परख : हर्ता कुँवर का वसीयतनामा











पूर्वोत्तर के आदिवासी जीवन पर हिंदी में मूल रूप से लेखन कम देखने को मिलता है. कथा साहित्य में तो इसकी कमी है ही. उदयभानु पाण्डेय का नवीनतम कहानी संग्रह ‘हर्ता कुँवर का वसीयतनामा’ की जमीन पूर्वोत्तर है. शोषण, विद्रोह, निर्वासन, प्रेम आदि स्थितियां  इन कहानियों में सबलता से प्रत्यक्ष हुई हैं. अर्पण कुमार की विस्तृत समीक्षा.        


हर्ता कुँवर का वसीयतनामा और पूर्वोत्तर की जमीन                              
अर्पण कुमार



सुदूर उत्तर-पूर्व और पश्चिमी क्षेत्र को छोड़ भी दें तो स्वयं हिंदी प्रदेशों में भी विभिन्न आवास-क्षेत्रों में फैले आदिवासी जीवन को बहुत करीब से हिंदी साहित्य में अभिव्यक्ति अभी कम ही प्रदान की गई है. इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि उत्तर-पूर्व के आदिवासी जीवन पर और उसमें भी कार्बी जनजातियों को लेकर उदयभानु पांडेय लंबे समय से अपने लेखन में उन्हें चित्रित कर रहे हैं. हर्ता कुँवर का वसीयतनामा उदयभानु पांडेय का नवीनतम कहानी-संग्रह है. सतवंती (1989) और उत्तर राग एवं अन्य कहानियाँ (2001) के बाद का यह उनका तीसरा कहानी-संग्रह है. उपरोक्त दोनों संग्रहों की शीर्षक कहानियों सहित कई कहानियाँ इस संग्रह में संकलित हैं. एक तरह से इस पुस्तक को उनकी प्रकाशित कहानियों का प्रतिनिधि-संग्रह भी कहना ग़लत न होगा. अस्तु, इस कहानी-संग्रह में कुल पंद्रह कहानियाँ हैं. कहने की ज़रूरत नहीं कि उनकी कहानियों का जो ट्रेड-मार्क है वह इन कहानियों में भी उपस्थित है और वह है सुदूर उत्तर-पूर्व की जीवन-शैली का चित्रण उनके भीतर का प्रेम एवं उनकी खास तौर से हर्ता कुँवर कर्बी जनजातियों का आंतरिक एवं प्रामाणिक चित्रण.

उल्लेखनीय है कि हिंदी कथा-जगत में पहली बार इतने व्यवस्थित तरीके से कार्बी जनजातियों की जीवन-शैली एवं उनकी मनोरचना को किसी कथाकार ने अपना वर्ण्य विषय बनाया है. बेशक इस  जनजातीय समाज को लेकर असमिया से हिंदी में अनुवाद प्रकाशित हुए हैं मगर मौलिक रूप से कथा का विषय इसी संग्रह में बन पाए हैं.जहाँ तक ऐसी अनुदूति कहानियों का विषय है प्रो. पांडेय ही उसमें अग्रणी नज़र आते हैं. प्रो. रंगबंग तेरांगा की कहानी टिड्डे का विरहा (2003 समकालीन भारतीय साहित्य) का हिंदी अनुवाद सर्वप्रथम इन्हीं के माध्यम से आया. प्रस्तुत संग्रह की एक महत्वपूर्ण कहानी है हर्ता कुँवर का वसीयतनामा. कार्बी जनसमुदाय की मान्यता के अनुसार, हर्ता कुँवर ने सूर्यदेव की आखिरी और छठी बेटी से शादी तो की मगर देवताओं द्वारा हर तरह की सुविधा और संपदा को विनम्रतापूर्वक न सिर्फ उसने ठुकराया बल्कि अपने बल-बूते एक बड़े कार्बी-साम्राज्य की स्थापना भी किया. उसी हर्ता कुँवर की मिथ को पलटते हुए आज की वर्तमान कार्बी-जनजाति के लोगों में पनपते असंतोष को उदयभानु पांडेय ने प्रस्तुत संग्रह की इस शीर्षक कहानी हर्ता कुँवर का वसीयतनामा में बेहतर तरीके से उभारा. 

ड्रैमैटिक मोनोलॉग
 का इस्तेमाल करते हुए मैं शैली में लिखी यह कहानी इस संग्रह की एक महत्वपूर्ण कहानी बन पड़ती है. अगर भौगोलिक विस्तार पर दृष्टि की जाए, तो यह कार्बी-जनजाति वास्तव में असम से लेकर चीन,बर्मा थाईलैंड , बांग्लादेश, सिक्किम से लगे नेपाल के कुछ हिस्सों तक पसरी हुई है. मगर प्रस्तुत संग्रह में असम विशेष में रहनेवाले कार्बी लोगों की जीवन-कथा को प्रस्तुत किया गया है. यहाँ उनके जीवन में आए विचलनों को काफी पीछे जाकर पकड़ने की कोशिश की गई है. उदाहरण के लिए अगर हर्ता कुँवर का वसीयतनामा कहानी को ही लें तो यह कहा जा सकता है कि लेखक ने अगर अपने इस समकालीन विषय को उसकी पुरातनता में जाकर न पकड़ा होता तो संभव है कि यह विषय किसी अखबार के रिपोर्ताज़ जैसा कुछ होकर रह जाता. संवेदनात्मक रूप से सघन प्रेम-कहानियाँ लिखने वाले उदयभानु लंबे समय से आदिवासी जीवन ,उसकी संस्कृति और समस्या को अपने गल्प में निरंतर स्थान देते आए हैं. कोई चार दशकों से अधिक समय से पूर्वोत्तर में प्रवास कर रहे उदयभानु  की कहानियों में बड़े स्वाभाविक और मौलिक रूप में इनके परिवेश का चित्रण संभव हुआ है. मूलतःअवध में जन्में और शिक्षा प्राप्त उदयभानु  की कहानियों में उत्तर-प्रदेश,बिहार से लेकर पूर्वोत्तर की परस्पर भिन्न मगर एक-दूसरे से जुड़ी संस्कृतियों और उनकी टकराहट की अनुगूँज सुनी जा सकती है.


