सहजि सहजि गुन रमैं : ज्योति चावला











ज्योति चावला

५ अक्टूबर १९७९दिल्ली  
कविताएं और कहानियां विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित.
पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस से पुस्तक श्रेष्ठ हिन्दी कहानियां (१९९०-२०००) का सम्पादन. 
पहला कविता संग्रह प्रकाशन की ओर.
अनुवाद अध्ययन एवं प्रशिक्षण विद्यापीठ, अकादमिक कामप्लैक्स, जी ब्लाक,
इग्नू, मैदानगढ़ी, नई दिल्ली-६८
ई पता : jyoti_chl@rediffmail.com






ज्योति चावला की इधर पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताओं ने ध्यान खींचा है. वह अपने पहले कविता संग्रह के प्रकाशन की तैयारी में हैं. ये कविताएँ अपने विवरण और गद्यात्मकता में अपने समकालीन मितभाषी और बिम्बबहुल धर्मी  कविताओं से अलग हैं. ये किसी वाद की आंच पर उबल रही कविताएँ भी नहीं हैं. ज्योति अपने आस पास की मानवीय उपस्थिति को सहज ढंग से अपनी कविताओं में विन्यस्त करती हैं, और दृश्य से मर्म को छूता काव्यत्व व्याप्त हो जाता है. ‘इन दिनों’ मातृत्व पर लिखी अद्भुत कविता है.

इन दिनों मैं फूल को फूल कहती हूं
और नहीं ढूंढ पाती कोई कांटा उसमें
इन दिनों मैं कांटों को भी फूल कहना चाहती हूं
इन दिनों मैं मां हुई हूं

ज्योति चावला के पास  अनुभव जन्य संवेदनाएं हैं, स्त्री जीवन की विडम्बनाओं का अहसास है और उन्हें कहने की एक आत्मीय शैली भी.  हिंदी कविता में उनकी उपस्थिति कविता के समकाल का विस्तार  है और उसके भविष्य को लेकर एक आश्वस्ति भी.  


Jamini Roy






माँ का जवान चेहरा 

मेरे बचपन की ढेरों स्मृतियों में है
ढेर सारी बातें, पुराने दोस्त
नन्हीं शैतानियां, टीचर की डांट
और न जाने क्या-क्या
मेरी बचपन की स्मृतियों में है
मां की लोरी, प्यार भरी झिड़की
पिता का थैला, थैले से निकलता बहुत कुछ

मेरी बचपन की स्मृतियों में है
पिता का जाना, मां की तन्हाई
छोटी बहन का मासूम चेहरा

लेकिन न जाने क्यूं मेरी बचपन की
इन ढेरों स्मृतियों में नहीं दिखता
कभी मां का जवान चेहरा
उनकी माथे की बिंदिया
उनके भीतर की उदासी और सूनापन

मां मुझे दिखी है हमेशा वैसी ही
जैसी होती है मां
सफेद बाल और धुंधली आंखें
बच्चों की चिंता में डूबी
ज़रा सी देर हो जाने पर रास्ता निहारती

मैं कोशिश करती हूं कल्पना करने की
कि जब पिता के साथ होती होगी मां
तो कैसे चहकती होगी, कैसे रूठती होगी
जैसे रूठती हूं मैं आज अपने प्रेमी से
मां रूठती होगी तो मनाते होंगे पिता उन्हें
कैसे चहक कर जि़द करती होगी पिता से
किसी बेहद पसंदीदा चीज़ के लिए
जब होती होगी उदास तो
पिता के कंधों पर निढाल मां कैसी दिखती होगी

याद करती हूं तो बस याद आती है
हम उदास बच्चों को अपने आंचल में सहेजती मां


मां मेरी जि़ंदगी का अहम हिस्सा है या आदत
नहीं समझ पाती मैं
मैं चाहती हूं मां को अपनी आदत हो जाने से पहले
मां को मां होने से पहले देखना सिर्फ एक बार.



