हिंदी सिनेमा में अभिनेता भारत भूषण
की अदाकारी की बारीकियों पर यह आलेख सहेज लेने लायक है खासकर ऐसे में जब हम गुजरे
जमाने में दिलीप कुमार तक ठिठक कर रुक गए हैं. भारत भूषण के जीवन संघर्ष और उनके रचनात्मक
अवदान को पारखी दृष्टि से देखते हुए विष्णु
खरे ने अपने ख़ास अंदाज़ में इसे यहाँ उद्घाटित किया है.
भारतीय मानव-मूल्यों के आभूषण
विष्णु खरे
विष्णु खरे
यह ठीक है कि शुरूआत में आख़िरकार
एक अभिनेता अपने किरदारों को लिखनेवाले और उसे निदेशित करनेवाले की निर्मिति ही
होता है लेकिन यकबारगी जब उसकी काबिलियतें पहचान ली जाती हैं तो वह अदाकार भी बिना कहे लेखकों से अपने लिए खुद को लिखवाने
और अपने डायरेक्टरों के ज़रिये ख़ुद को डायरेक्ट करने लगता है. तब हम कह सकते हैं वह एक स्वायत्त
व्यक्तित्व बन जाता है और उसे फिल्म के कई तत्वों का सीधा श्रेय दिया जा सकता है –
यहाँ तक कि गीत-संगीत सहित उसे लगभग पूर्णतः नियंत्रित करने का भी –लेकिन हम यहाँ
इस बहस में न पड़ें कि यह सिनेमा की सेहत के लिए मुफ़ीद होता है या नहीं. हम यही कहेंगे कि फिर
एक अभिनेता का फ़र्ज़ हो जाता है कि वह अपने लाखों दर्शकों को सिनेमा-हॉल से उठने के
बाद बेहतर और अधिक सुसंस्कृत इंसान छोड़े. और यह एक स्वाभाविक, मानवीय अभिनय-कला और फिल्म के माध्यम
से हो जिनमें जबरन और नक़ली-सतही सबक़ और उपदेश न दिए गए हों.
दिलीप कुमार, अशोक कुमार, मोतीलाल, बलराज साहनी, संजीव कुमार, अमिताभ बच्चन, नज़ीर हुसैन, गुरुदत्त, रहमान– शायद राज कपूर - उन
मुट्ठी-भर अदाकारों में हैं जिन्हें ऐसा दैवीय वरदान मिला. इन सब ने स्थायी-अस्थायी तौर पर करोड़ों दक्षिण-एशियाई दर्शकों को ‘’मनुष्यतर’’
बनाया. फ़िल्में इन्हीं को ज़ेहन में रख कर बनाई गईं. इनका किसी फिल्म में होना किन्हीं इंसानी क़दरों की गारंटी होता था. (बदक़िस्मती से यहाँ इतनी ही महान अभिनेत्रियों की ऐसी ही उपलब्धियों की बात
करने का मौक़ा नहीं है. उन्होंने कितनी करोड़ किन महिला
दर्शकों को क्या-क्या सहारे दिए हैं इसके आकलन की तो अभी शुरूआत ही नहीं हुई है. और अब तो 1920-30 के बीच की वह हमारे घरों की मेरी उम्र के हिसाब से माँ-चाचियाँ-बुआएँ
भी कम बची हैं जो हमें अपनी-अपनी पहली कहानियाँ बयान कर सकतीं.)
भारत भूषण (14 जुलाई 1920– 27
जनवरी 1992) मेरठ के एक संभ्रांत और सुसंस्कृत परिवार से थे, घर में कलाओं और साहित्य को लेकर वातावरण था और सिनेमा में उनकी रुचि उन्हें शायद अपने बड़े भाई साहब से मिली जिनका
स्टूडियो लखनऊ में था. भारत भूषण तालीम के लिए अलीगढ़ भी
गए यानी वह शुरूआत से ही यू.पी.की हिंदी-उर्दू,हिन्दू-मुस्लिम गंगा-जमनी तहज़ीब में
भीगे हुए थे. दो साल छोटे दिलीपकुमार की पहली फिल्म ‘ज्वार भाटा’ 1944 में आती है
जबकि भारत भूषण की पहली फ़िल्म 1941 की भगवतीचरण वर्मा – केदार शर्मा की ‘चित्रलेखा’
थी जो अपने-आप में उस युग का एक विवादास्पद सांस्कृतिक-कलात्मक वक्तव्य थी, भले ही उसमें भारत भूषण की कोई प्रमुख भूमिका न थी. उसके बाद उनकी दो फ़िल्में थीं ‘भक्त कबीर’ (जिसे मैंने बहुत बचपन में
देखा है) और ‘भाईचारा’ और यह कहने का मन होता है कि इन तीनों ने भारत भूषण
का प्रमुख अभिनय-मार्ग– दार्शनिक-‘प्राचीन’ युग, मध्यकालीन संत-सेकुलर संस्कृति, आधुनिक संयुक्त परिवार काल -
निश्चित कर दिया. लेकिन उन्हें बतौर नायक पहली अखिल-भारतीय
सफलता मिली अपने गुरु केदार शर्मा की ही सुपर-हिट ‘सुहाग रात’ (1948) से, जब दिलीप कुमार की ‘शहीद’, ’अंदाज़’ और
‘शबनम’ भी आसपास थीं.