डॉ. लोहिया उत्तर भारत के हिंदुओं के बीच प्रचलित रामायण में स्वयं से सीता के बिछुड़ने की तुलना राम द्वारा किसी संपत्ति के चले जाने से किए जाने पर काफी आपत्ति करते थे और उस मानसिकता को स्त्री-विरोधी मानते थे. मगर कार्बी रामायण, आदिवासी हिंदुओं की ऐसी पुराकथा है जिसमें आदिवासी स्त्रियों की स्वतंत्रता के अनुरूप ही उनके पौराणिक चरित्रों का चरित्र-निरूपण किया गया है. कहने की ज़रूरत नहीं कि अपने परंपरागत रूप में आदिवासी-समुदायों में स्त्री-मुक्ति आधुनिक स्त्री-विमर्श की सैद्धांतिकी से भिन्न अपने प्रकृतस्थ रूप में नज़र आती हैजहाँ उनकी मुक्ति और स्वतंत्रता उतनी ही स्वाभाविक है जितनी उस अंचल की हरियाली और उनकी आम जीवन-शैली.वहाँ मूलतः  स्त्री-पुरूष में कोई लैंगिक भेदभाव देखने को नहीं मिलता.


उदयभानु या तो आदिवासी जीवन की समकालीन विडंबनापूर्ण राजनीतिक टूटन,अलगाव को; वहाँ पनपती हिंसा और उग्रवाद को उसके पीछे के सुनहरे,शांतिपूर्ण और निष्कपट रहे जीवन के बरक्स रखकर वर्तमान त्रासदी की टीस को कुछ ज़्यादा गहराई के साथ उभारते हैं. उदयभानु की कहानियों में राजनीतिक सजगता उनकी कहन को एक तीव्र धार देती है जिसमें उनकी भाषा एक प्रदेश-विशेष की हो रही उपेक्षा और वहाँ की भोली-भाली जनता को गुमराह कर उन्हें नशा,हिंसा और भ्रष्टाचार में लिप्त कर रहे स्थानीय और बाहरी लोगों के सिंडिकेट की चालबाजी को परत-दर-परत उघाड़ने में मदद करती है.  उदयभानु पांडेय के इस नवीनतम कथा-संग्रह में एक तरफ ठोस राजनीतिक वास्तविकता है तो दूसरी तरफ घोर रोमांटिसिज्म भी.सुदूर पूर्वोत्तर में उनका सुदीर्घ प्रवास और उनका किस्सागो मिज़ाज़.....खास तौर से स्त्री-मनोजगत पर उनकी पकड़ उनकी कहानियों में पात्र और परिवेश के प्रभावी चित्रण में काफी उपयोगी हैं. पुस्तक का ब्लर्ब लिखते हुए  विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने ठीक ही लक्षित किया है,  “.एक और विशेषता जो रेखांकित करने की है, वह है इन कहानियों में पूर्वोत्तर राज्यों के निर्वासित और आदिवासियों का जीवन. एक लंबे समय से कहानीकार उनके निकट साहचर्य में है. अतः उनके जीवन-यथार्थ,जीवन-दर्शन,परिवेश और मनोजगत से उसका परिचय है. भारत के इस संवेदनशील पूर्वोत्तर क्षेत्र के जन-जीवन का प्रायः शोषण ही हुआ है जिसकी परिणति उसकी विद्रोही गतिविधियों में हो रही है. इस संग्रह की कई कहानियाँ इस तथ्य को उजागर करती हैं.


कार्बी पुरा-कथाओं के चरित्रों का उदायभानु पांडेय ने अपनी कहानियों में रचनात्मक इस्तेमाल किया है. साथ ही उनकी हिंदू मिथ-परंपरा से निकटता पर भी वे चर्चा करते हैं. वे अपनी कहानियों में खासकर उनके शीर्षक देते हुए हमेशा कोई काव्यात्मक बुनावट करते हैं जिसके पीछे निश्चित रूप से संबंधित कहानी की पृष्ठभूमि को उभारने में और उसे एक पौराणिक आधार देने में उन्हें एक अतिरिक्त सुविधा मिल जाती है. वैसी कहानियाँ अपने शीर्षक से ही पाठकों को आकर्षित करती हैं. उदाहरण के तौर पर श्याम मोसे न खेलो होरी रे ,हर्ता कुँवर का वसीयतनामा, मित्रावरुणो आदि का नाम लिया जा सकता है. इस तरह अपनी समकालीन कहानियों में किसी पुराने पदगीत आदि के वाक्यांश देकर तो कभी अपने मिथकीय चरित्रों को उदधृत करते हुए वह अपनी कहानी की प्रभावोत्पादक्ता को बढ़ाने में कामयाब रहे हैं. इनकी कहानियों के शीर्षक गुंफित और अपने में बहुत कुछ समेटे होते हैं और उनकी प्रतीकात्मकता अक्सर कहानी के लिए किसी सूत्र सा होती हैं जिसके माध्यम से कहानीकार अपनी कहानी को समुचित रूप और आकार देता है और अपने उस मेटाफर को खोलता भी चलता है. इससे कहानी के प्रति न सिर्फ पाठकों का आकर्षण द्विगुणित होता है बल्कि वहाँ उठायी गई विषयवस्तु को समझने में भी सुविधा मिलती है. फिर चाहे वह कहानी भंवरा रे हम परदेसी लोग हो या फिर श्मशान में श्वपच’.
                                               

जहाँ तक उदयभानु की प्रेम-कहानियों का सवाल है उनकी कहानि बाँग्ला स्त्रियों के साथ उ.प्र. और बिहार के पढ़े-लिखे बुद्धिजीवियों का प्रेम और उन स्त्रियों के साँवले रंग,उनकी बड़ी-बड़ी आँखों के प्रति उनका आकर्षण उनके मातृत्व-भाव और सहज समर्पण के प्रति भावुक पुरबिया पुरुष मन और फिर किसी न किसी कारण से दोनों का बिछोह ……एक तरह से उदयभानु की प्रेम-कहानियों की यह एक मुख्य विशेषता है. उनकी प्रेम-कहानियों का यू.एस.पी..



