मंगलाचार : ज्योत्स्ना पाण्डेय

पेंटिग :  Paresh Maity : MOONLIGHT















ज्योत्स्ना अर्से से कविताएँ लिख रही हैं. तमाम पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं. वैविध्य पूर्ण काव्य- संसार तो है ही शिल्प पर भी मेहनत दिखती है. 






ज्योत्स्ना पाण्डेय की कविताएँ                  





कुमार गन्धर्व

साधना  की चकरी पर 
साँसें 
कभी चढ़ती, कभी उतरती
कि गले से गुजरते हुए 
बहक न जाएँ 
शब्दों के मतलब 

शब्द------
वही जिनसे 
बूँद बूँद रिसता है कबीर 
भिगोता है आत्मा 
बस ! उनकी ही 
जो जानने लगे हैं खुद को 
या कि उसकी 
जिसकी साधना में 
सुध खोया  परमात्मा 
अब तक लटका है 
दीर्घ षडज पर.  




सरल रेखाएँ 

सरल रेखाओं की तरह 
अनंत तक 
साथ चलते हुए
सिद्ध किया तुमने कि 
प्रेम है 
एक टीस भरी, सुखद प्रक्रिया...

यदि हो जातीं रेखाएँ वक्र,
तो, किसी बिन्दु पर आकर, मिलतीं 
और आगे निकल जातीं
या ठहर जातीं ,
उसी एक बिन्दु पर ....

फिर सिद्ध किया तुमने कि  
प्रेम है,
सतत्  बहने वाली विलक्षण प्रक्रिया 
जिसमें कोई ठहराव नहीं,
न ही कोई वक्रता----

बस! हैं तो सीधी और सरल रेखाएँ .....

(उदय प्रकाश जी कि "सरल रेखाएँ" पढते हुए) 





चिट्ठी 

नहीं, मोबाइल नहीं था तब 
जो कानों के परदे पर 
लिख देता तुम्हारे शब्द 

नीला आसमान इबारत बन 
होता गया चिट्ठी 
चिट्ठी, जो 'प्यारी गुडिया' से शुरू होकर 
'ढेर सारा प्यार,
तुम्हारा पापा' पर खत्म हो जाती 

मैंने कभी नहीं खुरचे 
वे अनमोल शब्द 
जो महारंध्र से रिसकर बहते हैं 
धीरे-धीरे मेरे भीतर 
नसों के नीलेपन में 

आँखों की पुतलियों पर बजतें हैं 
रिकार्ड (विनाएल) पर की गई पेंटिंग की तरह 
तुम्हारी अंतिम पीड़ा के दृश्य-
जब अचानक ही 
मेरे सिर से फिसल कर तुम्हारे हाथ 
लिपट गए थे श्वेत में 

एकांत बच्चा बन 
ढूँढता है तुम्हारा स्पर्श 
खेलता है आँख मिचौnii
कि बंद आँखों के खुलते ही सच हो जाए झूठा 

भिंची आँखें
मौन की खिड़की- 
दिखते हैं असंख्य इन्द्रधनुष 
उस नीली लौ के बीच 
जहाँ आत्मा से होकर गुजरता है परमात्मा 
धवल प्रकाश  
खड़े हो तुम 
शांत, सद्यस्नात 

करते हो प्रार्थनाएं 
प्रार्थनाएं, जिससे वृक्ष लिखते थे जंगल 
और आकाश हो जाता मेरी आँख 
जहाँ स्वप्न हो जाते डाकिया 
दे जाते हौसलों की चिट्ठी-

प्यारी गुडिया, ढेर सारा प्यार 
तुम्हारा पापा.




गोबरधनिया 

कि वे आज भी वैसी ही हैं
जैसे पत्थरों पर छैनी से 
किसी ने उन्हें तराशा और वे वहीँ रुक गईं हों
जम गई हों 
अपने ही पत्थर में
दीवार में कटीदीवार पर चिपकी 
दीवार से झरी,  गोबरधनिया

कि उन्हें तो वैसे ही दीखते रहना चाहिए
जैसे आकाश में ध्रुव
कि इन्हें अटल रहने का अभिशाप है


सिर पर वही  बॉस की टोकरी 
बगल में छोटी-सी बाल्टी
जिसमें कई सदियाँ गिरीं और बन गईं गोबरधनियाँ
जिसमें कई युग ढेर हुए
और उसकी गंध के बीच जब भी रंभाने की आवाज़ उठी
तो ये आवाज़ उनकी ही थी या खूंटे की ?
कौन जाने ?

