फोटो साभार : अशोक पांडे |
कवि वीरेन डंगवाल ने ‘स्याही ताल’ कविता संग्रह देते हुए लिखा-
‘चलो, कूद पड़ें अरुण देव ! शुभकामनाओं के साथ यह गुस्ताखी.’ बरेली जैसे शहर में भी कवियों के पीने – पिलाने
की कोई निरापद जगह नहीं है. या कहिये ऐसी कोई संस्कृति बन नहीं पायी है. अपनी कार
में वह मुझे घुमाते रहे और उसमें ही अपन ‘गोष्ठी’ करते रहे. वह औपचारिकता के प्रति
सतत गुस्ताख रहे. उनके अंदर के कवि का यह स्वभाव था. उनकी कविताओं में भी यह
प्रत्यक्ष है.
कवि पंकज चतुर्वेदी ने उनके स्मरण में एक सिलसिला शुरू किया
है, जिसमें यादें है, सीख और सघन आत्मीयता भी. शब्दों की तरलता में यह एक लम्बी
कविता जैसा प्रभाव देता है. इसकी शुरूआती २५ कड़ियाँ समालोचन पर खास आपके लिए. और
यह ताकीद भी वीरने दा के ही शब्दों में
“ज़रा सम्भल कर
धीरज से पढ़
बार-बार पढ़
ठहर- ठहर कर
आँख मूंद कर आँख खोल कर.”
अगर वह नहीं है
तो क्या है !
पंकज चतुर्वेदी
ll एक ll
जब तुम्हें
साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला, तो तुमने निराला की इस काव्य-पंक्ति को
अपने
स्वीकृति-वक्तव्य का शीर्षक बनाया---''मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश.''
एकबारगी यह तय
हो जाने पर कि तुम्हें कानपुर छोड़कर जाना ही है, मुझे बहुत धक्का लगा.
तुम्हें वहाँ
रहने के लिए पार्वती बागला मार्ग पर---जिसका नाम अब वी आई पी रोड भी है---
अख़बार के मालिक
का एक ज़रा शानदार फ़्लैट मिला हुआ था, जिसे दफ़्तर के लोग कोठी
कहते थे. मैं
वहीँ तुम्हारे सामने फूट-फूटकर रोया.
मैं उस शहर में
अकेला था. तुम्हारे जाने के बाद यह अकेलापन बढ़ना ही था.
पता नहीं तुम यह
जानते थे या नहीं, मगर तुमने मुझसे यही कहा : ''क्यों दुखी होते हो ?
जीवन में
एक-से-एक अच्छे लोग मिलेंगे.''
ऐसे लोग तो नहीं
मिले, पर एक दिन सुबह-सुबह मुझे यह ख़बर मिली कि तुम इस
दुनिया से चले
गये.
इस बार दुख इतना
बड़ा था कि मैं रोया नहीं. एक बेचैनी मुझे मथती रही. अंततः
मैंने फ़ैसला
किया कि मैं तुम्हारी स्मृतियों को लिखूँगा.
तुमसे जो रौशनी
मुझे मिली है, उसे आँसुओं में बह जाने नहीं दूँगा.
ll दो ll
तुमने पहली बार
अपने एक मित्र से परिचय कराते हुए कहा---'ये बहुत ख़राब लिखते हैं.'
मैं चकित रह गया
था तुम्हारी साफ़गोई पर.
मगर उससे ज़्यादा
अचरज मुझे हुआ यह सुननेवाले तुम्हारे मित्र की प्रसन्नता पर.
इससे मैंने जाना
कि सत्य अगर निश्छलता से कहा जाय, तो अप्रिय नहीं होता.
ll तीन ll
तुम्हारी बातों
में एक सभ्यता-समीक्षा होती थी.
असंभव
आत्म-निर्ममता.
एक बार लाल रंग
की टी-शर्ट पहनकर तुमने मुझसे पूछा : 'कैसी लग रही है ?'
मैंने---जो मुझे
लग रहा था---कहा : 'अच्छी. बहुत अच्छी.'
मगर फिर
तुम्हारा प्रश्न, जो जितना तुम्हारी तरफ़ मुड़ा था, उतनी ही पैनी निगाह से
मुख्यधारा को भी
देखता था : ''लफंगा तो नहीं लग रहा हूँ न !''
ll चार ll
कुछ वर्ष तुम
सम्पादक थे एक बड़े अख़बार के कानपुर संस्करण के, जिसके दफ़्तर में
पहली मंज़िल पर
तुम्हारा चैम्बर था. कभी-कभी मैं वहाँ तुम्हारे साथ जाता.