चूडि़यां


रोटी बनाते वक्त बेलन के हिलने के साथ
थिरकती थीं मां की चूडि़यां
चूडि़यांजो मुझे आकर्षित किए बिना न रह पातीं
मैं अक्सर रसोई में खड़ी
उत्सुक आंखों से पूछा करती
मां! मेरी चूडि़यां क्यों नही बजतीं
और मां मेरी उस सरल उत्सुकता पर
चिरपरिचित हंसी हंस देतीं

दिन बीतते गए.....
और चूडि़यों से जुड़ा मेरा आकर्षण भी
मां के चेहरे की मुस्कान के साथ
बढ़ता गया
एक दिन अचानक
चूडि़यों की खनक बंद हो गई
और उस दिन
मेरी आंखों में भी कोई प्रश्न नहीं था
क्योंकि
मैं जान गई थी कि
चूडि़यां क्यों बजती हैं



इन दिनों  


पिछले कुछ दिनों से दुनिया का हर बच्चा
मुझे आकर्षित करता है
यूं तो बच्चे आकर्षित करते रहे हैं
मुझे हमेशा से
उनकी मुस्कान, उनकी आंखें, उनकी मासूमियत
उनकी चंचलता, उनकी सुंदरता
लेकिन अब आकर्षित करने लगा है मुझे
उन बच्चों का अकेलापन, उनकी विद्रूपता
आकर्षित कर रहा है मुझे उनका
मिट्टी और धूल में लिथड़ा उपेक्षित चेहरा
उनकी उपेक्षा मुझे आकर्षित कर रही है

इन दिनों सड़क पर चलते-चलते
जब मेरे भीतर चल रहा होता है
ढेर सारी व्यस्तताओं का लेखा-जोखा
और ढेर सारी व्यस्तताओं से पल भर भी
न चुरा पाने की खीझ, तब
ये बच्चे किसी सड़क किनारे रोते-बिलखते
और पुचकारने पर सिहर जाते
मेरी सारी व्यस्तताओं में से खुद के लिए
समय निकाल ले जाते हैं

मैं ठहर जाती हूं पल भर वहीं
जैसे यहीं थी मैं पिछली कई सदियों से
कि नहीं पंहुचना मुझे कहीं
न आफिस, न घर
नहीं याद आता कोई छूटता काम मुझे

मैं सोच में पड़ जाती हूं
आखिर क्या अंतर है इन बच्चों में और
मेरी बेटी मे, जो फूल सी पल रही है
हमारे संरक्षण में कि
जिसका छींकना मुझे विचलित कर देता है
कि जो रोती है तो लगता है
ज्यों चाकू की पैनी धार रखी हो मेरी किसी उभरी नस पर

ये बच्चे भी उतने ही मासूम हैं
उतने ही प्यारे, हो सकते हैं ये भी
उतने ही चंचल
पर कुछ रोकता है इन्हें चहकने से

नहीं खिल पाते हैं जैसे
खिलता है कोई निर्द्वन्द्व फूल

मेरा मन उछलने लगता है
कि मैं छू लूं उन बच्चों को और
ये जी सकें कोमल स्पर्श का आनंद
कि उठा लूं इन्हें गोद में
और पोंछ दूं चेहरे और जीवन की सारी गर्द

यूं तो बच्चे करते रहे हैं मुझे आकर्षित
लेकिन इन बच्चों के प्रति मेरा आकर्षण
नया है बिल्कुल टटके फूल जैसा

इन दिनों मैं हुई हूं अधिक संवेदनशील
अधिक मनुष्य हुई हूं मैं इन दिनों
इन दिनों मैं फूल को फूल कहती हूं
और नहीं ढूंढ पाती कोई कांटा उसमें
इन दिनों मैं कांटों को भी फूल कहना चाहती हूं
इन दिनों मैं मां हुई हूं
मैंने रचा है एक जीवन और
हर जीवन से मुझे प्रेम हो गया है

मैं चाहती हूं कि मुस्कुरा सके
हर वह चीज़ जिसमें धड़कती है जान
हर चीज़ मुझे सुंदर दिखती है इन दिनों

कितना सुखद होना है मां होना
काश हर जीवन जन्म दे सके एक नए जीवन को
जिस दिन जीवन से मृत्यु नहीं
जीवन जन्मेगा
सृष्टि और कई रंगों से भर जाएगी.



