विष्णु खरे : किसके घर जाएगा सैलाबे बला









लोकतंत्र में व्यक्ति की गरिमा और आज़ादी के पक्ष में पुरस्कार वापसी का विस्तार साहित्य, कला, इतिहास, विज्ञान से होते हुए अब फ़िल्म-संसार तक है. किसी भी सभ्य समाज में इतनी सहिष्णुता तो होनी ही चाहिए कि वह अपना प्रतिपक्ष सुन सके. असहमति को बगावत समझना और उसे देशनिकाला दे देना एक प्रतिगामी सक्रियता है जो अंतत: समाज का विध्वंस कर उसे एक कट्टर और एकरेखीय समाज में बदल देती है. ऐसे समाजों की क्या दुर्दशा है इसे भारतीय महाद्वीप के नागरिक से भला बेहतर कौन समझ सकता है ?

विष्णु खरे अपने लेखन से अप्रिय होने की हद तक जाकर असुविधाजनक सवालों को  उठाते  हैं. वे  अक्सर गलत समझ लिए जाने के जोखिम में घिर जाते हैं. यह आलेख जहाँ सम्मान वापसी के पक्ष में खड़े लेखकों और सिनेमा-सम्बन्धितों से कुछ नैतिक सवाल पूछता है वहीँ इस मुहीम को तार्किक विस्तार देते हुए कुछ सुझाव भी रखता है.  


किसके घर जाएगा सैलाबे बला                                            
विष्णु खरे

पनी इकलौती कहानी ‘मोहनदास’ पर मिला जो पुरस्कार हिंदी गल्पकार उदय प्रकाश ने इसलिए लौटाया था कि दात्री संस्था केन्द्रीय साहित्य अकादेमी ने कन्नड़ के अपने पूर्व-पुरस्कृत  सदस्य-लेखक प्रो. एम.एम.कलबुर्गी की मशकूक हिन्दुत्ववादी तत्वों द्वारा हत्या पर यथासमय समुचित शोक प्रकट नहीं किया, उससे जन्मा संक्रामक आन्दोलन एक बदलती गेंद बनकर लुढ़कता, टप्पे खाता, दीर्घाकार होता, बरास्ते सांसद महंत आदित्यनाथ के अखाड़े गोरखपुर से मुंबई में  शाहरुख़ खान के बँगले ‘जन्नत’ तक पहुँच ही गया और इस तरह उसने एक असंभव, अप्रत्याशित वृत्त पूरा कर लिया.

यह अत्यंत विवादास्पद राजपूत महंत उदय प्रकाश के वही दूर के कज़िन हैं जिन्हें भयावह मुस्लिम-शत्रु माना जाता है, जिनके सांसदी हाथों से उन्होंने  कुछ बरस पहले एक कृतकृत्य रिश्तेदाराना साहित्यिक पुरस्कार ग्रहण किया था और उस कारण हमेशा के लिए लांछित हो चुके हैं. यदि आर.एस.एस.कह रहा है कि शाहरुख़ खान को पाकिस्तान मत भेजो क्योंकि वह देशद्रोही नहीं है तो आदित्यनाथ का आह्वान है उसकी फ़िल्में देखना बंद कर दो ताकि वह होश में आ जाए और केंद्र सरकार तथा देश के वातावरण को तंगनज़र, असहिष्णु या ‘इंटॉलेरैंट’ कहना बंद कर दे. इस पर उदय प्रकाश के प्रत्युत्तर की विकल प्रतीक्षा है. यह भी है कि शाहरुख़ ने अपने ‘पद्मश्री’ और अन्य सम्मान लौटने से इनकार कर दिया है.

