मति का धीर : चंद्रकांत देवताले
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फोटो संदीप नायक के कैमरे से |
चंद्रकांत देवताले
मध्यप्रदेश के विभिन्न राजकीय कालेजों में अध्यापन
लकड़बग्घा हंस रहा है
मां पर नहीं लिख सकता कविता
यमराज की दिशा
कहना मुश्किल है
पर वह जताती थी जैसे ईश्वर से उसकी बातचीत होते रहती है
और उससे प्राप्त सलाहों के अनुसार
जिंदगी जीने और दुःख बर्दास्त करने का रास्ता खोज लेती है
दक्षिण की तरफ़ पैर कर के मत सोना
वह मृत्यु की दिशा है
और यमराज को क्रुद्ध करना
बुद्धिमानी की बात नही है
और मैंने यमराज के घर का पता पूछा था
उसने बताया था
तुम जहाँ भी हो वहाँ से हमेशा दक्षिण में
माँ की समझाइश के बाद
दक्षिण दिशा में पैर करके मैं कभी नही सोया
और इससे इतना फायदा जरुर हुआ
दक्षिण दिशा पहचानने में
मुझे कभी मुश्किल का सामना नही करना पड़ा
मैं दक्षिण में दूर-दूर तक गया
और हमेशा मुझे माँ याद आई
दक्षिण को लाँघ लेना सम्भव नहीं था
होता छोर तक पहुँच पाना
तो यमराज का घर देख लेता
पर आज जिधर पैर करके सोओं
वही दक्षिण दिशा हो जाती है
सभी दिशाओं में यमराज के आलीशान महल हैं
और वे सभी में एक साथ
अपनी दहकती आखों सहित विराजते हैं
माँ अब नही है
और यमराज की दिशा भी अब वह नहीं रही
जो माँ जानती थी.
अंतिम प्रेम
जो बिना पछतावे के
पत्तियों को विदा कर चुका है
पानी की आवाज जिस विकलता के साथ
जीवन की याद दिलाती है
तुम इसी आवाज और इसी याद की तरह
मुझे उत्तेजित कर देती हो
कोई अन्तिम प्रेम के लिए तैयार खड़ा हो जाता है
मैं इस उजाड़ में इसी तरह खड़ा हूँ
मेरे शब्द मेरा साथ नहीं दे पा रहे
और तुम सूखे पेड़ की तरह सुन्दर
मेरे इस जनम का अंतिम प्रेम हो.
मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा
दुनिया का सबसे ग़रीब आदमी
दुनिया का सबसे गरीब आदमी
कौन होगा
सोच रहा हूँ उसकी माली हालत के बारे में
नहीं! नहीं!! सोच नहीं
कल्पना कर रहा हूँ
मुझे चक्कर आने लगे हैं
गरीब दुनिया के गंदगी से पटे
विशाल दरिद्र मीना बाजार का सर्वे करते हुए
देवियों और सज्जनों
'चक्कर आने लगे हैं'
यह कविता की पंक्ति नहीं
जीवनकंप है जिससे जूझ रहा इस वक्त
झनझना रही है रीढ़ की हड्डी
टूट रहे हैं वाक्य
शब्दों के मलबे में दबी-फँसी मनुजता को
बचा नहीं पा रहा
और वह अभिशप्त, पथरी छायाओं की भीड़ में
सबसे पीछे गुमसुम धब्बे-जैसा
कौन-सा नंबर बताऊँ उसका
मुझे तो विश्व जनसंख्या के आँकड़े भी
याद नही आ रहे फिलवक्त
फेहरिस्तसाजों को
दुनिया के कम-से-कम एक लाख एक
सबसे अंतिम गरीबों की
अपटुडेट सूची बनाना चाहिए
नाम, उम्र, गाँव, मुल्क और उनकी
डूबी-गहरी कुछ नहीं-जैसी संपति के तमाम ब्यौरों सहित
हमारे मुल्क के एक कवि के बेटे के पास
ग्यारह गाड़ियाँ जिसमें एक देसी भी
जिसके सिर्फ चारों पहियों के दाम दस लाख
बताए थे उसके ऐश्वर्य-शानो-शौकत के एक
शोधकर्ता ने
तब भी विश्व के धन्नासेठों में शायद ही
जगह मिले