राधिका के लिए


मुझे याद है राधिका
अपनी मौत के ठीक एक दिन पहले
तुम मिली थी मुझसे

काफी घबराई हुई थी तुम
और तुम्हारा लाल रंगत लिए
गोरा खूबसूरत चेहरा
उस दिन सफेद फक्क पड़ गया था

मैंने पूछा था तुमसे तुम्हारे डर का कारण
और तुमने हंस कर टाल दिया था
मैं जानती थी यह भी कि यह हंसी नहीं थी
मात्र आवरण था जिसके पीछे
छिपा रही थी तुम अपना डर और शायद
एक राज़ भी

आज सुबह जब अखबार में पढ़ी तुम्हारी मौत की खबर
धक्क रह गई मैं
मेरी आंखों के आगे घिर आया तुम्हारा गोरा
खूबसूरत चेहरा और उस पर से
उड़ जाता लाल-गुलाबी रंग

और अचानक खुलने लगा वह राज़ भी
जो तुम छिपा रही थी उस दिन
अपनी डरी हुई मुस्कान के पीछे

जब तुम पैदा हुई थी राधिका
तब तुम्हारी मां ने कोसा था खुद को
और तुम्हें भी
वह रोई थी ज़ार ज़ार जच्चगी में
और सयानी औरतों ने संभाला था उसे

पिता खुश थे सारी रूढि़यों से परे
और मां को दे रहे थे दिलासा
कि देखो कैसी चांद सी गुडि़या आई तुम्हारे आंगन
अब तुम्हारा आंगन हर दिन चांदनी से जगमगाएगा

तुम्हारी खूबसूरती और गोरे रंग पर रीझे थे कई नातेदार
और बलाएं लेती तुम्हारी दादी कोस रही थी
तुम्हारे इसी रूप को

शायद तुम्हारे इसी रूप से डर गई थी तुम्हारी मां भी
जो तुम्हें पाकर खुश न हो सकी

बढ़ने लगी तुम उस आंगन में बेल की तरह
झूल जाती थी पिता को देखते ही उनके कंधों से
मुस्कुराती तुम तो थकान भूल जाते थे पिता
तुम्हारी हंसी ने कितने गमों से उभारा उन्हें

आज जब आंगन में पड़ी है तुम्हारी लाश
खून से लथपथ
तुम्हारा बहता खून आज रंगत नहीं दे पा रहा तुम्हारे रूप को

मां बार-बार गश्त खा कर गिर जाती है
और पिता ज्यों हो गए हैं पत्थर ही
कि अब नहीं झूलोगी तुम उनके कंधों से
जब लौटेंगे वे दिन भर की थकान से चूर

आज तुम्हारे उसी रूप ने डस लिया तुम्हें
जिस पर रीझे थे तुम्हारे पिता और
कोसा था तुम्हारी मां ने खुद को और तुम्हे भी

आज अपना वही रूप जब तुम नहीं बांट पाई
किसी राह चलते मनचले के साथ
तो तुम्हें तब्दील कर दिया गया है लाश में

राधिका, तुमने कभी नहीं बताया यह राज़
कि आते-जाते कालेज तुम्हें सताता है एक मनचला
कि हथेली में लिए खड़े रहता है वह अपना दिल
और दूसरा हाथ छिपाए है अपनी पीठ के पीछे

नहीं कहा तुमने किसी से, न मां से, न पिता से
कि जानती थी तुम रोक दिया जाएगा
तुम्हें बाहर जाने से
कि मां काट देगी पंख और पिता कहेंगे
कि मेरी रानी बिटिया
तूं बड़ी प्यारी है मुझे

तूं रहना मेरे पास ही
घर ही में जुटा दूंगा तुझे तेरे सब सुख

तुम जानती थी राधिका
कि उड़ने से पहले ही कैद कर दी जाओगी तुम
सुनहरे पिंजड़े में

लेकिन तुम्हें पसंद थी आज़ादी अपने हिस्से की
तुम चाहती थी बेखौफ उड़ जाना
छूना उस असीम आसमान को
कहते हैं कि जिसके पीछे एक और कायनात है
लेकिन
पिंजडे में कैद नहीं होना चाहती थी तुम

आज जब आंगन में पड़ी है तुम्हारी लाश
जहां ठीक तुम्हारे पंखों  के बीचों बीच
दाग दी है गोली शिकारी ने
तुम्हारी निर्दोष आंखें हमें सोचने को विवश करती हैं.