उदयभानु के कथा-जगत में एक तरफ अवध के लोकगीतों के टुकड़े मिलते हैं तो वहीं दूसरी तरफ बिहार के श्रमिक समाज की पीढ़ियों से जारी पीड़ा भी दिखाई पड़ती है. विकास और भ्रष्टाचार; उपभोक्तावाद और बाजारवाद के बीच कहीं बुरी तरह फँसे पड़े आदिवासी-मन के अंतर्विरोध तो खैर उनकी सामाजिक-राजनितिक एवं सांस्कृतिक तेवर की कहानियों के सिग्नेचर-ट्यून तो हैं ही. अवध के लोकगीतों के प्रयोग-मात्र से सतवंती कहानी में जो पुराने और नए का रचनात्मक तनाव मिलता है, वह इस कहानी के पाठ को समझने में काफी सहायक है. भारत की रूढ़ पारंपरिक जातिगत व्यवस्था में अगर एक ब्राहम्ण की विवाहित स्त्री अपने ही गाँव की एक पिछड़ी जाति  के नवयुवक के साथ बंबई भाग जाती है तो परिवर्तन की इस हवा को पुरानी संस्कृति के बरक्स देखने से सतवंती (धर्मयुग में 1984 में प्रकाशित) का यह कदम खासा महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी दिखता है. कुछ-कुछ अपने समय से आगे भी.


कहने की ज़रूरत नहीं कि भाषा किसी भी रचना की प्रवाहमयता और उसकी प्रभावोत्पादकता  में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है|प्रस्तुत संग्रह की कहानियों में भी भाषा की यह ताकत देखने को मिलती हैजो कहानियों की पृष्ठभूमि और उसके कथ्य के अनुरूप अपनी छटा बिखेरती है. जब लेखक दुखांत प्रेम कहानी लिखता है (और जिसमे उनका कहानीकार बहुत प्रभावी ढंग से सामने आता है) तब वह  एक चोटिल और भावुक प्रेमी मन को जिसे पुरानी स्मृतियों ने इस तरह जकड़ रखा है कि उसे कुछ भी सुहा नहीं रहा है (उत्तर राग की मृत्यु) ...तो शहर में ढलती शाम की धूप, (जब वह अपनी पूर्व-प्रेमिका नंदिता के घर उससे मिलने जा रहा है) और गहराती रात (जब वह उसके यहाँ से टूटा हुआ वापस अपने होटल आ रहा है) दोनों ही दृश्यों का चित्रण न केवल पात्र के मानोभावों का प्रकटीकरण  है बल्कि एक सशक्त और प्रभावी गद्य की बानगी भी है:-   ‘…नहाने के बाद पलकें भारी होने लगी थीं और मैं सो गया. नींद टूटी तो धूप की किरणों से छिदी शाम एक पिटी हुई झगड़ालू औरत की तरह लग रही थी. औंधे-मुँह पड़ी हुई सड़कें थकी-थकी और आहत-सी दिख रही थीं...... (उत्तर राग की मृत्यु पृष्ठ संख्या 96) वहीं देर रात को सड़कों पर कई अन्य तरह की ठेठ बाजारू गतिविधियों को लक्षित करता खुली सड़क पर गुजरता हुआ कहानी का नायक सौरभ सक्सेना को लगता है,’ ...महानगर एक दैत्याकार अजगर की तरह पसरा हुआ था.‘ (उत्तर राग की मृत्यु पृष्ठ संख्या 102)     

नगीना हृदय को छूनेवाली कहानी है. कहानी का नायक, सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है. यहाँ एक प्रवासी मजदूर की दशा का बड़ा मार्मिक चित्रण किया गया हैजिसे न उसके पैतृक निवास में रहने की समुचित और सुरक्षित व्यवस्था है और न वहाँ ही, जहाँ वह जी-तोड़ मेहनत कर रहा है. आखिरकार वह अपनी तमाम सरसता और पसीना देकर भी अंततः गरीबी के अभिशाप से मुक्त नहीं हो पाता है.और फिर नगीना की प्रतिकृति उसका जवान बेटा भी उसी रूप में जब पूर्वी बिहार से असम की धरती पर अपने कदम रखता है तो इसके बहाने लेखक यह साफ तौर से इंगित करता है कि सर्वहारा की जीवन-स्थिति में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं आता है और उस दारूण जीवन-स्थिति का शिकार उसकी अगली पीढ़ी भी होती चली जाती है. उल्लेखनीय है कि असमिया पत्रिका श्रीमयी के जनवरी 1995 के अंक में उदयभानू के गल्प पर चर्चा करते हुए प्रख्यात असमिया लेखिका इंदिरा गोस्वामी ने नगीना कहानी की विस्तार से चर्चा की थी और उसे काफी मर्मस्पर्शी बतलाया था.


