कथा - गाथा : वन्दना शुक्ल

The Old Guitarist, 1903 by Pablo Picasso











शास्त्रीय संगीत पर पर हिंदी में लिखी कम कहानियाँ देखने को मिलती हैं. वन्दना शुक्ल रंगमंच और शास्त्रीय संगीत से भी जुड़ी हुई हैं. ‘आवाज़ें’ में एक आवाज़ खुद्दार कलावंत उस्ताद हमीदुल्लाह खान उर्फ छुट्टन मियां की भी है. साहित्य इस तरह की आवाज़ों को ही पकड़ता है जो कही शोर में गुम हैं. इस कहानी में समय की  कई गुम चोटों की पहचान है और उतना ही प्रभावशाली उनका अंकन भी.  







आवाज़ें                                                          
वन्दना शुक्ल


’’मैंने लाखों के बोल सहे...वाह वाह क्या बात है? एकताल की बंदिश ...राग दरबारी कान्हड़ा ... मालकौस.पलटेदार तान.... घराने दार लोग ,ज़बरदस्त मुर्कियाँ,....माशाल्लाह, क्या गला पाया है उस्ताद! आवाजें लहराती हुई एक दूसरे को धकेल कर उतराने डूबने लगीं उनकी छाती की खोह में. उस्ताद हमीदुल्लाह खान उर्फ छुट्टन मियां हडबडाकर मूंज की खाट पर उकडूं बैठ गए. आवाजें ही आवाजें  आसमान से बरसती, दीवारों खिड़कियों की संधों से फूटती ,दरख्तों से झडती, अंधेरों से बिखरती कानों में बिलखती आवाजें ही आवाजें ......

जेठ का सुलगता महीना और अमावस की गाढी खुश्क रात. ज़र्ज़र हवेली के इस मैले ऊबड़ खाबड पटियों वाले आँगन में बीही अनार और नीम के ऊंघते हुए दरख्तों के बीच खरहरी खाट पर खामोश तनहा बैठे  बुज़ुर्गवार छुट्टन मियाँ. करीबन ढाई तीन इंची मोटी पत्थर की दीवारों से बनी दुमंजिला इमारत व चारों ओर से मोटे पल्लेदार दरवाजों वाले कमरों से घिरा विशाल आंगन हवेली का इतिहास झांकता है जिनकी दीवारों,मेहराबदार छतों,लंबे चौड़े दालानों और कंगूरेदार दुछत्तियों में से. आंगन के एक कोने में सिमटा सा बैठा वो खाली ज़र्ज़र बड़ा हौज जो अब दुनियाँ भर के कीड़े मकोडों की पनाहगाह है. हवेली के आबाद दिनों में उस हौज को किसी मजलिस या जश्न के मौकों पर मश्किये खुशबूदार पानी से भर दिया करते, पानी की सतह पर गुलाब की ताज़ा पत्तियां तैरा करतीं.