सिने-जगत वाले कुछ महीनों से पुणे फ़िल्म इंस्टिट्यूट पर थोपे गए अयोग्य अध्यक्ष गजेन्द्र चौहान के विरुद्ध छात्र-आन्दोलन से उद्वेलित हैं ही और पिछले दिनों देश के बदतर हुए सांस्कृतिक-सामाजिक-राजनीतिक माहौल को लेकर लेखकों-बुद्धिजीवियों के मुखर और सक्रिय विरोध-प्रदर्शन के बाद कुछ फिल्मकर्मियों ने भी , जिनमें आनंद पटवर्धन, दिवाकर बनर्जी, सईद मिर्ज़ा, अनवर जमाल, कुंदन शाह, वीरेन्द्र सैनी, संजय काक आदि शामिल हैं, अपने सरकारी सम्मान लौटाकर एक नया मोर्चा खोल दिया. इसमें प्रसिद्ध उपन्यासकार और सक्रियतावादी अरुंधती रॉय का नाम भी है.

कुछ विचित्र विरोधाभास सामने आ रहे हैं. यदि हम खुद को फिल्म-जगत तक ही महदूद रखें तो एक सवाल यह है कि जो भी सम्मान या पुरस्कार लौटाए जा रहे हैं वे किस सरकार ने दिए थे. यदि उन्हें ग़ैर-भाजपा सरकारों ने दिया था तो भाजपा सरकार के ज़माने में उन्हें लौटाने से किस नैतिक-सामाजिक-राजनीतिक सिद्धांत को ‘एसर्ट’ किया जा रहा है ? इससे भाजपा किस तरह से शर्मिंदा या चिंतित हो सकती है ? उलटे वह कह नहीं सकती  कि इस कबाड़ को आप कांग्रेस के दफ़्तर या मनमोहन-सोनिया के निवासों पर ले जाइए.

और भी विचित्र यह होगा कि आप सब सरकारों को एक ही थैली की चट्टी-बट्टी मानें और कहें कि हम इस सरकार के कुकृत्यों के विरुद्ध उस पिछली सरकार के पुरस्कार लौटा रहे हैं.तो पूछा जा सकता है कि आपने उस सरकार से पुरस्कार क्यों लिए – क्या वह उस वक़्त बेदाग़ थी ? और क्या राजीव गाँधी, नरसिंह राव और मनमोहन सरकारों ने कुछ ऐसा किया ही नहीं कि आप उनके कार्यकाल में कुछ लौटाते ? मसलन अरुंधती रॉय को तो उनका पुरस्कार 1988 में मिला था, बाबरी मस्जिद 1992 में ढहाई गई और उसके बाद हज़ारों हत्याओं वाले दंगे हुए. क्या वे दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी के आगे नगण्य और क्षम्य थे कि ‘’सीनियर’’ पुरस्कार-विजेताओं ने तब कोई कार्रवाई मुनासिब न समझी ? इस तर्क में क्या दम है कि हम जब उचित समझेंगे तब ईनाम लौटाएँगे ? और जो लौटा रहे हैं वे भी सही हैं और जो नहीं लौटा रहे हैं वे भी ग़लत या दोषी नहीं हैं ? जो दो-दो कौड़ी के पुराने प्रांतीय या स्थानीय पुरस्कार लौटा रहे हैं वे भी स्वयं को पाँचवाँ सवार या गाड़ी को नीचे से खींचनेवाला तीसरा ‘हीरो’ चौपाया समझ रहे हैं.

बहुत सारी ऐसी प्रतिष्ठित निजी साहित्यिक संस्थाएँ हैं जो महत्वपूर्ण पुरस्कार देती हैं – उनसे क्यों नहीं कहा जा रहा कि वे उपरोक्त तीनों हत्याओं जैसी जघन्य, फ़ाशिस्ट घटनाओं पर शोक प्रकट करें ? लेकिन फिर हमारे लेखकों को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार कैसे मिलेगा, ज्ञानपीठ से पुस्तकें कैसे छपेंगी, ’ज्ञानोदय’ में रचनाएँ कैसे आएंगी ? कुछ नहीं तो बिड़ला फाउंडेशन ही सही ! किसी भी पार्टी या रंगत के हों, राजनेताओं को साहित्यिक-सांस्कृतिक मंच देना बंद क्यों नहीं होता ? क्या हिंदी के प्रकाशकों ने अपने हाउस-जर्नल्स में कभी ऐसी हत्याओं पर शोक प्रस्ताव छापे ? जुझारू वामपंथी हिंदी पत्रिकाओं ने कोई लेख-वेख ?