तुम गाड़ी से
उतरते ही एकदम गंभीर हो जाते. तेज़ चाल से चलते हुए सबके सलाम का
जवाब देने का बहुत
गरिमामय, शालीन ढंग था तुम्हारा.
मगर सीढ़ियों के
एकांत में पहुँचकर तुम सहसा रुक जाते, मुझसे कहते---'पाखण्ड तो
करना पड़ता है न
!'
मैंने बहुत क़रीब
से जाना था साधारणता से तुम्हारे प्यार को और यह कि समता
सच है, बाक़ी सब ढोंग.
ll पाँच ll
तुम एक साथ
प्यार करना और एक विवेकनिष्ठ दूरी बरतना जानते थे.
इस क्षमता के
मामले में तुम अद्वितीय थे.
एक बार एक
नवयुवक---जो कविता लिखता था---तुमसे मिलना चाहता था,
मगर वह तुमसे
परिचित नहीं था. मैंने यह भेंट कराने में उसकी मदद की.
बाद में मैंने
तुमसे पूछा---'वह मिला था ?'
तुमने कहा---'हाँ. अच्छा, विचार-शून्य
लड़का है.'
ll छह ll
तुम प्रगाढ़
मैत्रियों के क़ायल थे और उनमें कोई बंधन नहीं मानते थे.
एक बार रात के
दो बजे तुमने अपने एक कवि-मित्र से बात करनी चाही. मैंने बरजा :
'अभी फ़ोन मत
कीजिये ! वह सो रहे होंगे.'
तुमने कहा :'सो रहा हो तो
जगे. मित्र क्यों बना है ?'
ll सात ll
तुमसे बहुत कुछ
अर्जित किया जा सकता था, मगर तुममें गुरुडम नहीं था.
तुम अपने बेलौस
अंदाज़ से उसकी धज्जियाँ उड़ाते थे.
मैं जब कभी
रेलवे स्टेशन या कहीं और तुम्हें विदा करने जाता और तुम्हारा बैग पकड़ने
की कोशिश करता, तुम कहते : ''घटिया काम मत
किया करो !''
ll आठ ll
तुम्हें शरारतें
करना बहुत पसंद था, मगर तुम्हारी नक़ल नहीं हो सकती, क्योंकि वे सिर्फ़
भंगिमाएँ नहीं
थीं. उनसे लगा-लिपटा एक दिल था, जो तुम्हारे ही पास था.
मसलन खा-पीकर
श्लथ हो जाने को तुम ध्वस्त होना कहते थे और उसे सुख की चरम
अवस्था मानते थे.
उसी दौरान मेरी एक मित्र से---जो तुम्हारी कविताओं की प्रशंसक थीं
और तुमसे बात
करना चाहती थीं---मेरे इसरार पर तुमने रात में कुछ बात की और कहा---
'यह ध्वस्त हो
गया है, पर अभी जग रहा है. जब सो जायेगा, तब मैं आपको फ़ोन करूँगा.'
वह फ़ोन तुमने
उन्हें कभी नहीं किया.
ll नौ ll
मैथिलीशरण गुप्त
ने 'साकेत' में लिखा है---''-------रहूँ निकट भी दूर, व्यथा रहे पर
साथ-साथ ही
समाधान भरपूर.''
तुमने भी इस तरह
तो नहीं, पर ख़ास अपने ढंग से इस उसूल पर अमल किया और
बड़ी ख़ूबसूरती से.
कभी-कभी मैं भी
ऐसी स्थितियों का गवाह रहा.
तुम्हारे एक
अग्रज मित्र जब हेल्मेट पहनकर अपना स्कूटर स्टार्ट करने को होते,
तुम उन्हें
पुकारकर कहते---''आओ दोस्त, मैं तुम्हारा हेल्मेट चूम लूँ !''
ll दस ll
तुम्हें लेखक
संगठन से जुड़े होने का बहुत गर्व था. इसे तुम अपना बुनियादी कर्तव्य
मानते थे. मगर
उस तक महदूद रहना तुम्हारी फ़ितरत नहीं थी.
एक बार किसी
साहित्यिक ने मुझसे तुम्हारी बाबत कहा कि तुम अपने लेखक संगठन
के सबसे बड़े कवि
हो. मैंने---जाँचने के लिए कि देखें, तुम्हें यह तारीफ़ कैसी लगती है---
यह बात तुमसे
कही.