और दमड़ीबाई को जानता हूँ मैं
गरीबी के साम्राज्य के विरत रूप का दर्शन
उसके पास कह नहीं पाऊँगा जुबान गल जाएगी
पर इतना तो कह सकता हूँ वह दुनिया की
सबसे गरीब नहीं
दुनिया के सत्यापित सबसे धनी बिल गेट्स
का फोटो
अखबारों के पहले पन्ने पर
उसी के बगल में जो होता
दुनिया का सबसे गरीब का फोटू
तो सूरज टूट कर बरस पड़ता भूमंडलीकरण
की तुलनात्मक हकीकत पर रोशनी डालने के
लिए
पर कौन खींचकर लाएगा
उस निर्धनतम आदमी का फोटू
सातों समुंदरों के कंकड़ों के बीच से
सबसे छोटा-घिसा-पिटा-चपटा कंकड़
यानी वह जिसे बापू ने अंतिम आदमी कहा था
हैरत होती है
क्या सोचकर कहा होगा
उसके आँसू पोंछने के बारे में
और वे आँसू जो अदृश्य सूखने पर भी बहते
ही रहते हैं
क्या कोई देख सकेगा उन्हें
और मेरी स्थिति कितनी शर्मनाक
न अमीरों की न गरीबों की गिनती में
और मेरी स्थिति कितनी शर्मनाक
न अमीरों की न गरीबों की गिनती में
मैं धोबी का कुत्ता प्रगतिशील
नीचे नहीं जा सका जिसके लिए
लगातार संघर्षरत रहे मुक्तिबोध
पाँच रुपए महीने की ट्यूशन से चलकर
आज सत्तर की उमर में
नौ हजार पाँच सौ वाली पेंशन तक
ऊपर आ गया
फिर क्यों यह जीवनकंप
क्यों यह अग्निकांड
की दुनिया का सबसे गरीब आदमी
किस मुल्क में मिलेगा
क्या होगी उसकी देह-संपदा
उसकी रोशनी, उसकी आवाज-जुबान और
हड्डियाँ उसकी
उसके कुचले सपनों की मुट्ठीभर राख
किस हंडिया में होगी या अथवा
और रोजमर्रा की चीजें
लता होगा कितना जर्जर पारदर्शी शरीर पर
पेट में होंगे कितने दाने
या घास-पत्तियाँ
उसके इर्द-गिर्द कितना घुप्प होगा
कितना जंगल में छिपा हुआ जंगल
मृत्यु से कितनी दुरी पर या नजदीक होगी
उसकी पता नहीं कौन-सी साँस
किन-किन की फटी आँखों और
बुझे चेहरों के बीच वह
बुदबुदा या चुगला रहा होगा
पता नहीं कौन-सा दृश्य, किसका नाम
कोई कैसे जान पाएगा कहाँ
किस अक्षांश-देशांश पर
क्या सोच रहा है अभी इस वक्त
क्या बेहोशी में लिख रहा होगा गूँगी वसीयत
दुनिया का सबसे गरीब आदमी
यानि बिल गेट्स की जात का नही
उसके ठीक विपरीत छोर के
अंतिम बिंदु पर खासता हुआ
महाश्वेता दीदी के पास भी
असंभव होगा उसका फोटू
जिसे छपवा देते दुनिया के सबसे बड़े
धन्नासेठ के साथ
और उसका नाम
मेरी क्या बिसात जो सोच पाऊँ
जो होते अपने निराला-प्रेमचंद-नागार्जुन-मुक्तिबोध
या नेरुदा तो संभव है बता पाते
उसका सटीक कोई काल्पनिक नाम
वैसे मुझे पता है आग का दरिया है गरीबी
ज्वालामुखी है
आँधियों की आँधी
उसके झपट्टे-थपेड़े और बवंडर
ढहा सकते हैं
नए-से-नए साम्राज्यवाद और पाखंड को
बड़े-से-बड़े गढ़-शिखर
उडा सकते पूँजी बाजार के
सोने-चाँदी-इस्पात के पुख्ता टीन-टप्पर
पर इस वक्त इतना उजाला
इतनी आँख-फोड़ चकाचौंध
दुश्मनों के फरेबों में फँसी पत्थर भूख
उन्हीं की जय-जयकार में शामिल
धड़ंग जुबानें
गाफिल गफलत में
गुणगान-कीर्तन में गूँगी
और मैं तरक्की की आकाशगंगा में
जगमगाती इक्कीसवीं सदी की छाती पर
एक हास्यास्पद दृश्य
हलकान दुनिया के सबसे गरीब आदमी के वास्ते.