मेरे लिए सबसे आश्चर्य की बात यह है कि कोई भी नहीं कह रहा है कि वह सरकारी-अर्ध-सरकारी संस्थाओं से कोई राब्ता नहीं रखेगा – इस मसले पर भारतीय लेखकों की कोई नीति या सोच ही नहीं हैं. मेरा मत है कि सिर्फ़ भाजपा के वक़्त के सरकारी पुरस्कार लौटाए जाने चाहिए – बाक़ी को लौटाना महज़ एक धूर्त, निरर्थक पब्लिसिटी स्टंट है. हमारा अधिकांश मीडिया, जो बुद्धि और सूचना के स्तर पर काफ़ी दीवालिया है, मीडियाकरों द्वारा टुच्चे, जुगाड़े गए ‘’पुरस्कारों’’ को ‘स्पिन’ और ‘बाइट’ दे रहा है. आप देखें कि शाहरुख़ को अपना कोई पुरस्कार लौटाने-योग्य नहीं दीख रहा  है क्योंकि  उसकी पॉपुलैरिटी बड़े-से-बड़े ईनाम या सम्मान लौटाने-न लौटाने से कई गुना ज़्यादा बड़ी है, दादासाहेब फालके से भी ज्यादा, इसलिए उस पर  हमला करने के लिए भाजपाई नेताओं और रामदेव तथा आदित्यनाथ को उतरना पड़ा है – सईद लँगड़े पर कौन रोएगा ?

असहिष्णुता हमारे यहाँ कब से नहीं है – जाति-प्रथा से ज़्यादा अमानवीय चीज़ और किस समाज में वेद और मनुस्मृति-काल से है ? मजहबों में इंटॉलरेन्स अनिवार्य रूप से कूट-कूट कर भरा हुआ है. हम सब उस एकतरफ़ा-दुतरफ़ा नफ़रत को जानते है जो हमारे यहाँ विभिन्न धर्मों, बिरादरियों, संस्कृतियों, भाषाओँ, प्रदेशों आदि के बीच में है. हमारे देश में हर उम्र की ‘स्त्री’ को लेकर जो ग़ैर-बर्दाश्तगी है वह रोज़ दमन, बलात्कार, दहन और अत्याचारों की खबरों की शक्ल में हमारे घरों पर नाज़िल होती है.सिर्फ़ आज की और ‘धर्मवादी’ असहनशीलता की बात सभी के लिए सुविधाजनक है क्योंकि हम पूरा निज़ाम बदलने की हिम्मत और सलाहियत रखते ही नहीं.

कड़वी सचाई तो यह है कि हमारी अधिकांश अधेड़ फिल्म-इंडस्ट्री ख़ुद तंगनज़र और बुज़दिल है  और अपने स्वार्थ व ऐयाश मुनाफ़े के लिए हर तरह के इंटॉलरैंट माफ़िया की लौंडी बनी हुई है. वह खुद ‘कास्टिंग काउच’ पर विवस्त्र लेटी हुई है. जिस तरह हमारे पूरे समाज में कोई प्रबुद्ध, निडर, आधुनिक सभ्यता और विचारधारा नहीं है उसी तरह सिनेमा-उद्योग में भी नहीं है. उसे बैठने को कहो तो वह रेंगने लगता है.