स्मृतियों के चित्रण में भाषा का सौष्ठव अपने चरम पर होता है, अगर उसे भली-भाँति और डूबकर चित्रित किया जाए.वैसे भी विस्थापन के इस युग में स्थान-विशेष को छोड़ने का दुःख और नई जगह के साथ तादात्म्यीकरण की प्रक्रिया बड़ी जटिल और बहुस्तरीय हो गई है. बेशक भौतिक रूप में समायोजन की प्रक्रिया बहुत जल्द होती है और कई बार किसी बड़ी समस्या से मुक्त भी लगती है मगर मानसिक स्तर पर समामेलन और समायोजन की यह प्रक्रिया बहुत धीरे-धीरे ही संपन्न होती है. ठीक सभ्यता और संस्कृति के तर्ज़ पर.मित्रावरुणो और नगीना कहानियों के माध्यम से इसे सहज ही समझा जा सकता है जहाँ एक प्रोफेसर और एक मजदूर को अपने प्रवासी होने का मूल्य चुकाना पड़ाता है.ऐसा नहीं है कि सभी स्थानीय लोग बाहर से आए लोगों के खिलाफ हो जाते हैं क्योंकि ऐसा होने पर तो समाज की संरचना ही छिन्न-भिन्न हो जाएगी.मगर जो इन बातों को लेकर राजनीति करते हैं, वे इन पृष्ठभूमियों का बेजा इस्तेमाल अरसे से करते आए हैं. मित्र और वरुण दोनों की दोस्ती के पौराणिक आख्यान का इस्तेमाल करते हुए इस कहानी में दोस्ती के आधुनिक रूप (जिसमें अवसरवाद एक महत्वपूर्ण तत्व है) का चित्रण किया गया है. इसमें एक प्रसिद्ध कहावत  दोस्त तो जिंदा है मगर मुहब्बत नहीं रही का इस्तेमाल करते हुए लेखक ने इस कहानी का अंत किया है. कहने की ज़रूरत नहीं कि यहाँ पढ़े-लिखे लोगों की स्वार्थी और संकुचित दृष्टि का भी सहज ही पर्दाफाश किया गया है.


सतवंती कहानी 1989 में इसी नाम से प्रकाशित उनके पहले कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी है. यह कहानी सर्वप्रथम 1984 में धर्मयुग में प्रकाशित होकर चर्चित हो चुकी है.इसे लेकर नाट्यकार और निर्देशक डॉ. श्रीमती गिरीश रस्तोगी,शिवानी,कुबेरनाथ राय,डॉ. जवाहर सिंह जैसे वरिष्ठ लेखकों/आलोचकों ने लेखक को पत्र लिखकर सतवंती के चरित्र को काफी खनकदार और फोर्सफुल बताया था. निःसंदेह सतवंती का चरित्र काफी बोल्ड है और यह कहानी अपनी रचना के वर्ष से आगे जाकर  नारी के चयन-अधिकार को बड़ी मुस्तैदी से हमारे सामने लाती है. किसी की सतवंती के निर्णय को लेकर असहमति हो सकती है और वह होनी भी चाहिए मगर प्रकटतः वासनापरक दिखती इस कहानी में सतवंती के चरित्र के माध्यम से कहानीकार ऐसे कई असहज मुद्दों को हमारे सामने लाता है जिन्हें लेकर हम रुढ़, दकियानूस और प्रतिक्रियाशील तो हैं मगर उनके समाधान को लेकर वास्तव में रंचमात्र भी कोई चिंता या परवाह नहीं करते.

                           

उत्तर राग कहानीकार की एक सधी और परिपक्व कहानियों में से एक है.अमूमन उदयभानु की प्रेम कहानियों में नायक-नायिका का मिलन नहीं होता है और मिल न पाए की कोई  कसक ही उन्हें यादगार कहानी बनाती है.उचित ही कहा जाता है कि अधूरी प्रेमकथा हमारे जेहन मे कहीं टँगी रह जाती है.मानो दो लोगों के प्रेम तो कब के नष्ट हो गए मगर प्रेम के जो क्षण उन दोनों के द्वारा कभी जिए गए थे, पाठक के मनोजगत में स्मृति के किसी धागे से टँगे रह जाते हैं.जो प्रेम-कहानियाँ अपने पाठ के साथ इस टीस को जितनी सघनता से रचती चलती हैं वे उतनी ही सफल मानी जाती हैं. इस मायने में उदयभानु की प्रेम कहानियाँ सफल कही जाएंगी क्योंकि वे अपने रचाव और प्रभाव दोनों में ही एक टीस के साथ समाप्त होती हैं. और समाप्त होकर वे कही-न-कहीं हमारी स्मृति में टँगी रह जाती हैं. प्रेम-कहानियों में बीते हुए क्षणों के पुनर्सृजन का बड़ा महत्व होता है.इन्हीं क्षणों को कहीं किसी कोण से छूकर प्रेम की तीव्रता और अलगाव की पीड़ा दोनों को एक साथ गहरा किया जाता है.


पाठकों की सुविधा के लिए यह बताता चलूँ कि प्रस्तुत संग्रह की अधोलिखित कहानियाँ प्रेम कहानियाँ हैं:


1.         गुरुदक्षिणा

2.         श्याम,मोसे न खेलो होरी रे

3.         उत्तरराग की मृत्यु

4.         उत्तरराग

5.         और जहाज डूब गया


अगर उत्तरराग को छोड़ दें तो उपरोक्त किसी भी कहानी में मिलन नहीं है या उनकी प्रेम-कथा सुखांत नहीं है.और अगर उत्तरराग में मिलन है भी तो पहले प्रेम के साथ नहीं बल्कि दूसरे प्रेम के साथ. तभी तो इसे उत्तरराग कहा गया. मगर इस उत्तरराग से पहले एक असफल गृहस्थी और उसकी टूटन से उत्पन्न अकेलापन और अवसाद है.जिससे प्रेम किया जा रहा है वह पुत्री की सहेली और उसकी समवयस्क है.तिस पर तुर्रा यह कि इस प्रेम को संरक्षण भी पुरानी और पहली प्रेमिका मंदाकिनी के घर में मिल रहा है. कहानी की वाचिका भी मंदाकिनीही है. इससे कहानी में एक खास तरह का सौंदर्य और प्रवाह आ गया है जहाँ मंदाकिनी अन्यथा करुणा और आत्म-पीड़ा की पृष्ठभूमि में रचित इस कहानी में कभी अपनी उदात्त्ता से तो कभी अपने परिहास से बीच बीच में शीतल जल की फुहारें लाती है. यह उत्तरराग क्या है “….पूर्वराग तो आता और चला जाता है,पर उत्तरराग बड़ा भयंकर होता है. साँप का डसा भले ही बच जाए पर उत्तरराग का डसा पानी भी नहीं माँगता.इस भली बंगालिन ने किस तरह मेरे प्रिय अंबरिश को नया जीवन दिया है.उसके उत्तरराग को स्वीकार कर! (उत्तर राग पृष्ठ संख्या 115)  


नायक के खंडित विवाह ....और इन सबकी जानकारी उसकी पूर्ववर्ती प्रेमिका मंदाकिनी को होने और फिर अंततः एक शिष्या द्वारा स्वयं नायक का वरण..... यहाँ अंबरीश का एक सुदीर्घ दुःख भरा जीवन है जिसमें लंबी भावनात्मक शून्यता के बाद एक बार फिर उसके दिल पर प्रेम  का मेह बरसता है. मगर जीवन की एक परंपरागत व्यवस्था जिसे हम विवाह या घर बसाना कहते है, उसके के प्रति एक विश्वास भी इस कहानी में देखा जा सकता है. हालाँकि इस तरह घर बसाने का मूल्य, अंबरिश को एक  बहुत बड़ी कीमत देकर चुकाना पड़ा है(पहली और असफल रही शादी के संबंध में ). यह कहानी अंबरिश की पहली प्रेमिका मंदाकिनी की जुबानी ही कही गई है जहाँ वह उसकी नई पत्नी दोलनचापा के साथ मिलकर काफी खुश है और अंबरिश के भविष्य को को लेकर  आश्वस्त भी . अंबरिश के इस तरह टूटने में मंदाकिनी खुद को भी कहीं-न-कहीं जिम्मेवार मानती आई है.


कहने की ज़रूरत नहीं कि उत्तर-राग एक कलाकार के टूटे हुए प्रेम,उसकी असफल शादी और तदुपरांत अपनी पुत्री की समवयस्क सहेली और अपनी शिष्या के साथ उसके पुनर्विवाह की कहानी है.मगर यह एक पचास को छूते  पुरुष(‘अंबरीश भार्गव’) और बीस पार(बाईस साल की) स्त्री (दोलनचापा) की कोई सनसनीखेज कहानी नहीं है और न इसे हठात किसी रोमांच-मात्र के कारण यहाँ प्रस्तुत किया गया है.बल्कि संग्रह की इस अपेक्षाकृत लंबी कहानी का कथा-विन्यास इतना सुगठित और क्रमशः उठान लेता हुआ है कि अंबरिश और दोलनचापा के इस मिलन को पाठक बड़े स्वाभाविक तरीके से ले पाता है. मगर अंत की यह स्वाभाविकता जिसे पाठक शुरू में ही जान जाता है, कहानी की रोचकता को कहीं से कमतर नहीं करती. वह इसलिए भी कि कहानी शुरू ही अपने अंत से होती है अर्थात यह कहानी फ्लैश-बैक में लिखी गई है.अपने कथा-चरित्रों पर भरपूर मेहनत करनेवाले उदयभानु के यहाँ उनके उपन्यासों से लेकर उनकी कहानियों तक स्त्री-पुरुष चरित्रों के कई रंग देखने को मिलते हैं.

अच्छे-बुरे
,ग्रे-शेड हर तरह के. प्रस्तुत कहानी भी यद्यपि नायक अंबरिश के इर्द-गिर्द घूमती है मगर उसकी पहली पत्नी रत्ना से पूर्व की उसकी प्रेमिकामंदाकिनी और रत्ना से तलाक के बाद दोलन....इन सभी स्त्री-चरित्रों की स्केचिंग न सिर्फ बहुत मेहनत और तन्मयता के साथ की गई है बल्कि उनका चरित्र-चित्रण कुछ ऐसा है कि वे कहानी को बढ़ाने में सहायक हैं. दोलन के बारे में अंबरिश की पत्नी कहानी की शुरूआत में ही कह देती है....यह डायन ....साथ ही यहाँ घटित घटनाओं को कहानीकार ने इस तरह रखा है और पात्रों के मनोभावों को इस तरह विश्लेषित किया है कि कहानी के कई अस्वाभाविक दिखते मोड़ भी अपने-आप जस्टीफाई होते चलते हैं. शेक्सपीयर के नाटकों की यह खूबी है कि वहाँ  ओपनिंग ही कहानी के सूत्र में होता है. वही बात उदयभानु की कहानियों में देखने को मिलती है.