बाई दरद ले
और थे जो पत्थर तोड़ने वाले दिन
उस सबके बाद
इस वक्त तेरे बदन में धरती की हलचल है
घास की जमीन पर लेटी,
तू एक भरी पूरी औरत
आँखों को मींच कर
काया को चट्टान क्यों बना रही है
बाई! तुझे दरद लेना है
जिंदगी भर पहाड़ ढोए तूने
मुश्किल नहीं है तेरे लिए
दरद लेना
जल्दी कर होश में आ
वरना उसके सिर पर जोर पड़ेगा
पता नहीं कितनी देर बाद रोए
या ना भी रोए
फटी आँख से मत देख
भूल जा जोर जबरदस्ती की रात
अँधेरे के हमले को भूल जा बाई
याद कर खेत और पानी का रिश्ता
सब कुछ सहते रहने के बाद भी
कितना दरद लेती है धरती
किस किस हिस्से में कहाँ कहाँ
तभी तो जनम लेती हैं फसलें
नहीं लेती तो सूख जाती सारी हरियाली
कोयला हो जाते जंगल
पत्थर हो जाता कोख तक का पानी
याद मत कर अपने दुःखों को
आने को बेचैन है धरती पर जीव
आकाश पाताल में भी अट नहीं सकता
इतना है औरत जात का दुःख
धरती का सारा पानी भी
धो नहीं सकता
इतने हैं आँसुओं के सूखे धब्बे
सीता ने कहा था - फट जा धरती
ना जाने कब से चल रही है ये कहानी
फिर भी रुकी नहीं है दुनिया
बाई दरद ले!
सुन बहते पानी की आवाज
हाँ! ऐसे ही देख ऊपर हरी पत्तियाँ
सुन ले उसके रोने की आवाज
जो अभी होने को है
जिंदा हो जाएगी तेरी देह
झरने लगेगा दूध दो नन्हें होठों के लिए
बुद्ध के देश में बुश
कविता संग्रह : इस सिंफनी में
दो बार पाकिस्तान की सांस्कृतिक यात्रा.
जो प्रेम भाई के इस आलेख को नहीं पढ़ेगा उसे उसकी साहित्यिक अभिरुचि की कसम
पहले के पुरस्कृत कवियों के अधिकांश नाम ध्यान में रखूं तो देवताले जी को अब जा के मिला यह सम्मान साहित्य अकादमी के छूंछे विलम्बित पश्चाताप जैसा लगा मुझे तो (मैंने तो अब तक फोन पर बधाई तक नहीं कहा उन्हें, क्योंकि उनकी कविता अब इस सबसे ऊपर लगती है मुझे - पर अकादमी को एक ज़रूरी बधाई मैंने दे दी है)
...हिंदी साहित्य में जो एक सत्ता-समुदाय बन चला है, उसने जनता के कवियों को हमेशा हाशिये पर रखने की कोशिशें की हैं...पर देवताले जी जैसे कवियों के लिए हाशिया होता ही नहीं..वे पाठकों के निकट होते जाते हैं और पूरी परिधि को ढांपते हुए कब केन्द्र तक आ जाते हैं, पता ही नहीं चलता। और यह केन्द्र जनता के दुख-तकलीफ़ों और संघर्षों का होता है, साहित्य के शीर्ष पर विराजने के सुख का नहीं।
देवताले जी हिंदी के उन दुर्लभ कवियों में हैं, जिन्हें आलोचकों ने नहीं, साधारण पाठकों और युवाओं के प्यार व सम्मान ने ताक़त दी है। प्रेम भाई ने संक्षेप में बहुत अच्छा लिखा है, मेरा मन था कि यह विस्तृत होता...देवताले जी की कविताओं के राग की तरह जिसे मैं देर तक पढ़ता चला जाता।
दिलीप चित्रे मराठी के वरिष्ठ ख्याति प्राप्त कवि हैं, जिनकी कविताओं का आस्वादन कृत्या के पाठक ले चुके हैं। निसन्देह चित्रे जी की कविताएँ हिन्दी में भी मूल कविता सा आस्वादन दे रहीं हैं।
From,
Ganesh Kalghuge
बहुत आत्मीय आलेख और महत्त्वपूर्ण कविताएं हैं! आभार !