वे बची हैं आज तक हमारे लिए
उतनी ही जितनी गोबर को जरुरत है पानी की

वाह !
उनकी मौलिकता
विरासत में मिली कामधेनु !
जिसके दूध दुहने और गोबर लीपने में
उन्होंने अपनी संततियों के देखे ख्वाब
और ख्वाबगाह सी उनकी बेचैन देह
ग्रामश्री के खूंटे पर जस की तस ?

तिस पर उन्हें तो जानना ही है
पानी और गोबर का अनुपात
ये गणित उनके राशिफल में सबसे अधिक रहा ताकतवर

और वाह रे ! इनकी राम रटन्त
कि इनके कंठ में कब, किसने भरे सूर, कबीर, तुलसी
वे गाती हैं अपना ही जीवन  
"अब लौ नसानी, अब न नसइहौं" 
कि इन्होने अपना ही जीवन रटा
सीखा बार-बार
हम औरतें नहीं
गोबर की गोबरधनियाँ हैं
थापेंगी तो गोबर
पाथेंगी तो गोबर
और चिपक जायेंगी दीवार से 
उपलों की तरह 

ऐसी गोबर गणेश भी नहीं
दर्शन भी जानती हैं ये 
कि सूखने के बाद 
जलने को तैयार उपले 
छोड़ देंगे दीवार का मोह 
    
कच्ची दीवार पर  
उपलों को थापती 
छाप देती हैं अपना भूत, भविष्य और वर्तमान
  
लकीरें बोलती हैं अनबोला  
उनके हाथउनका भरोसा 
उनका भरोसा, उनकी रोटी 
और रोटी के साथ पसीने भर नमक

दिन की खट-खट के बाद  
रात की नीरवता में  
तारे राख की तरह उतरते हैं आँख में 

कि जब जलेंगे ये उपले  रात के साथ 
तो बुझेगी भूख -
आँखों में जिजीविषा जल उठती है 
उम्मीद की लौह नदी
बहती है रगों में  
वक्त के चूल्हे में 
उपलों-सी देह लिए 
वे जीती हैं जीवन  
भूख से आग के रिश्ते जैसा   

आग की ये सुरखाब चिड़ियाँ
सूरज तक एक बार उड़ तो जाएँ
जलेंगी
तो इनकी राख से बार-बार पैदा होगी वही चिड़िया

जो एक दिन जानेगी कि
वह उपला नहीं
गोबरधनिया नहीं

क्यों पाथे उपला
क्यों पाथे आकाश ?




कहानियाँ

खौलते कदमों के साथ 
दौड़ती हैं कहानियाँ 
पक्की सड़क पर 
इनकी पीठ पर आदिम छाले हैं 

थोड़ी जिद कि अपना होना 
यहाँ हो जाए दर्ज 
थोड़ी नमी दर्द की
पीठ सहलाती, बढाती हौसला  - कि दौड़ो,
दौड़ो उन किनारों पर
जहाँ मिलता है समंदर से आसमान
उलीचता है बालू 

खोल दो वहीँ पर अपने केश  
कि बरसे उनसे नमी और नमक
थोडा बादल भी झरने दो ----

बालू और बादल पर
आसान नहीं पदचिह्न छोड़ना 
निशानों को घुलना रहता है लहरों में 
लहरों का अंतर्मन 
पानी में घुलती नमक की डली ----

नमक है कि भर जाता है छालो में 
रेत को जिद छलक आये रक्त से चिपकने की 
और टीस -
इसका तो अपना ही एक मरुदेश है ---- 