यदि भारत भूषण की अभिनय-शैली का मुझे कोई नाम देना
पड़े तो मैं उसे ‘’सौम्य’’, ’’हलीम’’ या ‘’सलीम’’ कहना चाहूँगा. हिंदी और
उर्दू ज़ुबानों और उच्चारणों पर उनका स्वाभाविक लेकिन असाधारण स्पष्ट अधिकार था. उनसे अपनी किसी फिल्म में दोनों भाषाओँ की कोई ग़लती नहीं हुई. उनकी शक्ल-ओ-सूरत ‘’मैचो’’ नहीं थी लेकिन वह एक नैतिक ‘टफ़नेस’ भी निभा सकते
थे. उनकी आवाज़ में अद्वितीय कोमलता, तहज़ीब, करुणा, सांगीतिकता और मानवीयता थीं. वह खलनायक-नुमा कोई लम्बा रोल कर
नहीं सकते थे. इसके बावजूद उनके किरदारों का
वैविध्य देखकर आश्चर्य होता है.
‘राम दर्शन’, ’किसी की
याद’, ’जन्माष्टमी’,’भाई बहन’,’माँ’ (बिमल राय की एक बेहतरीन मार्मिक पारिवारिक किन्तु
विस्मृत फ़िल्म), ’आनंदमठ’ (‘वन्देमातरम’, ’जय जगदीश हरे’),’शुक रम्भा’,’दाना
पानी’, श्री चैतन्य महाप्रभु’ आदि शीर्षकों से ही भारत भूषण के अभिनय का कुछ
वैविध्य समझा जा सकेगा. लेकिन जिन फिल्मों को उनके कारण
भुलाया न जा सकेगा वह हैं ‘’बैजू बावरा’’,’’शबाब’’,’’मिर्ज़ा ग़ालिब’’, ’’बसंत बहार’’, ’’रानी रूपमती’’, ’’सोहनी महिवाल’’, ’’सम्राट
चन्द्रगुप्त’’, ’’फागुन’’, ’’महाकवि कालिदास’’, ’’बरसात की रात’’, ’’संगीत सम्राट तानसेन’’, ’’विद्यापति’’ और
‘’जहाँआरा’’. इनमें ‘’कवि’’ ,गेटवे ऑफ़ इंडिया’’, ’’लड़की’’ और ‘’घूँघट’’ भी जोड़ी जा सकती हैं.
(ग़ालिब की भूमिका में) |
देखा जा सकता है कि भारत भूषण को कवियों, शायरों, गायकों, सम्राटों, सुल्तानों, संतों, भक्तों, पौराणिक व्यक्तित्वों, आदर्श बेटों और बड़े भाइयों की
भूमिकाएँ बहुत मिलीं. इनमें सुखांतिकाएँ-दुखान्तिकाएँ
दोनों थीं. ’’बैजूबावरा’’ को अमर बनाने में जितना योगदान नौशाद के संगीत का है, रफ़ी की हैरतअंगेज़ गुलूकारी का, उतना
ही ‘’ओ दुनिया के रखवाले’’ को पुकारते हुए भारत भूषण का भी है. मेरे लिए यह कल्पना कर पाना कठिन है कि ‘’शबाब’’ जैसी महान संगीत-फिल्म
में उन दिनों भारत भूषण के अलावा सामंत युगीन गायक-प्रेमी की भूमिका कौन
निभा सकता था – दिलीप कुमार उसके लिए बहुत ‘’सॉफिस्टिकेटेड’’
हो चुके थे. वही माजरा ‘’बसंत बहार’’ के साथ है. हैरत इस बात की है कि सोहराब मोदी ने ‘’मिर्ज़ा ग़ालिब’’ के लिए
किसी मुस्लिम एक्टर को न चुन कर भारत भूषण को लिया जिन्होंने गुलाम मोहम्मद
के संगीत के साथ ग़ालिब को ऐसा अमर कर डाला कि उनका नाम लेते ही सबसे पहले भारत
भूषण की उर्दू-ए-मुअल्ला शायराना शक्ल ही नज़र आती है. यही हाल ‘’बरसात की रात’’ का है – ‘’ज़िन्दगी भर नहीं भूलेगी’’ –
क्या ? साहिर की शायरी, रोशन की मूसीकी, रफ़ी की आवाज़ या भारत भूषण की अदाकारी ?