प्रेमचंद जी ने अच्छा आलेख लिखा है ,और विस्तार देते इसे आप तो पाठकों को अधिक आनंद मिलता।
देवताले जी की कविताएँ जीवन-जगत की ठोस कविताएँ हैं.लकड़बग्घा समूची चेतना को हिला देती है। 'माँ पर नहीं लिख सकता कविता' तीव्र संवेदनों के साथ सबसे सुंदर रिश्ते के साथ पास आकर खड़ी हो जाती है। पत्थर फेंक रहा हूँ और कवि ने कहा संकलन मेरे पास हैं ..इधर हिंदी साहित्य को दो सालों में करीब से देखने का मौका मिला। इस संसार से मैं अपरिचित तो नहीं पर इस तरह जुड़ी भी नहीं थी ..
हिंदी का जगत अपना जगत लगता है .
(slightly corrected)
बहुत संक्षिप्त लेकिन देवताले जी की कविता और उनकी वैयक्तिकता को समझने के लिए एक सचमुच तल्लीन कोशिश। देवताले हमारे सबसे प्रिय और पुराने, लगभग उम्र के साथ-साथ चले आते ऐसे विरल कवि हैं जिनमें अगर मुक्तिबोध के ही शब्दों का आसरा लें तो आत्म-चेतना और विश्व-चेतना अपने हर संभव तनावों और अंतर्द्वंद्वों के साथ उपस्थित है। ऐसी 'स्ट्रेस्ड' हिन्दी कविता (आपने सही इशारा किया) मुक्तिबोध के बाद दुर्लभ होते गयी है। देवताले कविता की आतंरिक संरचना से घबरा कर सतह की आसानी की ओर नहीं भागते, वे अपने समय के राजनीतिक या दूसरे विमर्शों के सामने अपनी बेचैनी और कविता के दुर्धर्ष चुनौती भरे लक्ष्य का 'आत्म-समर्पण' नहीं होने देते। वे शायद अकेले ऐसे कवि इस समय बचे हैं, (और यह बहुत कीमती तथ्य है) जिनकी निजता और कविता के बीच कोई फांक नहीं दिखाई पड़ती। जैसा आपने लिखा है- वे सचमुच किसी बच्चे की मासूमियत से भरे ऐसे कवि -व्यक्तित्व हैं ...... और ..... जिनकी स्मृतियों में चींटियों के दस्ते तमाम आकस्मिक दिशाओं में भटकते हैं .....और .....जहां मां चुटकी दो चुटकी आटा डाल जाती है कि स्मृतियाँ जीवित रहें और वे 'चिउंटियां' भूखी न हों।
उनकी तमाम कवितायेँ स्मृतियों में हैं ...लेकिन उनका फोन नंबर नहीं है कि उन्हें बधाई दे सकूं। जब भी फोन आता है , उनका ही आता है . ऐसा स्नेह, ऐसा साहस और ऐसी निश्छलता किसी कवि या किसी बच्चे की ही होती है।
प्रेम भाई ने संक्षेप में अच्छा लिखा है...देवताले जी की कविताओं से गुजरने का अपना एक विशिष्ट अनुभव होता है. पहले कविता समय के बाद उन पर एकाग्र पुस्तक के लिए बहुत विस्तार से लिखते हुए जैसे उनमें जीता-मरता रहा हूँ...अकादमी की राजनीति वगैरह पर तो क्या कहा जाय? बस 'देर आयद-दुरस्त आयद' कहकर निकल लेता हूँ
हाँ यह तस्वीर मेरी स्मृतियों में अलग से दर्ज है. उज्जैन में जब 'युवा द्वादश' के लोकार्पण के अवसर पर हम कुछ युवा कवि कार्यक्रम 'बंक' कर उनके घर पहुंचे थे तो उन्होंने कहा 'ताई ने कल रात सपने में कहा कि कल कुछ लड़के आयेंगे और उनको चाय ज़रूर पिलाना' और पास के चौराहे पर चाय पिलाने ले गए जहाँ कितनी सारी बातें हुईं. वहीँ संदीप नायक ने यह तस्वीर खींची थी...