तुम पर्याप्त
नाराज़ हुए. तुमने कहा कि मैं संगठन में हूँ, संगठन का कवि नहीं हूँ.
मैंने समझा कि
कोई किसी दायरे में बड़ा कवि मान लिया जाय, तो फिर क्या बड़ा कवि !
ll ग्यारह ll
तुमसे सामान्य, रोज़मर्रा की
बातें करते हुए भी कला के कुछ सत्य जाने जा सकते थे.
जैसे कि तुम
मुझे प्रिय थे, मुझसे बड़े भी थे. मैं अपना सम्मान जताने के लिए तुम्हें 'सर'
कहता था. यह
सम्बोधन मुझे रास आता था, क्योंकि यह सरल, संक्षिप्त, सुविधाजनक था.
मगर तुम इससे
सहमत नहीं थे. सो तुमने एतिराज़ किया. पर तुम्हारे इर्दगिर्द इतनी आज़ादी
और खुलापन रहता
था कि कोई तुमसे कुछ भी कह सकता था. मैंने बहस के लिहाज़ से कहा---
'इस पर क्या बात
करनी है ? 'कंटेंट' पर बात कीजिये !'
तुम्हारा जवाब
मैं कभी भूल नहीं सकता---'' 'सर' अपने-आप में 'कंटेंट' है !''
यानी रूप और
अंतर्वस्तु ऐसे गुँथे हुए हैं कि इन्हें अलगाया नहीं जा सकता. रूप ही
अंतर्वस्तु है
और अंतर्वस्तु रूप.
आज लगभग दो दशक
बाद सोचता हूँ, तो लगता है कि तुमने कितनी बड़ी बात कही थी !
क्या यह सच नहीं
है कि तुम्हारी पीढ़ी के अभ्युदय के अनन्तर---पिछले पच्चीस बरसों में---
पूँजीवाद की
विश्व-विजय के चलते जैसे-जैसे बराबरी का सवाल पिछड़ता गया है, यह शब्द
'सर' अप्रत्याशित ढंग
से लोकप्रिय हुआ है ?
ll बारह ll
मध्यवर्गीय
सुख-सुविधा को लेकर तुम्हारे भीतर एक कशमकश रहती थी,
जो तुम्हें
नैतिक बनाती थी.
एक दिन मैं
तुमसे मिलने पहुँचा, तो मुझे देखते ही तुमने ग़ालिब का वह शे'र
सुनाया, जिसका मतलब
है---'आंतरिक दुखों की खींचतान से अगर फ़ुर्सत मिले,
तो हम मजनूँ का
कारनामा तुमको भी दिखायें !'
इसका सन्दर्भ
मैं बाद में समझ सका.
तुमको अख़बार से
शायद नीले रंग की एक साधारण मारुति वैन मिली हुई थी,
जिससे तुम्हें
कानपुर और बरेली के बीच बहुत आवागमन करना पड़ता था. दफ़्तर
कानपुर में था, घर बरेली में.
इसके अलावा बरेली कॉलेज में तुम्हारी नौकरी भी थी,
जिससे तुम अवकाश
पर थे. मुझे यह बिखराव अजीब लगता. सो मैंने तुमसे कहा---
'आप कहीं एक जगह
आराम से रहिये, यह दुविधा ख़त्म कीजिये !'
तुमने बड़ी सुन्दर
बात कही---''दुविधा का समाप्त हो जाना भी कोई अच्छी स्थिति नहीं है.''
आज मध्यवर्ग का
जीवन जिस क़दर एकतरफ़ा, सपाट, निर्द्वंद्व और आक्रामक हो गया है,
तुम्हारा यह कथन
मेरे लिए रौशनी की लकीर की तरह है.
अपनी कार तुम
कानपुर छूट जाने के कई बरस बाद ले पाये. जब मैंने तुम्हारा हाल जानने के
लिए फ़ोन किया, तुमने यह ख़बर दी, पर इससे जुड़ा एक
मार्मिक प्रश्न भी था---''कार ख़रीद
ली. बुरा तो
नहीं किया न ?''
ll तेरह ll
तुम करुणा को एक
अनिवार्य मूल्य मानते थे. गोया, अगर वह नहीं है तो क्या है !
जब रघुवीर सहाय
का निधन हुआ, तो उसी दौरान कुछ लोग एक कवि से मिलने उसके
घर गये. उनमें
एक आलोचक भी थे. उन्होंने यह प्रसंग मुझे कवि का उपहास करते हुए
सुनाया कि वह
अचानक यह कहकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे कि रघुवीर सहाय नहीं रहे.