यह सारी फ़िल्में इसीलिए बन पाईं कि
हमारे पास भारत भूषण जैसा अदाकार था. उनमें कहानी, संगीत और अदाकारी अंतर्गुम्फित होते थे. सबके संतुलन का ध्यान रखा जाता था. संवाद, गीत और संगीत उनकी जान होते
थे. यह नहीं कि भारत भूषण की सभी फ़िल्में हिट हुईं लेकिन यदि आप दिलीप-राज-देव को
तत्कालीन सुपर-स्टार मानें तो भारत भूषण उनसे कुछ ही दूर थे, बल्कि सच तो यह है कि दिलीप कुमार के अलावा उन जैसे किरदार कोई और निभा ही
नहीं सकता था. 1941 की ‘’चित्रलेखा’’ से लेकर 1968 की ‘’कृष्ण भक्त सुदामा’’
तक भारत भूषण ने नायक या सहनायक के रूप में करीब 50 फिल्मों में काम किया और यश
तथा धन दोनों पर्याप्त अर्जित किए. लेकिन उन्होंने फ़िल्में बनाने का
घातक निर्णय लिया और अपनी पूँजी और ज़मीन-जायदाद खो बैठे. पारिवारिक मोर्चे पर भी उन्हें बहुत सदमे लगे और पचास की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते
उन्हें दोयम-तीयम दर्ज़े के किरदार मिलने लगे जो जीवन-यापन के लिए लाज़िमी हो गए.
भारत भूषण ने अपनी मुफ़लिसी, नाकामयाबी और गुमनामी के दिनों का मुक़ाबिला बहुत हिम्मत से किया. उन्हें अपने काम पर ही जिंदा रहना था और वह उन्होंने कर दिखाया. विडंबना यह है कि 1968 के बाद उन्होंने क़रीब 150 फिल्मों में एक्स्ट्रा की भूमिकाएँ कीं जिनमें संभ्रांत-से-संभ्रांत और हक़ीर-से-हक़ीर किरदार थे.
इतनी वेराइटी वाला इतना बड़ा पूर्व-नायक ‘एक्स्ट्रा’ हिंदी फिल्मों में कोई दूसरा न हुआ. शायद वह मुम्बइया फ़िल्मों और नियति को इस तरह शर्मिंदा कर रहे थे. उन पर किताब आनी चाहिए. मुझे याद नहीं आता कि गुलज़ार की ‘’माचिस’’ में वह क्या बने थे, जो उनकी आख़िरी फिल्म कही जाती है. लेकिन वह अपनी बड़ी फिल्मों में अमर हैं. आज भी इन्टरनैट के ज़रिये लाखों दर्शक उन्हें देखते-सराहते हैं. उन जैसे अंत-तक निस्संकोच संघर्षशील बड़े कलाकार को विस्मृत, असफल और दयनीय कैसे कहा जा सकता है.
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भारत भूषण ने अपनी मुफ़लिसी, नाकामयाबी और गुमनामी के दिनों का मुक़ाबिला बहुत हिम्मत से किया. उन्हें अपने काम पर ही जिंदा रहना था और वह उन्होंने कर दिखाया. विडंबना यह है कि 1968 के बाद उन्होंने क़रीब 150 फिल्मों में एक्स्ट्रा की भूमिकाएँ कीं जिनमें संभ्रांत-से-संभ्रांत और हक़ीर-से-हक़ीर किरदार थे.
इतनी वेराइटी वाला इतना बड़ा पूर्व-नायक ‘एक्स्ट्रा’ हिंदी फिल्मों में कोई दूसरा न हुआ. शायद वह मुम्बइया फ़िल्मों और नियति को इस तरह शर्मिंदा कर रहे थे. उन पर किताब आनी चाहिए. मुझे याद नहीं आता कि गुलज़ार की ‘’माचिस’’ में वह क्या बने थे, जो उनकी आख़िरी फिल्म कही जाती है. लेकिन वह अपनी बड़ी फिल्मों में अमर हैं. आज भी इन्टरनैट के ज़रिये लाखों दर्शक उन्हें देखते-सराहते हैं. उन जैसे अंत-तक निस्संकोच संघर्षशील बड़े कलाकार को विस्मृत, असफल और दयनीय कैसे कहा जा सकता है.