इस पुरस्कार से देवताले जी पर क्या फर्क पड़ेगा , हां अकादमी के पास एक तमगा जरुर आ गया है | प्रेम भाई द्वारा दिया गया संस्मरणात्मक परिचय अच्छा लगा | और कवितायें भी ...| वैसे देवताले जी द्वारा लिखी मेरी सबसे प्रिय कविता है 'सिर्फ तारीखे नही बदला करती समय'| ओह ! क्या लिखा है उन्होंने |
एकदम सटीक अंकन है देवताले जी के कवि मिजाज का। कम शब्दों मे दिल से कही गयी बात ज्यादा अहमियत रखती है।यहॉं प्रेम ने उन्हें दिल की गहराइयों से पकड़ा है।
देवताले जी के लिए इस (या ऐसे किसी भी ) पुरस्कार/ सम्मान का क्या महत्व है मैं नहीं जानता . इस लिए बधाई भी नहीं दूँगा . चुपचाप टिप्पणी और कविताएं पढ़ गया . उन की कविताओं पर कुछ कहने के लिए खुद को बहुत छोटा पाता हूँ . कई साल पहले उन की कविताए6 पढ़ कर एक कविता लिखी थी . जिसे छापने की हिम्मत केवल *वसुधा* ने की थी . शीघ्र ब्लॉग पर दूँगा .
बहुत बहुत बहुत बहुत शुक्रिया समालोचन का और प्रेमचंद जी का...बड़ी ही दुर्भाग्यशाली थी मैं जो वंचित थी अभी तक इस खजाने से...
सुनीता
प्रेम चंद जी ने देवताले जी के बारे में विस्तृत जानकारी दी ...आभार ...!!
उनका काव्य संग्रह 'पत्थर की बैंच ' मेरे पास है अन्य की जानकारी यहाँ मिली
'पत्थर फेंक रहा हूँ ' पढने की इच्छा है देखती पुस्तकालय में उपलब्ध है या नहीं ....
देवताले जी की कविताओं से पहला संपर्क कब हुआ पता नहीं पर यह पता है कि यह संपर्क बहुत पुराना है और जितना पुराना है उतना ही नया भी. नया इस संदर्भ में कि अब भी जैसे भी संभव हो, प्रयास करके, खोज कर उनको पढ़ता रहता हूँ. दुःख की बात है कि वे दिल्ली से इतना दूर रहते हैं कि उनसे मिलना आज तक नहीं हो पाया पर साहित्य अकादमी पुरूस्कार के बाद आशा है कि वे पुरूस्कार लेने दिल्ली आएँगे और उनसे मिलने की चिर अभिलाषा पूरी होगी. उनकी कई कविताएँ मैंने अपने विदेशी विद्यार्थियों को पढ़ाई हैं.