मैंने यह बात
तुम्हें बतायी. तुमने कुछ अमर्ष से भरकर कहा---'इसका मज़ाक़ क्यों
उड़ाना चाहिए ? यह तो अच्छी बात
है कि वह रोया.'
ll चौदह ll
तुम छोटेपन का
एहसास नहीं होने देते थे और सृजन की दुनिया में ऊँच-नीच नहीं, वैविध्य के
हामी थे.
ऐसे कई अवसर आये, जब मुझसे कहा
गया कि मैं तुम्हारे साथ कविता-पाठ करूँ. मगर मुझे
लगता कि तुम बड़े
कवि हो. एक दिन एक आयोजन में जाते समय मैंने तुमसे कहा : 'मुझे
संकोच होता है.
आपके मुक़ाबले मैं क्या कविता लिखता हूँ !'
तुम मेरी झिझक
को ख़ारिज करते. कहते : ''कोई जवाबी कीर्तन नहीं हो रहा है.''
पूँजी ग़ुलाम
बनाती और स्पर्धा सिखाती है, जबकि तुम्हारा प्यार स्वाधीन करता था.
प्रतिक्रिया
नहीं, आत्मवत्ता उसकी मंज़िल थी.
ll पन्द्रह ll
तुम सिर्फ़ प्यार
नहीं करते थे, बल्कि अपने उद्दाम वेग से औरों को भी प्यार करने के लिए
मजबूर कर देते
थे. किसी-किसी को मैंने तुम्हारी मौजूदगी की आभा में---उसके अकारण
रूखेपन के लिए---लज्जित
होते भी देखा.
एक दिन तुम एक
बड़े लेखक के यहाँ दावत पर आमंत्रित थे, मगर मैं नहीं था. तुमने कहा
कि चलना है. मैं
राज़ी नहीं था. पर तुम्हारे दबाव में मुझे साथ जाना पड़ा.
वहाँ पहुँचकर
तुम सहसा अपने मेज़बान से मुख़ातब हुए : 'ये तैयार नहीं था, पर मैं इसे
ज़बरदस्ती ले आया.
मैंने इससे कहा कि तुम थोड़ा कम खा लेना !'
तुम्हारे मेज़बान
अवाक् थे. वे वैसे भी शरीफ़ और सहृदय थे.
इस तरह तुमने
मेरे लिए कम की बात कहकर ज़्यादा की व्यवस्था की थी.
ll सोलह ll
तुम्हें
भाषणबाज़ी से अरुचि थी. यह नहीं कि वक्तृत्व-कला के प्रति तुम्हारे मन में
सराहना का भाव
नहीं था, पर तुम्हें लगता था कि वह तुम्हारा इलाक़ा नहीं है.
फिर भी लोग
चाहते कि तुम भाषण दो, जिससे तुम्हारी शख़्सियत का एक और नायाब
पहलू उजागर हो.
मगर तुम कोई बहाना बनाकर बच जाते. बतायी गयी वजह भी बड़ी
मासूम होती, जैसे कि 'दाँत में दर्द
है.'
मुझे तुम्हारा
वह मौन गरिमामय तो लगता ही, अविचारित वाचालता के बरअक्स एक क़िस्म
का प्रतिरोध भी
मालूम होता.
यानी, मैं
सोचता---हिंदी में अक्सर जिस तरह के भाषण दिये जाते हैं, उनसे तो यह दाँत
का
दर्द ही अच्छा !
ll सत्रह ll
तुम किताबों पर
निर्भर कवि नहीं थे. जीवन, अथाह जीवन ही तुम्हारी कविता का उत्स था.
अलबत्ता परम्परा, संस्कृति और
मिथकों की अनुगूँज तुम्हारी कविता में बराबर सुन पड़ती है.
मसलन कबीर कहते
हैं---'पंडित, तुम वेद-पुराण ऐसे पढ़ते हो, जैसे गधा चंदन ढोता है, पर वह
उसकी सुगंध को
नहीं जानता' ; तुमने भी कहा :''गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी क़ुव्वत
सारी
प्रतिभा----------लेकिन किंचित् भी जीवन का मर्म नहीं जाना.''
अध्ययनशीलता का
तुम बहुत आदर करते थे, मगर उसकी कमी को कोई अवगुण नहीं मानते
थे. एक बड़े
अध्येता कवि का ज़िक्र आने पर तुमने मुझसे कहा था : 'फ़र्क़ सिर्फ़ यह है कि
उन्होंने
पन्द्रह किताबें पढ़ी होंगी, तो पाँच-सात हमने भी पढ़ी हैं.'