उत्तर राग की मृत्यु के कोई तेरह साल बाद उत्तर राग कहानी लिखी गई. हालाँकि दोनों कहानियाँ प्रेम की थीम पर है मगर परवर्ती कहानी (उत्तर राग) न सिर्फ जीवन के प्रति एक विधेयक दृष्टिकोण के साथ समाप्त होती है बल्कि वह पूर्ववर्ती कहानी (उत्तर राग की मृत्यु) की तुलना में शिल्प और कथ्य के स्तर पर अधिक गझिन और बहुस्तरीय भी  है. उत्तर राग की मृत्यु एक दुःखांत प्रेम-कथा है जो नायक की सिनिकल हताशा पर समाप्त होती है .जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है वहीं उत्तर-राग में प्रेम की पुनर्स्थापना की गई है. यहाँ जीवन को लेखक एक विधेयक रूप में देखता है. प्रेम पर कहानीकार एक पोजीटिव निर्णय लेता है. अंबरीश भार्गव को उसके पहले प्रेम में असफल तो नहीं कहेंगे मगर भौतिकता के आगे न झुकने की जिद में उसकी शादी मंदाकिनी से नहीं हो पाती है.उसकी शादी  जिस स्त्री से होती है कमोबेश उसे लेखक ने पृष्ठभूमि में ही लिखा है और उसका चित्रण एक झगड़ालू और गैर-रोमांटिक स्त्री के रूप में ही किया गया है. पहली प्रेमिका ‘मंदाकिनी इस कहानी की वाचिका है और यही इसी कहानी का सौंदर्य है. इससे नायक के अंदर की विशेषता और उसका सौंदर्य-बोध दोनों पाठकों के सामने अकलुषित रूप में आ पाते हैं. 

पत्नी के रूप में मिली स्त्री तेज-तर्रार
, जोड़-गाँठ में माहिर, छिद्रांवेषी, स्वभाव से शंकालु और आक्रामक है. मतलब यह कि जिन भौतिकवादी  मानकों को मंदाकिनी के पिता के आगे अंबरीश अस्वीकार कर  चुका था, उसे क्या मालूम था कि पत्नी के रूप में उसे ऐसी ही स्त्री मिलनेवाली है. जहाँ तक अंबरीश के प्रति दोलनचापा के प्रेम संबंध की बात है, वहाँ नायक की तात्कालिक पीड़ादायक स्थिति से उबारने को लेकर एक सहज मातृवत्सल भाव है. वह अपनी माँ से अनुमति लेकर जब इस दिशा में आगे  बढ़ती है तो उसे समाज की कोरी और बेमानी चिंता नहीं रहती. उसके लिए अंबरीश के प्रति उसका प्यार करुणा-जन्य है और इसीलिए वह जस्टीफाईड है क्योंकि ऐसा करके वह अंबरीश को मौत के मुँह से बाहर निकाल पाती है. इस धरातल पर आकर एक कमसीन लड़की का ऐसा आत्मोत्सर्ग अंबरीश के लिए जीवनदायी ठहरता है. अपने अंदर की इस अहैतुकी करुणा के कारण दोलनचापा मंदाकिनी से भी इक्कीस ठहरती है जिसे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में मंदाकिनी भी स्वीकार करती है. अगर दोलनचापा को लेकर मंदाकिनी के मन में कोई ईर्ष्या-भाव नहीं है तो उसके पीछे दोलन की यही उदात्ता काम कर रही है. कामायनी में जो श्रद्धा के लिए कहा गया सब कुछ दें और कुछ न लें यह उत्सर्ग झलकता है’, यहाँ भी  प्रेम-श्रद्धा-विश्वास मिश्रित भाव का आवास है दोलनचापा के चित्त में. 

प्रेम का प्रस्फुटन जिस परिस्थिति में हुआ वह करुणा-जन्य है. यह प्रेम के बहाने और उसके साथ
, जीवन के प्रति विश्वास और श्रद्धा की कहानी है. नई प्रेमिका अपने ही नायक की पुरानी प्रेयसी को आंटी कहती है.चूँकि यह करुणाजन्य प्रेम है, इसलिए दोनों के बीच की आयु के अपेक्षाकृत ज्यादा दिखते अंतर को लेखक अंततः नलीफाई कर देता है. जितना मातृत्व दोलन में है, मातृत्व का उतना और वैसा अंश स्वयं मंदाकिनी में भी नहीं है. बेशक वह जीवन भर अपने पुराने प्रेमी का ख्याल एक मित्रता-भाव से रखती आई है. यह उसका मित्रता-भाव ही है कि वह तात्कालिक रूप से शरण देने के लिए दोनों को को दार्जीलिंग बुला लेती है है. निःसंदेह मंदाकिनी अंबरीश की दोस्त और संरक्षिका दोनों रूप में खरी सिद्ध होती है.मंदाकिनी के कथावाचिका होने के कारण इस कहानी  की टेकनीक और थीम एक हो गई है जिससे इस कहानी का सौंदर्य न केवल द्विगुणित हुआ है बल्कि पात्रों और घटनाक्रम के विकास में एक प्रामाणिकता भी आई है. 

रोलां बार्थ
 जिसे प्लेजर ऑफ टेक्स्ट कहता है वह इस कहानी पर सहज ही लागू है. दोलन में एक तरह का संकोच भाव है जो उसके नारी-व्यक्तित्व को बेदाग और कमनीय बनाता है और जिस पर अंबरीश की पुरानी प्रेमिका भी रिझ जाती है. अक्सर स्त्रियों में ईर्ष्या होती है, मगर यहाँ वह ईर्ष्या, एक-दूसरे के प्रति स्नेह और आदर में बदल जाती है. मंदाकिनी का अपराध बोध उसके भीतर गहरा समाए हुए है कि अंबरीश प्रेम के मोह से उस निकालने या कहें छुटकारा देने के लिए उससे पहले ही शादी कर लेता है जो निरंतर असफल होती चली जाती है. मंदाकिनी उस वक्त भी जान रही थी कि प्रकटतः तो अंबरीश, अपना घर बसा रहा है, मगर सच्चाई यह थी कि वह उसे (अपनी प्रेमिका को) खुश करने एवं किसी दुविधा से मुक्त करने के लिए अपने जीवन की बलि दे रहा था. इस पृष्ठभूमि में, अंबरीश का चरित्र उद्दात्त ठहरता है. बेटी मधु के पैदा  होने पर जहाँ उसे सब कुछ ठीक होने की गुंजाईश थी मगर यह घटना भी दो दिनों  की चाँदनी ठहरती है. 