पुराने घर का वह पुराना कमरा


मेरे पुराने घर के पुराने कमरे में
दफ्न था बहुत कुछ पुराना
उस पुराने कमरे में एक संदूक था
जो स्मृतियों से लबालब भरा था

उस संदूक में थे मेरी दादी के कपड़े
चांदी के तिल्ले से जड़े, जिन्हें
पहनकर आई थीं वे दादा के साथ

दादी बताती हैं रात के तीसरे पहर
विदा हुई थी उनकी डोली
चार कहारों के साथ पूरी बारात थी
जंगल से गुज़रते डरे थे घर के सभी लोग
बाराती डरे थे अपनी जान के लिए
दादी के ससुर डरे थे दहेज में आए सामान के लिए
और दादा डरे थे डोली में बैठी
अपनी खूबसूरत दुल्हन के लिए
बिल्कुल नहीं डरी थी दादी लुटेरों के डर से
उन्हें भरोसा था अपने पति पर, जिन्हें
उन्होंने अपनी डोली की विदाई तक देखा भी नहीं था

पिता ने दिया था ढेर सा सोना-चांदी
उनके सुखी भविष्य के लिए, और
मां ने पल्लू के छोर से बांध दी थीं
न जाने कितनी सीखें, नियम और कायदे

दादी जब तक रहीं, देखती रहीं
उन कपड़ों को नज़र भर और
इस बहाने दादा के साथ जुड़ी अपनी ढेरों स्मृतियों को

उसी पुराने कमरे में दफ्न थे कई पुराने बर्तन
बड़े हांडे, पतीले, थाल और परात
घूमते रहे ये बर्तन जब-जब गांव में हुआ
कोई भी आयोजन - छोटा या बड़ा
मां बताती है इन बर्तनों को पांव लगे थे
और कुछ को तो शायद पंख
उड़ कर जा बैठते थे ये थाल ये पतीले
उन डालो पर भी जिनसे कोई वास्ता नहीं रहा हमारे घर का
इन बर्तनों ने दिल से अपनाया था हमारे घर को
कि अपनी देह पर नुचवा लिए थे इन्होंने नाम
मेरे दादा और मेरे पिता के
कि जाते कहीं भी, कितने भी दिन के लिए
रात बेरात लौट ही आते थे अपने दरवाज़े पर
और खूंटे पर आकर बंध जाते थे

इसी पुराने कमरे में रखे रहे मेरे पिता के जूते भी
जिन्हें उनके जाने के बाद मेरी मां ने ऐसे सहेजा
ज्यों सहेज रही हो अपना सिंगारदान
अपनी लाली, अपनी बिंदिया, अपनी पायल और अपने कंगन
कहती थी मां जाने वाला तो चला गया
लेकिन उनके जूते हमेशा इस घर में
उनकी उपस्थिति को बनाए रखेंगे
उनकी आत्मा नहीं भटकेगी कहीं दर ब दर
वे देखते रहेंगे अपने परिवार को, अपने बच्चों को
वहीं से जहां होता है आदमी मृत्यु के बाद
मां यह भी कहती थी कि पुरखों के जूते हों
यदि घर में, तो बरकत कभी नहीं रूठती उस घर से

आज जब बिक गया वह पुराना घर
और हम आ गए इस फोर बेडरूम के नए फ्लैट में
जहां शाम बाल्कनी में झूले पर बैठ
मां छीलती है मटर और देखती है खुला आसमान
आज जब सबके पास है एक निजी कमरा और
उस निजी कमरे में उपलब्ध कई निजी सुविधाएं
तब कहीं जगह नहीं बची उस पुराने कमरे और
पुराने कमरे के संदूक के लिए

आने से पहले यहां बेच दिए गए दादी के वे कपड़े
चांदी के तिल्ले से जड़े कि
चांदी का भाव इन दिनों आसमान छू रहा है
यूं भी जरूरत क्या है अब उन कपड़ों की
जब न रहे दादा और न रही दादी

बिक गए वे पुराने बर्तन
मां बताती थीं कि जिनके तलुओं में पांव लगे थे
अब नहीं बचा न गांव न कोई मोहल्ला
कि इन बर्तनों के पैंदे घिस गए हैं
और पैर हो गए हैं अपाहिज
रसोई में करीने से शीशे की दीवारों के पीछे सजे बर्तन
इन्हें मुंह चिढ़ाते हैं
कि देखो कितनी कालिख जमी है तुम्हारे चेहरों पर
कि चिकना नहीं तुम्हारे शरीर का कोई भी हिस्सा
और हम सिर से पांव तक चिकने और चमकीले हैं