अच्छी-से-अच्छी
किताब तुमने मुझे यह कहकर भेंट कर दी : ''तुम इसे ले जाओ ! मैं इसका
क्या करूँगा यार
?''
आज तुम्हारी दी
हुई ऐसी किसी किताब पर हाथ चला जाता है, तो उसकी अहमीयत के
बावजूद तुम्हारे
शब्द याद आते हैं : ''पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव !''
ll अठारह ll
सुदीर्घ जीवन
में तुम्हारी आस्था नहीं थी.
अब मैं तुमसे
कभी पूछ तो नहीं पाऊँगा कि शेक्सपियर का यह लिखा----कि 'ज़िन्दगी
एक मूर्ख द्वारा
कही गयी कथा है'----तुम्हारे दृष्टि-पथ से गुज़रा था या नहीं, मगर
तुम्हारा अपना
निष्कर्ष भी इससे बहुत अलहदा नहीं था.
राष्ट्रीय नाट्य
विद्यालय में वर्षों पहले जब तुम्हारी कविताओं की रंगमंचीय प्रस्तुति
हुई, तो उस कार्यक्रम
के बाद बाहर चाय की दुकान पर एक युवा कवि ने---जो तुम्हारा
बहुत अंतरंग
था---तुमसे एक बेहद सीधा, अटपटा-सा सवाल कर दिया---'वीरेन दा,
आप कितने दिन
जियोगे ?'
तब तुम्हारी
तबीयत में कोई ख़राबी नहीं थी. लेकिन तुमने अन्यमनस्क लहजे में
कहा : 'मैं बहुत मूर्खता
बघारना नहीं चाहता.'
उस युवा कवि ने
हँसते हुए कहा था---'अच्छा !', मानो तुमने यों ही वह बात कह दी थी.
कौन जानता था कि
तुम एक उदास सच बयान कर रहे थे !
ll उन्नीस ll
तुम सांसारिक
दिखते हुए भी भीतर से कहीं विरक्त थे.
''एक कवि और कर ही
क्या सकता है / सही बने रहने की कोशिश के सिवा.''---यह तुमने
कविता में ही
नहीं लिखा, यह कोशिश तुम्हारी ज़िन्दगी में हर पल थी.
जिसे लोग सुन्दर
अदा समझ लेते थे, वह दरअसल यही कोशिश थी.
जब एक नवयुवक
ने---तुम्हारे हाल-चाल पूछने पर---अपने मकान-निर्माण की योजना
और प्रगति का
तुम्हें ब्योरा दिया, तो तुम परेशान हो गये और बहुत दिन तक इस बात
से ख़फ़ा रहे
थे---''वह मुझे मकान के बारे में क्यों बता रहा था ?''
इसी तरह
होली-दीपावली या नये साल के मौक़े पर शुभकामनाएँ लेने-देने में तुम्हें
उलझन होती थी.
एक बार मेरे 'विश' करने पर तुमने कहा था---''पहले हम लोग
यह सब नहीं करते
थे.''
यानी, मैं समझ रहा था
कि धीरे-धीरे समाज इस सतही, निरर्थक, निष्प्रयोजन
अनुष्ठानप्रियता
की चपेट में आता गया है.
रस्म निभाना
तुम्हें आता नहीं था.
मसलन तुम्हारे
पौत्र का जन्म हुआ और मैंने इस उम्मीद से---कि तुम हर्ष और
रोमांच से भरा
कोई बयान दोगे---तुमसे पूछा---''कैसा लग रहा है ?''
तुमने जवाब
दिया---''कुछ ख़ास नहीं.''
ll बीस ll
तुममें कविता के
प्रकाशन की उत्कंठा नहीं रहती थी और अपने इस संकोच पर
तुम किंचित्
गर्व करते थे.
तुम्हें शमशेर
का कुछ साथ मिला था और तुम उनके इस कथन----कि ''कविता
लिखी जाते ही
प्रकाशित है''----पर वास्तव में यक़ीन करनेवाले बहुत थोड़े-से कवियों में थे.
तुम्हारा पहला
कविता-संग्रह चौवालीस बरस की उम्र में आया और वह भी---अगर तुम्हारे
कवि-मित्र नीलाभ
ने अन्य स्रोतों के अलावा, बरेली जाकर तुम्हारे घर से तुम्हारी नोटबुक
और एक दीमक-खायी
लाल रंग की बही बरामद करके सारी कविताएँ एक जगह जुटायी
न होतीं----शायद
छप नहीं सकता था.