एक कलाकार अपनी क्षुधा से तड़पते हुए और उसका सामना करते हुए अपने अंदर की तमाम बेचैनियों से लड़ता है. जिसे हम कलाकार की
 न्यूड पेंटिंग मानते हैं और उसकी निंदा या प्रशंसा कर रहे होते हैं मूलतः वह कलाकार उस वक़्क्त अपने को जला रहा होता है. वह अपने अंदर की क्षुधा का उद्दात्तीकरण कर रहा होता है और इस तरह कला की शरण में जाकर उसका प्रशमन कर रहा होता है. कहने की ज़रूरत नहीं कि अंबरीश, उदयभानु की कहानियों के अन्य पुरुष-पात्रों की ही तरह मर्यादित और धैर्यवान है. अगर देखा जाए तो दोनों तरफ से प्रेम की यह स्वीकरोक्ति अंबरीश के जीवन को बचाने के लिए है और इसीलिए यह प्रेम अपनी अपेक्षित ऊँचाई को प्राप्त होता है.


अपने कथ्य और अपनी भाषा के साथ तल्ख स्वर उठाती श्मशान में श्वपच कहानी, संग्रह की महत्वपूर्ण और प्रभावी कहानियों में से एक है. हिंदी भाषी तिवाड़ी जैसे ब्राहमण को यहाँ परोक्ष रूप से स्वपच कहा गया है जो कुत्ते का मांस खाता है और मनवचन और कर्म से वणिक-मात्र है. वह अपने फायदे के लिए भोले-भाले आदिवासियों को कभी अंग्रेजी शराब परोसकर तो कभी उन्हें धन का प्रलोभन देकर न सिर्फ उन्हें उनके मूल्यों से भटकाता है बल्कि उन्हें विपथगामी बनाकर उनका अपने हिसाब से इस्तेमाल भी करता है. स्पष्टतः लेखक ने यहाँ स्थिति की भयावहता का निरपेक्ष चित्रण किया है जहाँ किसी का महिमामंडन है और न ही किसी की अनावश्यक निंदा की गई है. असम के अन्य आदिवासी-समुदायों की तुलना में कार्बी समुदाय अपेक्षाकृत अधिक संस्कृतनिष्ठ है मगर उसकी नई पीढ़ी में आई भौतिकपरस्ती और उसकी गुमराही को पाठकों के सामने रखने में लेखक नें कोई संकोच नहीं किया है. तिवाड़ी जैसे लोगों के प्रभाव में आकर कई आदिवासी श्मशान जैसी जगह पर भी अमर्यादित और अपनी परंपरा से विलगित व्यवहार करते हैं. 

नशे के आधुनिक रूप ने परंपरागत आदिवासी समाज को विरूपित और प्रदूषित ही अधिक किया है. हालाँकि मद्यपान आदिवासी समाज के लिए नया नहीं है मगर
 होम-मेड शराब में जिस तरह की सामूहिकता और सामुदायिकता देखने को मिलती थी, उनका अंग्रेजी शराब के सेवन में अब सरासर अभाव दिखता है जब श्मशान में अंग्रेजी शराब थोक के भाव मे परोस दी जाती है. नशा पहले जहाँ एक मस्ती और उत्सव का रूप होता था अब वह आधुनिक बोतलों के आकार में अपना काम निकालने की अवसरवादिता में बदल रहा था. भौतिकवाद की चपेट मे आता आदिवासी समुदाय का एक बड़ा हिस्सा किस तरह उच्छृंखल और विद्रूप होता जा रहा है और अपनी अनुशासित परंपरा को तोड़ता चला जा रहा है, ‘श्मशान में स्वपच कहानी इस पर तीखी टिप्पणी करती है. समाज में बढ़ते चले जाते आत्मकेंद्रण को भी यहाँ बखूबी उठाया गया है.   

इस क्रम में, संग्रह की मितरावर्णो कहानी का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें अपेक्षाकृत कम योग्य एक  कर्बी प्राध्यापक को कॉलेज का प्रिंसिपल बना दिया जाता है, जिसकी निंदा उस समाज के कई कार्बी बुद्धिजीवी भी करते हैं.  मित्र और वरुण दो देवता हैं. वे एक साथ सोमरस पीते हैं और नर्तकियों का नृत्य देखते हैं. इसी को एक प्रतीक के रूप में लेकर कहानीकार मित्रावरुणौ कहानी की रचना करता है जिसमें आधुनिक युग के दो मित्रों की निकटता और  अलगाव की कहानी कही गई है. इसमें सहज ही शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती राजनीति की दखल और उससे बदलते या कहें गिरते शैक्षणिक स्तर की वर्तमान  स्थिति को यहाँ चित्रित किया गया है. जहाँ दो लोग कभी स्वभावतः मित्र थे यह राजनीति उन्हें भाषाई और सामुदायिक आधार पर विभाजित कर देती है. स्पष्टतः स्वार्थ-जन्य राजनीति से कुछ लोगों की जेबें भरी जा सकती हैं मगर किसी समाज को सही दिशा में ले जाने की उसकी न कोई वैचारिकी होती है और न मंशा ही. मितरावर्णो ऐसे दो मित्रों के अलगाव की जितनी कहानी है उतनी ही राजनीति से जनकल्याणकारी निष्ठा और समर्पण के अलग होने की भी. सुदूर आदिवासी अंचल में एक कॉलेज की पृष्ठभूमि में लिखी यह कहानी इस देश की बृहत्तर शैक्षणिक व्यवस्था पर एक टिप्पणी है जिसमें सुनियोजित तरीके से प्रियंवद जैसे सुयोग्य प्राध्यापक निरंतर हाशिए पर किए चले जा रहे हैं और उनके पक्ष में खड़े लोगों की आस्था भी डगमगा रही है और उनका इस व्यवस्था से मोहभंग हो रहा है. स्पष्तः इससे शिक्षा के क्षेत्र मे निरंतर गुणवत्ता का हरास ही हुआ है.प्रियंवद का कॉलेज की नौकरी छोड़कर पत्रकारिता के पेशे मे आना उसके इसी मोहभंग को दिखलाता है.