दरअसल आज फिल्म-जगत में नेहरू-युग से 1970-80 तक के निस्बतन बड़े, नैतिक-सामाजिक-राजनीतिक मौजूदगी वाले  प्रोड्यूसर,डायरेक्टर,स्त्री-पुरुष एक्टर, लेखक और गीतकार रहे ही नहीं. दिलीप कुमार आज उस ज़माने के एक लाचार, आख़िरी मार्मिक प्रतीक हैं. अमिताभ बच्चन से किसी भी तरह की उम्मीद बेकार है. दूसरी ओर भाजपाई और अन्य उपद्रवी हिन्दुत्ववादी राजनीतिक और सांस्कृतिक तत्व, कुछ मुंबई में होने के कारण भी, खुल्लमखुल्ला फ़िल्म उद्योग में दाखिल हो चुके हैं, ’डॉमिनेट’ कर रहे हैं और उनके समर्थक तो सिनेमा की हर शाखा में ‘इन्फ़िल्ट्रेट’ करते आए ही हैं. कई बड़े हीरो-हीरोइन आज भाजपा-शिवसेना आदि  के समर्थक-सदस्य हैं, जैसे कुछ कांग्रेस के भी रहे हैं. वे आपसी जासूसी, चुग़ुलखोरी और नुक़सान करते ही होंगे.

हॉलीवुड 1946-56 के बीच प्रतिक्रियावादी तत्वों द्वारा प्रगतिशील एक्टरों और लेखकों को आखेट  बनाने के राजनीतिक अभियान से हिल गया था. बाद में इस ‘डायन-शिकार’ (‘विच-हंटिंग’) को बंद करना पड़ा लेकिन वह लोगों की स्मृति में बना  हुआ  है और उसे लेकर दोनों पक्ष अब भी जागरूक हैं. हालाँकि उस पर अब तक किताबें लिखी जा रही हैं, लेकिन क़िस्सा बहुत जटिल है. उसके ‘नायक’ विख्यात पटकथा-लेखक डाल्टन ट्रम्बो थे जिनपर स्वयं अब एक फिल्म बन रही है. हॉलीवुड की यह कुख्यात दास्तान मुंबई में दुहराना बहुत कठिन नहीं है. अभी तक देश की जनता यह समझ नहीं पा रही है कि यह पुरस्कार लौटाना और तंगनज़री, असहिष्णुता, इंटॉलरैंस वगैरह क्यों, किसलिए हैं. इसके लिए श्याम बेनेगल, गोविन्द निहालाणी, ओम पुरी, आमिर खान, शाहरुख़, महेश भट्ट, विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप, तब्बू जैसे नामों को इंडस्ट्री के एक जुलूस की शक्ल में सड़क पर आना होगा. इसमें मुख्यधारा (मेनस्ट्रीम) के लोकप्रिय चेहरे और नाम होने अनिवार्य हैं. अंदरखाने कौन-क्या है यह कहना भी तो मुश्किल है. लेकिन देशव्यापी जागरूकता और निडरता  की एक शुरूआत फिल्मवाले भी कारगर ढंग से कर सकते हैं.

आज संसार में सिनेमा से अधिक लोकप्रिय और प्रभावशाली कला और सूचना माध्यम कोई नहीं है.गोवा में भारत का सरकारी अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह शीघ्र ही होने जा रहा है.वैसे तो इसे विश्व सिने-बिरादरी में कोई भी बहुत गंभीरता से नहीं लेता, फिर भी गोवा के नाम पर कुछ विदेशी निर्माता-निदेशक-अभिनेता अपनी फिल्मों के साथ उसमें खींचे चले ही जाते हैं और बाहर के अखबारी तथा रेडियो-टीवी के पत्रकार भी.जो प्रबुद्ध, आधुनिक और प्रतिबद्ध भारतीय फिल्मकर्मी वाक़ई असहिष्णुता के मसले पर गंभीर हैं उन्हें इस फिल्म समारोह के अवसर के ज़रिये  अपनी बात सारी  दुनिया के सामने रखना चाहिए. भले ही इसका बहिष्कार न किया जाए लेकिन समारोह की अवधि में काली पट्टियां बाँधी जा सकती हैं, प्रदर्शन किए जा सकते है,जुलूस निकाले  जा सकते हैं, प्रैस और टीवी कांफ्रेंसें की जा सकती हैं, सेमिनार और लेक्चर किए जा सकते हैं. ज़रूरत पड़े तो अपनी फ़िल्में वापिस भी ली जा सकती हैं. पुणे फिल्म इंस्टिट्यूट के छात्र भी इसमें शांतिपूर्ण ढंग से शामिल हो सकते हैं.