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(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के
प्रति आभार के साथ.अविकल )
विष्णु खरे
(9
फरवरी,
1940.छिंदवाड़ा,
मध्य प्रदेश)
vishnukhare@gmail.com / 9833256060
न वे बिल्कुल भी विस्मृत और असफल नहीं थे। बैजूबावरा आप कैसे भूलेंगे और वह गाना तू गंगा की मौज..! वे मेरी स्मृति में इतने और इससे कुछ ज्यादा ही हैं, लेकिन अमिट नहीं। देखिये मैं उन्हीं का एक गीत सुन रहा हूँ। पता है। सुबह-सुबह:)
जवाब देंहटाएंमिर्जा ग़ालिब, बैजू बावरा, सोहनी महिवाल, जहां आरा, गेटवे ऑफ़ इंडिया,आनंदमठ आदि आदि फ़िल्में मैंने भी देखे थे।।।। सच कहूँ तो उनका किरदार दर्शको के भीतर गहरे पैठता था, और वो गीत आज भी कानों में ऐसे ही बजते है जिनके साथ भारत भूषण आज भी जीवंत दीखते हैं , होजी हो जैसी तान कहाँ भुलाई जाती है, मन तङपत हरिदर्शन को आज -विष्णुखरे जी को धन्यवाद, उनकी पोस्ट बीते दिनों के अभिनेता की याद दिला गयी।।। समालोचन का शुक्रिया
जवाब देंहटाएंभारतभूषण जैसे विस्मृत किंतु किसी समय के अत्यंत लोकप्रिय अभिनेता पर लिखने के लिए भी वैसी करुणा और कोमलता चाहिए जो स्वयं उनके द्वारा अभिनीत किरदारों में हुआ करती थी और जिसकी झलक विष्णु जी इस लेख में अनायास दिखा गए हैं. भारतभूषण हिन्दी सिनेमा की एक सिहरा देने वाली शोकांतिका हैं. मेरी पीढी ने उन्हें बेहद मामूली, नाकुछ, थकी हुई भूमिकाओं में ही देखा लेकिन मेरी माँ की स्मृतियों में भारतभूषण एक सजल और सौम्य उपस्थिति हैं.
जवाब देंहटाएंविस्मृत कलाकार भारत भूषण पर विष्णु खरे जी का बहुत ज़रूरी आलेख। यह कलाकार तो जैसे खरे जी की किसी मार्मिक कविता का ही कोई नायक हो । उगते सूरज को तो सब सलाम करते हैं , अस्त हो चुके सूरज की आभा को कौन याद करता है ? सबसे मार्मिक पक्ष यह कि शोहरत की बुलन्दियों से ढलान की ओर जाते हुए उस कलाकार ने एक बेरहम दुनिया में अपने दुर्दिन कैसे बिताये होंगे ? अभाव,उपेक्षा अपमान और थकान के वे दिन । खरे जी ने बड़ी मार्मिक बात कही है कि '' भारत भूषण ने अपनी मुफलिसी , नाकामयाबी और गुमनामी के दिनों का मुकाबला बहुत हिम्मत से किया । '' उस स्थिति की कल्पना भी बेचैन कर देती है । भारत भूषण जी की एक छवि मेरे मन पर अंकित है । मेरी उम्र उस समय दस वर्ष की रही होगी । भारत भूषण जी को मैंने फिल्म निर्माण से जुड़े अपने एक सम्बन्धी द्वारा दिनेश फिल्मस के बैनर तहत बनायी जा रही फिल्म ' सम्राट चन्द्रगुप्त ' की शूटिंग में अंधेरी के प्रकाश स्टुडियो में देखा था । स्टूडियो में हम बहुत सारे बच्चों से वे किस अपनत्व से मिले थे । वे शायद बहुत सादा और सरल इंसान थे । भारत भूषण को इतनी आत्मीयता से अपने शब्द देने के लिये खरे जी को बहुत बहुत धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंकार्टर रोड का वह भव्य बंग्ला जो राजेश खना के 'आशीर्वाद' बंग्ले के रूप में मशहूर था , सत्तर के दशक में हमने उसके अनगिनत चक्कार लगाये होंगे।इसलिये नहीं कि वह राजेश खन्ना का बंग्ला था बल्कि इसलिये कि उस बंग्ले का एक मिथकीय इतिहास सिनेमा की तीन पीढियों से जुडा हुआ था । काका ने अपने उठते हुए दिनों में वह बंग्ला राजेन्द्र कुमार से खरीदा था । और राजेन्द्र कुमार ने अपने कामयाबी के दिनों में वह भारत भूषण से खरीदा था । उस बंग्ले ने इस तरह से जाने कितने सूर्योदय और सूर्यास्त देखे होंगे । पिछले दिनों जब वह बंग्ला जब सहसा एक दिन ज़मींदोज़ कर दिया गया तो जैसे कि जीवित इतिहास भी हमेशा के लिये दफ्न हो गया ।
जवाब देंहटाएंभारत भूषण बड़े अभिनेताओं की भींड में खो गये .उनका अभिनय मौलिक था .उनकी दो फिल्में बैजू -बावरा और चित्रलेखा देखी है .उनकी एक फिल्म तकदीर की याद है .वह मैंने कालेज के दिनो में क्लास छोड़्कर देखी थी .बाद में वे छोटे छोटे रोल करने लगे .हमे उन्हे नामालूम भूमिकाओ में देखकर दया आती थी ,हम जानते है कि मुम्बई की फिल्मी दुनियां कितनी क्रूर है .लेकिन इतिहास में वे दर्ज है .बिष्णु जी का शुक्रिया उन्होने इस महान अभिनेता को इतनी शिद्दत से याद किया .