स्थितप्रज्ञ एक पिता द्वारा अपने इकलौते बेटे की हत्या कर देने और फिर उसकी याद में एक समाजसेवी संगठन के चलाने की कहानी है. यहाँ एक आदिवासी पिता के मनोविज्ञान को ठीक-ठीक पकड़ने की कोशिश की गई है, जहाँ वह अपने मूल्यों की खातिर विपथगामी हुए अपने बेटे की हत्या करता है. श्मशान में श्वपच और मित्रावरुणो कहानियों के बरक्स इस कहानी को रखकर देखें तो यहाँ आदिवासी मूल्यों की श्रेष्ठता ही स्थापित हुई है. संग्रह की कुछेक कहानियाँ उत्तर प्रदेश की पृष्ठभूमि पर भी हैं. ना घर मेरा ना घर तेरा दो पीढ़ियों के बीच के मतांतर को तो हमारे सामने लाती ही है साथ ही गरीब और अमीर दोनों ही तरह के बुजुर्गों के एक जैसे अनुभव और अपनी परवर्ती पीढ़ी से मिले मोहभंग को अपने तईं उठाती है.

संग्रह की अंतिम कहानी और जहाज डूब गया(2006) अपने छोटे कलेवर के बावजूद भी अगर पाठकों को लंबे समय तक याद रह जाती है तो सिर्फ इसलिए नहीं कि यह कहानी एक दुःखांत प्रेम-कहानी है बल्कि यह अपनी बुनावट में कुछ इस कदर सघन है कि यहाँ बेमेल विवाह और प्रेम की मजबूरी दोनों सामने आ जाती है और अंततः व्यक्ति अपने आपको अकेला पाता है. अपने प्रेमी की जिस पत्नी के कारण, वह अपने प्रेमी के जीवन से दूर चली जाती है, अंततः उन दोनों का तलाक हो ही जाता है. वह नायक के बच्चे की खातिर अपने प्रेम की बली देती है. यह संयोग से कुछ अधिक है कि उदयभानु के यहाँ बेमेल विवाहों की करुण-गाथा कुछ अधिक ही है और उसे अक्सरहाँ प्रेम के बरक्स रखकर देखा गया है. साथ ही, स्वकीया बनाम परकीया बनाम स्वकीया नायिकाओं का संघर्ष भी उनके कथाजगत में देखने को मिलता है. मगर परकीया नायिकाएं अभिसारिका मात्र की भूमिका में नहीं हैं बल्कि उनका प्रेम उद्दात्त है और वे अपने इस संबंध में त्याग की किसी भी सीमा तक जाती हैं. 

कह सकते हैं कि प्रस्तुत संग्रह में आदिवासी समाज की मुख्य-धारा और उसके लोगों से संबंधों के उतार-चढ़ाव को उसकी पूरी द्वंत्वात्मकता में पकड़ने की कोशिश है. यहाँ संस्कृति और भाषा की भिन्नता
; राजनीतिक वर्चस्व और सामाजिक मान्यता; नक्सलवाद और भटकाव जैसे कई मुद्दों को गल्प के साँचे में ढालकर अभिव्यक्त किया गया है. कहने की ज़रूरत नहीं कि वर्तमान समय आदिवासियों के लिए किसी संक्रमण काल जैसा है जहाँ उनकी पुरातनता वर्तमान की आधुनिकता से मुठभेड़ कर रही है. वे जितना बाहर की सांस्कृति से लड़ रहे हैं उतना ही अपने अंदर के बदलाव से.  हिंदी में कार्बी जीवन पर केंद्रित कई कहानियों के इस संग्रह में पूर्वोत्तर के आदिवासी जीवन का संकुल हमें सहज ही देखने को मिलता है.  इन कहानियों का इसीलिए अपना एक समाजशास्त्रीय महत्व ठहरता है. विगत कुछेक दशकों के बीच वहाँ बही परिवर्तन की बयार को लेखक ने जितनी सूक्ष्मता से देखा है उतनी ही सघनता से उसे अपनी कहानियों में प्रस्तुत भी किया है. 
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(प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ/18इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड/नई दिल्ली 110003 /पृष्ठ 136 /मूल्य:- 130 रुपए)
अर्पण कुमार 
बी-1/6,/एस.बी.बी.जे. अधिकारी आवास/ जयपुर
पिन : 302005/ मो. 9413396755    

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  1. आपने उदयभानु जी की खबर ली .बहुत अच्छा किया .उनका काम बहुत महत्व का है. उनकी भाषा और कथ्य अलग है.बलरामपुर के मूल निवासी होने के बाद उन्होने आसाम में रहना तय किया .मैं तो उनका मुरीद हूं

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  2. बेहतर समीक्षा..अर्पण कुमार जी को बधाई।जनजातिय समाज पर लिखी गई रचनाएँ वैसे भी हासिये पर ही रही हैं ऐसे में " हर्ता कुँवर का वसीयतनामा" उदयभानु पांडेय के कहानी संग्रह की इतनी विस्तृत और उम्दा समीक्षा एक अच्छी पहल है।

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 17-12-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2193 में दिया जाएगा
    आभार

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