यूँ तो हवेली बारहों महीने संगीत की सुर लहरियों और जलसों से गुलज़ार रहा करती पर ईद और ऐसे ही किसी खास मौकों पर शानो शौकत कुछ जुदा होती. सुबह से मिलने जुलने वालों की आवाजाही शुरू हो जाती. हाज़त मंदों को खैरात बख्शी और अजीजों के हक में अल्ला ताला से दुआएं माँगी जातीं. छुट्टन मियाँ के वालिद यानी ऊँचे पूरे बड़े उस्ताद साब शफ्फाक शेरवानी पर दुपल्ली लखनवी टोपी पहन हाथी दांत की मूठ वाली छड़ी ले, थोड़े झुके हुए कन्धों पर पश्मिनी शौल और पैरों में लखनवी रेशमी कढाई दार जूतियाँ पहने मेहमानखाने में रुआब और फख्र से तख़्त पर तशरीफ़ रखते और मेहमानों की आवभगत करते. कमरों की चौखटों पर मोटी चिकें (टटीयां )जिन्हें गर्मियों में पानी से सींच दिया जाता था हवा से उनकी सुगंध कमरों से आँगन तक में फ़ैल जाती. छुट्टन मियाँ की बूढ़ी आँखों की कोरें फिर भीज गईं.  क्या शानो-शौकत हुआ करती थी इस हवेली की ? स्मृतियों का बवंडर उठने लगा था मन में उन्होंने अंधेरों और धुंधलाई आँखों में से झांककर ज़र्ज़र हवेली पर एक दफे फिर नज़र फिराई.  इस वक़्त कुटुंब का भरा पूरा पन बंद दरवाजों के पीछे कूलरों के आगे सुकून भरी नींद की गिरफ्त में था, अपने वक़्त की रंगीनियों के ख्वाब देखता हुआ. छुट्टन मियाँ को फिर लगा कि पूरी हवेली में ये आवाजें रूह की मानिंद झूल भटक रही हैं, और अंधेरों की दीवारों से टकराकर उनकी आत्मा में कांच की मानिंद टूट टूटकर बिखर रही हैं.. हर किरच गोया एक आवाज़...जो अंगारों के गुलबूटों की नाईं बरसती हैं अक्सर ,उस उजाड मन में जहाँ कभी स्वर लहरियाँ खुशबूदार फूलों की बारिश किया करती थीं.

छुट्टन मियाँ की घरानेदार पकी हुई आवाज़ जो ‘’हिज मास्टर्स वोईस’’ के रिकार्ड की सुई को छूते ही तैरने लगती थी पूरी हवेली में और वो आँखें मींचे मूढे पर टांग पर टांग रखे उनमे गलतियां बीनते  ...’’उहं हूँ यहाँ थोड़ी कसर रह गई मियाँ ये मुरकी ज़रा ऐसे होनी थी’’और कभी ‘’वाह वाह क्या बात है क्या तीन सप्तक में तान खेंची है उस्ताद जी’’ कहते निहाल होते हुए खुद को ही शाबाशी देते छुट्टन मियां उर्फ उस्ताद हमीदुल्ला खान.

उनके वालिद और गुरु उस्ताद अमानुल्ला खान यानी बड़े उस्ताद साब, लखनऊ घराने के मशहूर खानदानी गवैये थे. बड़े उस्ताद साब कानों को छूकर बड़े अदब व फख्र से खुद को शिताब खां के खानदान का बताते जो अकबर के दरबार में बीनकार हुआ करते थे. हवेली आये दिन शास्त्रीय संगीत की महफ़िलों से गुलज़ार रहती जुगलबंदियों, ठुमरियों, कजरियों,चैतियों के दौर चलते. सारंगी पर अब्दुल नजीर साहब, तबले पर खुदा बख्श ओरंगावाले और हारमोनियम पर मजाज़ साब की संगत खूब मशहूर थी. अलावा इसके ठहाकों की आवाजें गूंजती रहतीं, मुलाजिमों-मेहमानों की आवा जाही, खाना पक रहा है देगें चढ रही हैं, खुशबुओं से हवेली तो क्या मुहल्ला गली सब सराबोर हो रहे हैं. लाल रंगे होठों वाली रज्जो आपा मुस्कुराते हुए पानों के बीड़े पे बीड़े लगाए जातीं, मेहंदी इतर की खुशबु, जनान खाने के पर्दे के पीछे से बीवियों की चूडियों की आवाजें और खनकदार हंसी के गुच्छे हवा में रह रह कर उडते. लोग बाग भी क्या शौक़ीन थे! कहाँ कहाँ से बैठकों में शामिल होने आते...अमीनाबाद,रकाब गंज,चौक,मौलवी गंज,इमाम बाड़ा,मकबूल गंज,केसर बाग ..... रात और दिन का फर्क ना तब पता चलता था ना अब!