साथ नहीं आ सके इस नए घर में
जिसकी दीवारें सतरंगी हैं और
छत से टपक रही है चांदनी
पिता के पुराने जूते जो सालों से उस घर पर
बरकत बनाए रखने में जगते रहे दिन-रात
मां सहेजे रहीं उन जूतों को कई बरसों तक
जिनकी अमूल्य निधि में थे पिता के चमड़े के वे जूते
घर छोड़ते हुए हो गई एकदम निष्ठुर
बोलीं कि कब तक ढोया जा सकता है स्मृतियों को
और बेटा मेरे जाने के बाद
कौन रखेगा ख्याल तुम्हारे पिता के इस आखिरी चिह्न का
और एक ही पल में कर दिया उन्होंने
मुक्त हम बच्चों को पिता के सभी ऋणों से

आज इस घर में सब कुछ है
नया फर्नीचर, नए बर्तन, नई दीवारें, नई चमक
यहां बनेंगी अब नई स्मृतियां नए घर की
आज जब हम रात को सोते है इस नए घर में निश्चिंत
जहां नहीं आती पुराने घरी की सीलन भरी सड़ांध
जहां की दीवारों से नहीं झड़ता कभी पलस्तर
जहां के चिकने फर्श में भी दिख जाते हैं
हमारे खुशनुमा खूबसूरत चेहरे
वे बर्तन, वे संदूक, पिता के वे जूते
हमें कहीं से पुकार रहे हैं.



वह लौटता है तो लौट जातीं हैं सारी उम्मीदें


सुबह ठीक पांच बजकर तीस मिनट पर
आंख मलते हुए उठता वह
एक नए दिन की दहलीज़ पर खड़ा है
वह उठता है और साथ ही उठ जाती है उसकी पत्नी
जो देर रात तक दरवाज़े पर खड़ी हो
इंतज़ार करती है सुबह आठ बजे
घर से निकले अपने पति का
वह जो उठ जाता है साढ़े पांच बजे सुबह
ठीक छःबजे तक नहाकर रोज़ आधा घंटा बैठता है
ईश्वर की शरण में


वह छः से साढ़े छः बजे तक उसे याद करता
न जाने क्या मांगता है रोज़ अपनी दुआओं में
शायद यह कि इस महीने की तनख्वाह आने पर
करवा सकूं अपनी बीमार पत्नी का इलाज
कि दिलवा दूं इस बार अपनी बिटिया को नया बैग
कि तनख्वाह बढ़ जाए तो बढ़ सके आधा लीटर दूध
और वह मांगता है कि किसी तरह कुछ जुगाड़ हो पैसों का
तो खुलवा सके बैंक में एक खाता
कि किसी तरह तो पूंजी जमा हो उसकी ताड़ की तरह जवान
होती जाती बेटी के ब्याह के लिए.

वह मांगता होगा शायद यह भी कि
सीलन से बदबू मारते घर में पुताई हो जाए चूने की
कम से कम इस दीवाली पर
उस आधे घण्टे में सबके लिए सब कुछ मांगकर वह
तैयार होता है काम पर जाने के लिए

साइकिल के कैरियर से अपना डिब्बा बांधे
वह पत्नी की तस्वीर आंखों में कैद किए निकल लेता है
मानो आज लौटेगा तो शायद खरीदकर ला पाएगा
उसके लिए बिंदिया, लाली या फिर कांच की चार चूडि़यां

वह शुरू हुआ दिन उसमें रोज़ जगा जाता है एक उम्मीद
कि हो सकेगा कुछ बेहतर
कि आज का दिन शायद बदल पाएगा उसकी जि़ंदगी
लेकिन रोज़ की तरह ही काम पर जा और
सारा दिन हथौड़ा चला उसे एहसास होने लगता है
कि नहीं बदलने वाला है कुछ भी
उसका उठाया हथौड़ा मानो वार कर रहा हो
उसकी अपनी ही किस्मत पर

लगभग पूरे दिन हथौड़े की चोट पर गुजा़रता वह
लौट आता है रात वापस अपने दड़बे में
जहां सो चुकी है उसकी बिटिया अपने फटे बैग पर सिर रखकर
जहां बड़ी बेटी के सपने में आ चुका है कोई राजकुमार
जहां पतीली में आज भी नहीं है दूध और
पत्नी की आंखें आज भी सूनी हैं
वह चुपचाप खाकर चार रोटियां
लेट जाता है अपनी चारपाई पर जहां
बगल में लेटी है पत्नी और आंखें टिकीं हैं
दीवार पर लटकी ईश्वर की तस्वीर पर.