दूसरा संग्रह
इसके ग्यारह साल बाद आया.
मगर तीसरे के
बारे में तुम निश्चित नहीं थे. एकाधिक बार तुमने मुझसे कहा था : ''तीसरा
तो मेरे इंतिक़ाल
के बाद ही आयेगा.''
फिर भी दोस्तों
के स्नेहिल दबाव में वह अपेक्षया जल्दी, यानी सात वर्षों के अंतराल पर
प्रकाशित हुआ. 'कटरी की
रुकुमिनी' तुम्हारी प्रिय कविता थी और यही तुम उस संग्रह का
नाम भी रखना चाहते
थे, पर बाद में 'स्याही ताल' शीर्षक से सहमत हो गये थे.
तीसरा तो नहीं, मगर अब चौथा
संग्रह----जैसी कि तुम्हारी ख़्वाहिश थी----तुम्हारे जाने के
बाद आयेगा.
पहले ही संग्रह
पर तुम्हें पहला 'रघुवीर सहाय सम्मान' मिला था.
रघुवीर सहाय का
पाँचवाँ कविता-संग्रह उनके देहांत के अनन्तर आया था और तुम्हारा
चौथा आयेगा.
इतिहास ऐसे ही
लिखा जाना था.
ll इक्कीस ll
तुम दोस्तों में
आत्म-छवि देखते थे.
यह तय करना बहुत
मुश्किल है कि अपनी ज़िन्दगी में सबसे ज़्यादा अहमीयत तुमने
किसे दी, मगर करना ही हो, तो बिला शक कहना
पड़ेगा कि दोस्तों को.
तुमने अपना
दूसरा कविता-संग्रह दोस्तों को समर्पित किया, शमशेर की यह अमर
पंक्ति याद करते
हुए---''दोस्त, जिनसे ज़िन्दगी में मानी पैदा होते हैं.''
तुम्हें अपने
दोस्तों की निंदा सुनना कभी अच्छा नहीं लगता था. यह नहीं कि तुमने
ग़लत ढंग से उसका
खंडन किया हो, पर तुम नौकरी की विवशता को समझते थे.
हमेशा प्रतिवाद
में तुम एक ही बात कहते : ''नौकरी कर रहा है यार !''
नौकरी की कसौटी
पर मूल्य-निर्णय सुनाये जाने को तुम अनुचित मानते थे.
फिर भी कोई पीछे
पड़ ही जाता, तो तुम आह भरकर कहते : "क्या पता मैं वहाँ
उस हैसियत में
होता, तो मैं भी वैसा हो जाता !''
ll बाईस ll
तुम्हें प्रशंसा
भूल जाती थी, पर प्यार याद रहता था..…''यह कौन नहीं चाहेगा
उसको मिले प्यार
!''
जब मैं पहली बार
तुमसे मिला और याद दिलाया कि एक समारोह में एक आलोचक के
वक्तव्य में
तुम्हारी कविता की सराहना के प्रमुख बिन्दु क्या थे, तुमने कहा : ''मुझे कुछ
भी याद नहीं है.''
इसी तरह यह
स्मरण कराने पर----कि एक कवि ने अपना कविता-संग्रह तुम्हें समर्पित
किया
था----तुमने आश्चर्य व्यक्त किया : ''अच्छा ! उसने ऐसा किया है क्या ?''
प्रशंसा से तुम
परेशान हो जाते थे. उस वक़्त तुम्हारे चेहरे पर भाव रहता था कि यह क्षण
जल्दी बीत जाय.
तुम कहते थे, प्रशंसा कवि को
दिये जानेवाले उत्कोच के समान है. उत्कोच, यानी रिश्वत.
हालाँकि तुम
स्वीकार करते थे कि उसकी चाहत लाज़िम है----आख़िर तुम्हारी कविता में
समोसे
समेटनेवाले कारीगर में भी 'दाद पाने की इच्छा से एक कलाकार इतराहट पैदा
होती है'----पर तुम्हारा
इसरार था कि कलाकार को सराहना मिलने और इंसान को प्यार
न मिलने पर
सतर्क हो जाना चाहिए : ''सावधान हो जायें वे सब / जिन्होंने नहीं पाया
कुछ भी कई दिनों
से / उनका समय ख़राब चल रहा है.''
ll तेईस ll
तुमने महज़ देह
की मुक्ति को सम्यक् स्त्री-विमर्श नहीं माना. इसके निशान तुम्हारी
कविता में नहीं
मिलते.