अभी यह मालूम ही नहीं पड़ रहा है कि दाभोलकर-पानसरे-कलबुर्गी त्रिमूर्ति की हत्या किन तत्वों ने की लेकिन सभी लेखकों-बुद्धिजीवियों-संस्कृतिकर्मियों-एक्टरों को आज एकजुट और सतत् जागरूक रहने की ज़रूरत है. यह भी है कि आज यदि बिहार में महागठबंधन जीतता है, जिसकी प्रबल संभावना है, तो मुंबई में शाहरुख़, आमिर आदि  के नेतृत्व में एक विजय-मार्च निकाला जाना चाहिए क्योकि वह असहिष्णुता के अंत का एक प्रारंभ हो सकता है.
______________ 
(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल 
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

विष्णु खरे को इस सन्दर्भ में यहाँ भी पढ़ें- 

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  1. मोदी सरकार के अंत का आरम्भ दिल्ली से शुरू हुआ. बिहार के चुनाव ने बीजेपी के पतन की लुढ़कती गेंद को गति प्रदान की है. बीजेपी की पूरी टीम दोषी है.

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  2. अजेय कुमार8 नव॰ 2015, 7:45:00 pm

    I have shared almost every post of samolochan in a group called "samvad ". In Kullu , Himachal. Good eye openers for Interiors of Indian Himalayas. Esp. I didn't miss a single article by. Vishnu Khare .

    Great words. Salute to him

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  3. रवि रंजन8 नव॰ 2015, 7:47:00 pm

    Ravi Ranjan Now let us take a break and stop digging the past in favour of smooth functioning of Govt. of Bihar and let Mr.Nitish Kumar work in coordination with central Govt..

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  4. अरुण माहेश्वरी9 नव॰ 2015, 12:34:00 pm

    विष्णुनागर ने अपनी वाल पर एक पोस्ट लगाई है -

    “भाजपा के कुछ वर्तमान और भूतपूर्व नेता आज मन की बात बोल रहे हैं ,भाजपाई होकर भी विपक्षी से दिख रहे हैं तो हमें अच्छा लगता है, सूट करता है।ज़रा सोचिये अगर ये मंत्री या ऐसे ही कुछ बना दिये गए होते पहले ही, इनके अहम को चोट नहीं पहुँचाई गई होती, इनकी पूछ होती तो क्या ये मन की बात बोलना पसंद करते या बोलते तो वह उस कोटि की होती,जैसी कि मोदीजी की आकाशवाणी पर होती है।और आज जो मोदीजी की जयजयकार कर रहे हैं, कल मान लो उन्हें बाहर कर दिया जाए तो वे भी खरी-खरी बात कहने लगेंगे,इसलिए मौक़े के मुताबिक़ बोलनेवालों और जो हमेशा एक सा कड़ुवा बोलते हैं,उनमें आज भी हमें फ़र्क़ करना चाहिए।“
    इस पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए हमने वहीं पर लिखा -

    “लेकिन जब कोई विचार कहीं से भी आता है तो वह किसी न किसी लक्षण का भी सूचक होता है। किसी भी वजह से क्यों न हो, वह एक दरार तो दर्शाता ही है। इससे यह मिथक दरकता है कि मोदी-शाह नेतृत्व चुनौती-विहीन है। आज हमें ये नेता संदिग्ध लग सकते हैं, लेकिन जब ऐसे ही विचारों का दोहराव होगा तो यही बाते उस पार्टी के अन्दर एक ‘ऐतिहासिक जरूरत’ मानी जाने लगेगी। जो चीज प्रथमत: कुछ समझ में नहीं आती, अजीब सी लगती है, वही क्रमश: चेतना में रूपांतरित होती है। चेतना के बनने का रास्ता हमेशा इसीप्रकार पहले चीज की गलत पहचान से ही पैदा होता है। ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। सबसे पहले उदय प्रकाश ने अपना सम्मान लौटाया। बहुतेरे ऐसे थे, जिन्होंने उनके इरादों पर संदेह किया। उनके बाद नयनतारा सहगल, फिर अशोक वाजपेयी - संदेहास्पदकता का भाव कमजोर होने लगा। और आज, उसे ही सब एक ‘ऐतिहासिक जरूरत’ समझ रहे हैं। इसीलिये देखने की जरूरत है कही जाने वाली बातों की सत्यता को, न कि कौन कह रहा है उसके व्यक्तित्व को।“

