरेआम इतराते हुए चले जाइए.

वह बचपन से ही सैकड़ों देशी-विदेशी फ़िल्में देख चुके थे और उनके सामने ही मोतीलाल, अशोककुमार, किशोर साहू, बलराज साहनी, नीमो, मुबारक़, डेविड, कन्हैयालाल, याकूब, नाना पलशीकर, बद्री प्रसाद, नज़ीर हुसैन, मुराद, इफ्तिख़ार, बीर सखूजा, जयंत, रहमान, सप्रू, चन्द्रमोहन, बी.एम.व्यास,  केशवराव दाते,  के.एन.सिंह सरीखे नायक,  खलनायक और चरित्र-अभिनेता क्या-से-क्या हो चुके या रहे थे. उन्हें मुंबई में अपने मुस्तक़बिल या मुमकिन हश्र को लेकर कोई ख़ुशफ़हमी नहीं थी. उन्हें मालूम था कि जब तक उनकी आँखों में दम रहेगा, कुछ नहीं तो विदेशी कद्र का साग़रो-मीना उनके आगे रहेगा.  वह रिचर्ड एटेनबरो, डेविड लीन, जॉन हस्टन और जेम्स आइवरी जैसे निदेशकों के साथ काम कर चुके थे.

इक्कीसवीं सदी में शायद उनकी चार हिंदी फ़िल्में आईं – ‘सनम तेरी क़सम’ (2000), अलबेला’ (2001),’प्यार की धुन’ (2002) और ‘भविष्य’ (2006), जो सभी अंधकारमय रहीं. उनके लायक़ हिंदी फिल्मों और उनके जैसे किरदारों का ज़माना शायद जा चुका था. अस्वस्थ हो जाने के पहले उनकी आख़िरी फिल्म अंग्रेजी की ‘एव्रीव्हेअर एंड नोव्हेअर’ (2011) थी.  लेकिन कोई बाज़ी 45 बरस तक चले यह कम नहीं होता. जो बैरिमान की ‘दि सेवंथ सील’ देख चुके हैं वह जानते हैं कि शतरंज के उस सबसे बड़े खिलाड़ी से जीतना नामुमकिन है – हारनेवाले उसके साथ नाचते हुए चले जाएँ, यही उसकी मात है. ये खेल है कब से जारी.

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(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल 
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

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  1. विष्णु जी ने बहुत सुन्दर और तथ्यात्मक जानकारी से भरा लेख लिखा

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  2. विष्णु जी के कॉलम का रस अलग ही है। शुक्रिया समालोचन।

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  3. विष्णु जी बहुत ही तथ्यपरक और बेबाक मूल्यांकन किया है

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