तुम
सुखी-संभ्रान्त-सुविधासम्पन्न स्त्री से सम्मोहित नहीं थे. तभी तुमने लिखा :
''हवा तो ख़ैर भरी
ही है कुलीन केशों की गंध से / इस उत्तम वसन्त में / मगर कहाँ
जागता है एक भी
शुभ विचार !''
जब भी मैं अपनी
प्रिय स्थापना तुम्हारे समक्ष रखता----कि 'स्त्री मूर्तिमान् संस्कृति है'
----तुम परिहास करते
: ''विवाह के लिए लालायित हो भइये !''
रोमानियत के
बरअक्स तुम्हारा नज़रिया बहुत यथार्थनिष्ठ था. यों उत्पीड़ित, संघर्षरत
और
आत्माभिमानिनी स्त्री का तुम्हें ख़याल रहा.
बर्तन
माँजनेवाली स्त्रियों का 'एक उदास फुर्ती से' अपने मालिकों के
घरों की ओर जाने का
मार्मिक बिम्ब
तुम्हारी ही कविता में मिलता है. यहीं बरसते पानी में 'पोलीथिन से
कटोरी
ढाँपकर घर लौटती
रज्जो' है और उसकी यह प्रमुख चिन्ता : ''अम्मा के आने से पहले चूल्हा
तो धौंका ले /
रखे छौंक तरकारी.''
मैंने यह ज़िक्र
इसलिए किया कि 'कटरी की रुकुमिनी' तुम्हारी गढ़ी हुई चर्चित पात्रा है ; कहीं
ऐसा न हो कि
उसकी चौंध में लोगों की नज़र रज्जो तक न जाय.
वैसे मुझे लगता
है कि जब तक स्त्री-विमर्श रज्जो और रुकुमिनी जैसे चरित्रों से मुख़ातब नहीं
होगा, वह पूरे समाज का
विमर्श नहीं बन पायेगा.
ll चौबीस ll
तुम अभिव्यक्ति
में निहायत पारदर्शी थे..………''काम हृदय में यह कैसा कोहराम मचाये है.''
यह बहुत बार तो
नहीं, मगर कभी-कभी हुआ कि मैं दिन के पहले प्रहर में तुमसे मिलने गया.
ऐसी किन्हीं दो
मुलाक़ातों में तुमने मुझसे कहा : ''आज मैं एक अश्लील सपना देख रहा था.''
मैं कुछ समझ
नहीं पाया कि क्या कहूँ. तभी तुम फिर बोले : ''मैं घटिया हो गया हूँ, यार !''
मैंने असहमति
में तुम्हें देखा, पर तुम्हारी आत्म-भर्त्सना जारी थी :''हाँ यार, मैं अश्लील हो
गया हूँ !''
यह नहीं कि तुम
महात्मा गाँधी की तरह निष्काम होने की साधना कर रहे थे, क्योंकि वैसा
करने को तुम
अवैज्ञानिक, इसलिए ग़ैर-ज़रूरी मानते थे.
प्रेम से विरत
होकर तुम अपने साथ अन्याय ही करते. काम को लेकर तुम्हारे मन में संशय
था, पर उसे प्रेम से
अलगाया कैसे जाय, यह तुम्हें मालूम नहीं था. तभी तुम यह भी लिख
गये : ''प्रेम हृदय में
यह कैसा कोहराम मचाये है.''
मुश्किल यह थी
कि उस दुनिया में जाना तुम्हें जीवन के औदात्य से मुँह मोड़ लेना लगता था
और उसके बग़ैर भी
शायद तुम जी नहीं सकते थे.
तुम क्या करते ? एक सच्चे मनुष्य
की तरह तुमने अपने द्वंद्व को स्वीकार किया और
निष्पाप होने का
दावा नहीं किया, जो तुम 'संदेह का लाभ' पाने की आशा में आसानी से
कर सकते थे : ''हे ईश्वर, पापों से लिथड़ा
हुआ था जीवन / हालाँकि तू गवाह है, पर्याप्त
कर नहीं पाया
मैं / ज़्यादातर थे मेरी पकड़ से बाहर.''
ll पच्चीस ll
तुम्हें अपनी
कविता पर नाज़ था और तुम जानते थे कि वह आलोचना की मुहताज नहीं.