जवाब देंहटाएंविष्णु खरेजी की फ़िल्मों पर जितनी रोचक,संतुलित और सूचनापूर्ण टिप्पणियां आती हैं,यदि वैसी ही संगीत, चित्रकला,मूर्त्तिकला से संबद्ध कलाकर्मियों पर भी आ सकतीं तो यह विधा और समृद्ध होती| विष्णुजी की ये टिप्पणियां पुस्तकाकार संग्रहणीय हैं |
जवाब देंहटाएंविष्णु जी, सुख़नफ़हम। सौम्य और सलीम, ताहम उदासी सी है, तिस पर विजय जी की टिप्पणी।
जवाब देंहटाएंमेरे पसंदीदा अभिनेता और उस पर मेरे भरोसे के लेखक विष्णु खरे का लेख. वाह.
जवाब देंहटाएं''भारत भूषण पर आपके आलेख के लिए धन्यवाद.उनकी मुख्य भूमिका वाली एक फिल्म 'अंगुलिमाल' भी थी जिसमें उन्होंने एक सौम्य विद्यार्थी अहिंसक और डाकू अंगुलिमाल की यादगार भूमिका निभाई थी.सुना है अपने अंतिम दिनों में उन्हें एक स्टूडियो में वॉचमैन की नौकरी करनी पड़ी थी.''
जवाब देंहटाएं(कमलेश पाण्डे प्रसिद्ध पटकथा-संवाद लेखक हैं)
लोकप्रिय लेकिन चमक दमक की दुनिया में अनदेखे अभिनेता भारत भूषण पर एक आत्मीय और जरूरी लेख। आभार एक दर्शक का।
जवाब देंहटाएंमानवीय गुणों की जिंदादिल मूर्ति को शब्दों के प्रकाशीय पुंज से अभिभूत कर नव्यता से सादर चित्रित किया है जो अति सहजता से परिचय बढाती है।
जवाब देंहटाएंअति आभार।
Adbhut Kalakaar Par Adbhut Lekh .
जवाब देंहटाएंआप सब को धन्यवाद देने में इसलिए विलंब हुआ कि मूल धन्यवाद रहस्यमय ढंग से अनंत में विलीन हो गया - मेरे साथ मेरे पुराने डैल लैटीट्यूड D 630 पर कभी-कभी ऐसा होता रहता है.बहरहाल,आपने जिस शिद्दत और स्नेह से भारत भूषण को याद किया है वह मार्मिक है.आप सभी साहित्य से वाबस्ता हैं यह और भी चकित और आश्वस्त करता है.मुझे डर था कि इसे बहुत पढ़ा नहीं जाएगा.लेकिन 'नवभारत टाइम्स' के पाठकों ने भी बहुत पसंद किया बताते हैं.मैं अपने कस्बे छिंदवाड़ा में हूँ जहां तीन आत्माओं के स्वर्गारोहण के अंत वाली भारत भूषण की विचित्र फिल्म 'मीनार' 1954-55 में आखिरी शो में देखी थी और एक अंधड़ के कारण रात बारह बजे बिजली चली गई थी.'कवि' भी तभी देखी थी - कवि के जीवन पर शायद ऐसी कोई और रोमैन्टिक फिल्म नहीं बनी - सोचिए उपन्यास ताराशंकर वंद्योपाध्याय का था.किस 'गे अबैन्डन' से नाची हैं गीता बाली.
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