    ध्यान से देखने पर इससे शायद विष्णु खरे की पर्तों को भी खोला जा सकेगा। पता चलेगा कि वे कहां खड़े हैं और विचार के उनके औजार कितने भोथरे हैं।

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  5. congrats to vishnu ji for great contribution to society.

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  6. आलेख के तथ्यों से ' पूरी तरह सहमत ' ,,!,,,,

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  7. ...खरे जी गड़बड़ा गए हैं लगता है ! :) 'मियां की जूती, मियां का सिर' दोनों एक साथ ? क्या कहना चाह रहे हैं ये तो स्पष्ट हो पहले ! 'गोरखपुर का भूत' इनका पीछा ही नहीं छोड़ रहा... :)

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  8. ' असहिष्णुता ' ,,, वैश्विक विषय है !,,, काश हमारे ' रचनाकारों ' ने इसे विश्व स्तर पर उठाया होता , और ख़ास कर उन लोगो ने जो विश्व के कई देश भ्रमण कर आये हैं और कई देशों के कई नज़ारे देख आये हैं !

    भारत में तो ' पुरस्कार वापसी ' से काफी उद्वेलन हो गया , अब यदि अमेरिका में भी , ' रंगभेद ' की असहष्णुता पर , अमेरिका जाकर , मुहिम चलाई जाये और विश्व स्तर पर मिले किसी पुरस्कार को वापिस किया जाए , तो शायद ' ओबामा ' सरकार ध्यान दे कर , रंग भेद ' समाप्त करवा दे ,,,!!

    इसमें समस्त ' मानव जाति ' का कल्याण निहित है ! और संवेदनशीलता की सम्पूर्ण मानव जाति को बहुत जरुरत है !

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  9. फिल्मो का -नैतिक -राजनीतिक -सामाजिक खोखलापन वास्तव में सोंचनीय है ।
    किन्तु आप का ये विचार की एक धड़े के लोग सक्रिय हों तो अच्छा और दुसरे धड़े के लोग पतन के सूचक हैं कहाँ तक सही है।
    होना ये चाहिए की सभी विचारधारा के लोग propagenda छोड़ कर अपने अपने मुद्दों को उचित तरीके से उठाये ।
    ये नहीं की अगर आप इस धड़े के हैं तो प्रगतिशील, और अगर हमारी विचारधारा से अलग आप सोंच सकते हैं तो दकियानूसी।
    हालाँकि हर विचारधारा में आपको खुद के सोंच से विहीन फॉलोवर मिल जाएंगे।

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  10. मैं यहाँ मुद्दों को अलग अलग नजरिये से देखने का उदहारण देना चाहूँगा - राजकपूर जो की वास्तव में एक महान फिल्मकार थे उन्होंने सामाजिक मुद्दों पर एक से बढ़कर एक फ़िल्में दी हैं किन्तु उनके सामने उसी ज़माने की राजश्री प्रोडक्शन की कई फिल्में भी कहीं कम नहीं ठहरती चाहे 'दोस्ती' हो ,'सावन को आने दो' हो , 'शिक्षा' हो जिनमे सामाजिक समस्याओं को, ऊँच नीच को, वर्ग संघर्ष की दृष्टि से नहीं बल्कि उसके नैसर्गिक रूप में देखा गया गया है । दोनों नजरिया अपने आप में सत्य है । या यूँ कहें की अलग अलग दोनों अर्ध सत्य हैं।

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