''अगर कीर्ति का
फल चखना है / आलोचक को ख़ुश रखना है'' वाली बात तुममें नहीं थी.
एक समारोह में
एक कवि ने आलोचकों के ख़िलाफ़ कविता सुनायी, तो तुमने उस पर आपत्ति
की : ''हमें आलोचकों पर
ध्यान ही क्यों देना चाहिए? क्यों उनसे कोई अपेक्षा करनी चाहिए ?''
बहुत घनिष्ठ
दोस्तों को दिया हो तो दिया हो, मगर मैंने तुम्हें अपना कविता-संग्रह मुफ़्त में
लुटाते, ख़ास तौर पर
आलोचकों को भेंट करते नहीं देखा.
अगरचे आलोचना
तुम्हारे नज़दीक रचना के समकक्ष एक विधा थी और अगर अच्छी हो, तो
रचना जितनी ही
आस्वाद्य और जीवनदायी. जब तुम्हारी कविता पर एक आलोचक के लेख
की मैंने शिकायत
की कि वह आधा-अधूरा-सा है, तुमने कहा : ''हाँ, मेरा पेट तो नहीं भरा.''
जब एक बड़े आलोचक
को कोई डॉन कहता, तुम नाख़ुश हो जाते : ''लोग डॉन क्यों कहते हैं?
वह
पढ़ने-लिखनेवाला आदमी है यार !''
लेकिन एक
प्रसिद्ध आलोचक ने जब तुमसे कहा कि 'अपना कविता-संग्रह दो भाई वीरेन ! मैं
उस पर लिखना
चाहता हूँ.' तुमने संग्रह उन्हें नहीं दिया और अड़चन मुझे बतायी : ''अगर
वह लिखना चाहते
हैं, तो उसकी व्यवस्था करें. मैं यह क्यों करूँ ?''
______________
पंकज चतुर्वेदी
जन्म: 24 अगस्त, 1971, इटावा (उत्तर-प्रदेश)
जे. एन. यू से उच्च शिक्षा
कविता के लिए वर्ष 1994 के भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, आलोचना के लिए 2003 के देवीशंकर अवस्थी सम्मान एवं उ.प्र. हिन्दी संस्थान के रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार से सम्मानित.
एक संपूर्णता के लिए (1998), एक ही चेहरा (2006), रक्तचाप और अन्य कविताएँ (2015) (कविता संग्रह)
आत्मकथा की संस्कृति (2003), रघुवीर सहाय (2014,साहित्य अकादेमी,नयी दिल्ली के लिए विनिबंध), जीने का उदात्त आशय(2015) (आलोचना) आदि प्रकाशित
सम्पर्क : सी-95, डॉ हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय,सागर (म.प्र.)-470003
मोबाइल: 09425614005/ cidrpankaj@gmail.com
पंकज जी का ये संस्मरण संग्रहणीय है ... बार बार पढ़ने योग्य ।
जवाब देंहटाएंवाकई बेहतरीन..
जवाब देंहटाएंएक आत्मीय संसार का खुलना कितनी दस्तकों से प्यार है।
जवाब देंहटाएंवाह बेहतरीन इतनी प्यारी और साफगोई से भरी पंक्तियाँ एक मित्र की अपने मित्र के लिए पहली बार पढी...वीरेन जी को इन पंक्तियों में महसूस किया जा सकता है।बधाई पंकज जी...
जवाब देंहटाएंकाश..
जवाब देंहटाएंवे पाँच पीरियड भी
पूरे-पूरे पढ़ा पाते हमें...
उफ़्फ़!
और आज
ये उनकी कुर्सी...
पंकज भाई बहुत बढ़िया.....
जवाब देंहटाएंपंकज जी ने यह संस्मरण जैसा कुछ डंगवाल की स्मृतियों में डूब कर लिखा है और खूब लिखा है। ऐसे कवि से मैं नहीं मिल सका ( यद्यपि एक सज्जन बरेली में मुझे उन के घर तक ले गये ) इस का अफ़सोस रहेगा । वे घर पर नहीं थे । फ़ोन से बात हुई तो बोले " मैं आप से मिलने आज शाम को विश्वविद्यालय के अतिथिगृह आऊँगा " । मैं प्रतीक्षा करता रहा , पर डंगवाल नहीं आए । क्या वे वादा नहीं निभाते थे ?
जवाब देंहटाएंबहुत ही आत्मीय और अपने आनोखे अंदाज़ में याद किया है एक खुद्दार और सचमुच के कवि को एक सचमुच के कवि ने
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.