कहानियाँ हो जाती हैं नागफनी 
जमा लेती हैं अपने पाँव 
रेत में गहरे तक 
हवा से अपने हिस्से की नमी सोख 
वे एक चेतावनी विहँसती हैं- 
कि 'उखाड़ो मुझे, उजाड़ो मुझे 
खरोंच दूँगी ,
मुझे नकारे जाने के सभी दस्तावेज़' ----

कहानियाँ लिखी हुई स्त्री हैं ---






कविता  

देह की देहरी पर
जलती है कविता
अँधेरे में दीप-सी 
कि तिरते हैं शब्द
कांपती है चमक
हिलते हैं रक्तकण
बेचैनियों की ध्वनि से लौटते हैं शब्द

कहरवे पर समय के हाथ
लय उठती है, गिरती है
उँगलियों से भाषा पिघलती है
निगलती है रगों से धुआँ

एक गुफा बोलती है चित्रलिपि में 
एक झरना भिगोता है उसके पैर 
झरने की आवाज़ सुनाई देती है
दूर तक
कल-कल-कल

बिम्ब से बाहर आती है कविता
बूंदों  को पीती है 
धीरे-धीरे 
भावों की पृथ्वी पर 
घास रखती है कदम  
हटाती है पत्थर 
जहाँ लेटा था सूरज हाथों पर जलाए  
धूप की लौ 

ठहर जाती हूँ मैं
लौ के ठीक नीचे
जहाँ तरल और मृदु से बन रही है मृदा
बन रहा है दीप
बन रहा है दुःख
बन रहा है सुख 

एक देह से रोने की आवाज़ 
जोर से उठी
हाथ हिले

औरत की पसली से अभी
जन्मी है कविता .  

_____________________________
jyotsnapandey1967@gmail.com

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  1. ज्योत्स्ना, तुम्हें पापा के दिये उस प्यारे नाम से पुकारूँ-प्यारी गुड़िया।
    बेहद संवेदनशील और बहुत सहज, सरल इन कविताओं से मिलना कितना सुखद है-कविताओं के दिन-रात, कविता की जगहें, कविता में बहता समय, कविता में चलता जीवन..असीम ऊर्जा से मन भर उठता है। ज्योत्स्ना को खूब सारी बधाई और शुभकामनाएं।

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  2. मैती की वाटर कलर पेंटिंग इन कविताओं पर बारिश की तरह।

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  3. सखी ज्योत्सना की कविताओं का कैनवास विस्तृत है, अनगिन रंग लिए है, मनुष्यता और प्रेम से लबरेज है। ज्योत्स्ना कवितायें लिखती नहीं, जीती हैं, उनकी कविताओं में एक धूसर लोक है जो अपनी मंथर गति से जीवन के विविध रंगों को अपनी तराशी गई कूची से बहुत हौले हौले रंगती है, स्त्री जीवन के जीवंत किस्से हैं जो मन को छूते हैं। हार्दिक बधाई !

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  4. चेतना के उस धरातल से उठाई गई कवितायेँ जहाँ भाषा चित्रमयी हो उठती है और शब्द आकृतियों में ढलने लगते हैं।
    इस सुन्दर प्रस्तुति के लिये समालोचन को बधाई।

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  5. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (25-11-2015) को "अपने घर भी रोटी है, बे-शक रूखी-सूखी है" (चर्चा-अंक 2171) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    कार्तिक पूर्णिमा, गंगास्नान, गुरू नानर जयन्ती की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  6. Jyotsna ji ki kavitayen mn ka aaina hai !
    Sara aakash Kenya's hai !sapno ke asankhya rang hai bharne ke liye
    Waaaaahhhhhhh

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  7. ज्योत्स्ना की कवितायेँ सहज बहती हुयी मन के भीतर उतर जाती हैं ।अच्छी कवितायेँ ।

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  8. ज्योत!
    हर घड़ी प्रेम की ज्योति से जग को आलोकित करतीं तुम अपनी कविताओं में भी वही जादू भर समाज को परसतीं। हर कविता एक नया रंग लिए। खूब ढेर सारी बधाई। जल्दी आओ, तुम्हारा शहर तुम्हारा इंतजार कर रहा है।सब की सब तुमसे सुननी हैं।

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  9. जिसकी साधना में सुध खोया परमात्मा

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