सिनेतारिका



७० mm के रंगीन पर्दे पर जब थिरकती थी वह
तो पूरा सिनेमाघर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठता था
सीटियों की चीख सी आवाज में कई दर्शक ठूंस लेते थे
अपने कानों में उँगलियां

सीने की तेज धडकन के साथ जब
थरथराता था उसका सीना तो टीस सी
उठ जाती थी कई जवाँ दिलों में

वह गुजरती थी जिन सड़कों  से
तिल रखने को जगह भी नहीं बच पाती थी वहाँ
और भीड़ को लगभग रौंद कर चली जाती थी
उसकी ऊँची हील वाली सैंडल और उस पर
लचकती उसकी पतली कमर

कई नजर के पारखी अपनी आँखों को खोल और भींचकर
ठीक ठीक अंदाजा लगा लेते थे
उसकी कमर की नाप और सीने की ऊँचाई का
और बीच चौक पर शर्तें लगा करती थीं इस पारखी
नजर के आकलन की

लड़कियों ने उसकी खूबसूरती को इस तरह जगह दी थी
कि कोई करता उनकी तुलना उससे तो
वे शरमा कर लाल हुई जातीं थीं
शीशे के आगे खड़े होकर लगभग हर कोण से
वे करने लगती थीं तुलना खुद की उससे

वह सिनेतारिका थी हमारे ज़माने की
साँवली रंगत और गजब का नूर और चमक लिए
वह दिलों पर हो गई थी पाबस्त
हर बूढ़े और जवाँ के

उसके बालों का स्टाइलउसकी चालउसकी ढाल
उसकी हर अदा जैसे एक मूक नियम से बन गए थे
हर जवां होती लड़की के लिए और
वे ज्यों इन नियमों को मानने के लिए बंध सी गई थीं
वह हमारे समय की सिनेतारिका थी

मुस्कुराती तो ज्यों फूल झड़ते थे
इठलाती तो जैसे बिजलियां कड़क जाएं
चाहती वह तो खरीद लेती सल्तनतें
अपनी बस एक अदा से

फिर एक दौर आया लम्बी गुमनामी का

आज एक लम्बे समय बाद
देखा उसी सिनेतारिका को स्टेज पर खड़े कुछ चंद लोगों के साथ
अब वह हँसती हैमुस्कुराती है
तो लोग सिर झुकाते हैं
नाचती है वह कुछ कुछ उसी पुरानी अदा के साथ
तो लोग सम्मान में ताली बजाते हैं

आदर से उसे लाया जाता है हाथ पकड़
चमकते चौंधियाते उसी स्टेज पर
जिस पर नाचती थी वह तो आहें उठती थीं
कई सीनों में

वह फिर बिखेरना चाहती है वही जलवा
उठाती है नजाकत से हाथ कुछ इस कदर
कि हो सके भीड़ बेकाबू एक बार फिर
और वह लहरा करनजरें तरेरकर निकल जाए बीच से

पर अब उसके इन उठे हाथों पर नहीं रीझता कोई
आशीर्वाद लेना चाहती है नई पीढ़ी
नई लड़कियाँ कि वे भी कायम कर सकें
वही रूपवही समां

वह अब बूढ़ी हो गई है
पचपन पार हो चुकी है उसकी उम्र
जवां हो गई है एक नई पीढ़ी उसके बाद
और अब वह पुरानी पड़ गई है.                                    

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  1. सद्य और आत्मीय कविताएँ.."इन दिनों" कविता ख़ास पसंद आई. सभी कविताएँ मानवीय रिश्तों का काव्यात्मक पाठ है. ज्योति को कविताओं के लिए बधाई!

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  2. sab kavitayen padh gai.. bartno vali kavita ne to jaise kheench ke meraa bachpan hee khol diya.. vahi tille jade dadi ke kapde aur vahi sandook.. :).. sabhi kavitayen jeevant hain.. aur aatmeey bhi.. hardik badhai .. shukriya arun ji subah subah achhi kavitayen padhvane ke liye.