प्रेम भाई ने बहुत डूब कर लिखा है उनके बारे में. लकड़बग्घे का जो जिक्र प्रेम भाई ने किया है उसे मैं और आसानी से समझ सकता हूँ क्योंकि उस डर से भी और लकड़बग्घे से भी मेरा आमना-सामना हो चुका है. हमारी तरफ़ (कुशीनगर-गोरखपुर) लकड़बग्घे को स्थानीय भाषा में 'लामड़' कहते हैं. ये कभी-कभी रिहायशी इलाकों में आते हैं और जानवरों (बकरी-भेड़-पालतू कुत्ते-बछड़े) और छोटे बच्चों वगैरह को मार कर, घसीट कर आस-पास के जंगल या खेतों में ले जाते हैं और उनका माँस खाते हैं. एक बार मेरे मुहल्ले में भी यह आया था. उस समय मैं १२वीं का छात्र था. तीन दिन तक इसने खूब उत्पात मचाया. बगल के घरों से तीन जानवर लेकर चला गया. उस रात हम सब होशियार थे. वह जब आया तो कुत्तों के भौंकने और उसकी साँस से हमें अंदाज़ा हो गया. फिर मैं और मेरे चाचा (जो मेरे घर के बगल में स्थित अपने घर में सो रहे थे) लाठी लेकर, शोर मचाते हुए बाहर निकले. हमें आता देखकर वह तेज़ी से मेरी ओर भागा पर जब उसे अहसास हुआ कि मेरे हाथ में कुछ है तो मेरे बगल से मेरे घर के पीछे की खेत की ओर भागा. मैंने लाठी चला कर उसे मारा जो उसे लगा भी, पर अंततः वह बहुत ही तेज़ था और जब तक दूसरे लोग आते, वह खेतों के रास्ते पीछे स्थित बगीचे से होकर रफूचक्कर हो गया और फिर पलट कर नहीं आया. यह सब मेरे लिए काफ़ी रोमांचक था. पर उसके हमलों ने जो डर पैदा किया था, उससे आज भी सिहरन होती है. प्रेम भाई ने बात की तो मुझे यह सब घटनाएँ याद आने लगीं पर देवताले जी का लकडबग्घा तो पूरे दिन की रौशनी में, सरे आम हमला करता है और इतनी चालाकी से कि लोग फिर उसके सामने बिछ जाते हैं एक और हमले के लिए. ऐसे लकड़बग्घे की पहचान देवताले जी जैसा कवि ही कर सकता है. प्रेम भाई ने उनके साथ बिताए अपने समय की बात की है और उनकी कविताओं का कम शब्दों में ही बहुत सुंदर मुल्यांकन प्रस्तुत किया है. साथ में देवताले जी की चुनिंदा कविताएँ...सोने पे सुहागा. याद है कि कुछ दिन पहले प्रेम भाई ने फेसबुक पर एक ज़िक्र किया था कि किस तरह से देवताले जी माया मृग जी को फोन लगा रहे थे पर नंबर अपना ही डायल कर रहे थे. काफ़ी दिलचस्प था वह. शुक्रिया प्रेम भाई, आभार समालोचन!
चंद्रकांत देवताले पर आई शिरीष कुमार मौर्य की पुस्तक उनके रागात्मक संसार का आईना हे। उसमें शिरीष ने भी देवताले के इस संसार को गहरे उतर कर समझने का प्रयास किया है। उससे उनकी एक आत्मीय दुनिया सामने आती है। देवताले के साथ हम कविता के मिजाज के तमाम पड़ावों का सफर तय करते हैं। यह व्याख्या भी इसी सफर का एक और पड़ाव है। उन पर एक बड़ा काम करने की मेरी इच्छा भी इससे बलवती हुई है।
चंद्रकांत देवताले जी के व्यक्तित्व व कृतित्व के विषय में गांधी जी ने बखूबी प्रकाश डाला है देवताले जी की कविता' यमराज की दिशा' पढ़ाने का अवसर प्राप्त हुआ है बहुत ही अच्छी रचना है . वैसे तो सभी कविताये पसंद आयी . विशेष रूप से 'लकडबघा हँस रहा है' व 'मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा '.
प्रेमजी नमस्कार।
मुझे गुलज़ार और सिर्फ मेरी अपनी कविताये पसंद हैं।
देवताले जी एक आध कविता पहले पढ़ी थीं। पर आज कविताओं की जो शृंखला यहाँ प्रस्तुत की है, मैं देवताले जी का प्रशंसक हो गया हूँ। सलाम देवताले जी।
आभार प्रेम जी।