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  3. स्मृतियों और जीवनानुभवोंके आरोह-अवरोह पर बेहद आत्मीय,सौंदर्यबोधपरक, वार्तालाप की अत्यंत सरल-सहज किसी के भी मानसपटल पर अंकित हो सकने में सक्षम कवितायेँ ...

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  4. What to say Jyoti? Every poem is a story in itself...narrating and depicting sometimes a neighborhood scene and at times an incident within my home!! Could co-relate with all the poems. Congratulations!!

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  5. वैसे तो सभी कवितायेँ अच्छी हैं , लेकिन 'इन दिनों' और 'सिने तारिका' मुझे खास तौर पर पसंद आयीं ....गजब की संवेदना है इन कविताओं में ...बधाई ज्योति जी आपको

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  6. बेहद संवेदनापूर्ण व मानवीय सम्बन्धों की सूक्ष्मता से विवेचना करती कविताएं … ज्योति जी को बधाई!

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  7. माँ ,चूडियाँ और बच्चों पर कवितायेँ बेहद मार्मिक और संवेदनशील हैं.अन्य कविताओं में भावुक स्मृतियाँ और शब्द चित्र हैं. धीरे धीरे कम शब्दों में और नये बिम्बों और अलग शैली में भी कवितायेँ लिखे जाने की अपेक्षा है.

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  8. इन कविताओं मे एक माध्यम वर्ग की भारतीय अभिजात्य नारी का सीमित संसार है जिसके हृदय में सुकोमल भावनाएं हैं ,रिश्तों को सहेजता अपनापन है गरीबों के प्रति करुणा है जो उसे कुछ करने को उकसाती है लेकिन वर्ग का अन्तर उसे रोक लेता है और वह उस दीवार को फांद नहीं पाती है ! संवेदना है मगर उसका वेग अधिक दूर तक कविता को नहीं ले जाता ! बात होती है मगर वह किसी बड़ी बात से नहीं जोड़ती ! कवितायें किसी ऐसे तथ्य की ओर संकेत नहीं करती जिसे हम भुला बैठे हों या जिसे अनदेखा करते आ रहे हों !

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  9. बेहतरीन रचनाये .....अलग हटकर एक नये दृष्टिकोण को बुनती कविताये बधाई ज्योतिजी

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  10. संवेदनशील और भावुक कवितायेँ......बहुत सुंदर....बधाई ज्योति......आपको सुनना भी अच्छा लगता है और पढना भी.....अनंत शुभकामनायें,.......

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  11. ज्योति की कविताओं का अपना व्यक्तित्व है. अनुभवों की निर्दोंष मन: स्थितियाँ और स्मृतियों का विश्वस्त धरातल दोनों ,कविताओं के आंतरिक संस्कार को पुष्ट करते हैं. अपनी सोच में ज़िम्मेदार और अपने लक्षित में प्रभावशाली

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  12. ताजगी से भरी कविताएं। सहज होने के साथ गहराई भी है। रेशमी एहसास के साथ मार्मिकता का अद्भुद संयोग। "चूडियां" कविता ज्यादा अच्छी लगी।
    ज्योति को बधाई व शुभकामनाएं।
    इन खूबसूरत कविताओं को पढवाने के लिये अरुण जी का आभार।

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  13. कई स्‍थानों पर विचलित कर देनी वाली अनुभूतियां। निश्‍चय ही ज्‍योति की कविताएं विवरणों को नए स्‍तर से बिम्‍ब-संवेदना से अनुप्राणित करती हुई ऐसी प्रभावान्विति रचती हैं कि अभिव्‍यक्ति सजीव हो उठती है। रचनाकार को बधाई और 'समालोचन' का आभार...

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  14. jyotiji,aapki kavitayen yaha padhane ko miuli. isake pahale bhi kisi patrika me kuch kavitayen dekhi thee.aap ki kavitayen adhik saghan hain,kahani ke baraks.kavita apne swabhav me hi kahani se adhik sanslisht hoti hai.meri badhayiyan!

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  15. मन को छू जाने वाली रचनाएं....! ज्योति जी से परिचित कराने का शुक्रिया।
    ------
    ’की—बोर्ड वाली औरतें!’
    ’प्राचीन बनाम आधुनिक बाल कहानी।’

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