धीरे धीरे सब चले गए बुज़ुर्ग, रस्मो -रिवाज़, मिरासिनें, महफ़िलें, रौनक, ठाठ–बाट, इज्ज़त, मेहमाननवाजी, किस्से, बतौले, गम्मतें. अब तो बतौर गवाह फ़कत दो निशानियां बाकी बचीं थीं, एक ज़र्ज़र हवेली और दूसरे छुट्टन मियाँ. उम्र तो उनकी भी हो गई है ..लोग गाहे ब गाहे कह भी देते हैं ‘’माशाअल्लाह लंबी उम्र पाई है उस्ताद जी ने, सब बुज़ुर्ग चले गए पर ये उन सबसे आगे निकल गए’’ पर ना जाने क्यूँ छुट्टन मियाँ को अक्सर लगता है कि वो अपने सब बुजुर्गों से बहुत पीछे छूट गए हैं.

जब से ज़माने की रंगत बदली और छुट्टन मियां को लकवे का हल्का दौरा पड़ा है अक्सर आधी रात में जब सन्नाटे हू हू करते हुए पछुवा हवा की नाईं कानों में सरसराते हैं, तो उनके पीछे से ये आवाजें धकम पेल मचाने लगती हैं.
’’सदारंग जिन जावो बिदेसवा,सुख नीदरिया सोवन दे रे ‘’
उनका पसंदीदा ‘’ख्याल’’ और वो हडबडा कर उठ बैठते हैं .
आज फिर वही हुआ .
छुट्टन मियाँ की गड्ढे में धंसी पनीली आँखें झुर्रियों की सिलवटों के बीच से घूर घूर कर देखने लगीं चारों ओर...जहाँ सन्नाटों के स्याह जंगलों में मनहूसियत निशिचरी सी भटक रही थी. मरियल सी पालतू कुतिया जो उनकी ज़रा सी हरकत पर मूंज की खाट के नीचे से पूंछ हिलाती हुई निकल आती थी ,निकल आई और उन्हें घूरने लगी. हमीद मियां उर्फ छुट्टन मियां ने उसके सिर पर हाथ फेरा, वो कूँ कूँ करती फिर खटिया के नीचे घुस गयी. वही तो बची है अब जो सुनने देखने से करीबन लाचार हो चुके छुट्टन मियाँ को बात बात में खीझकर कोसती नहीं. कंपकंपाते हाथों से सुराही पलटकर पीतल के गिलास में पानी भर, दो घूंट सडके उन्होंने . कहीं से कोई आवाज़ का कतरा तक नहीं .....रात के सन्नाटे खिंचे थे बस उनके कानों में महफ़िलें जमी थीं.

’’एय हम्मे मियाँ उठो....’’अब्बू यानी बड़े उस्ताद जी नियम से बेनागा सवेरे चार बजे उठा देते छुट्टन मियाँ को रियाज़ करने, मौसम के किसी लिहाज के बगैर और खासुलखास लखनवीं अंदाज़ में बोलते ‘’संगीत की तालीम कोई गिल्ली डंडे का खेल नईं ये मियाँ, नईं तो आज हर ऐरा गिरा नत्थू खेरा गवैया बना घूम रहा होता. ये एक इबादत है इसके लिए हौसला चाइये, रियाज़ और जुनून चैये तब कहीं जाकर खानदानी गवैये का ओहदा हासिल होता है, समझे के नईं .’’हौसला अफजाई सुनते हुए हमीद मियाँ ऑंखें मीड़ते उठ बैठते .
’’बेगम, ज़रा लोंग,काली मिर्च का मजेदार काढा तो बनाओ हमारे चश्मेनूर के लिए ....और हमारे लिए कडक चाय ‘’. अब्बू रोबदार आवाज़ में कहते .
अम्मी को ज़रा देर हो जाती लाने में तो अब्बू नाराज़ हो जाते
‘’शुक्रिया ,अब रहने दीजिए बेगम,वक़्त निकल चुका ‘’
अम्मी घबरा जातीं परीशान हो जातीं फुस्फुसातीं  ‘’अरे बस लकडियाँ ज़रा गीली थीं ....
वो मनुहार करती रहतीं दरवाज़े की आड़ में खड़ी. सहमते हुए कहतीं ‘’मियां अब ले आबें’’?
‘’नहीं नहीं खुदा के लिए बख्शिये बेगम ‘’बड़े उस्ताद जी खीझ जाते ...अब आप यहाँ से तशरीफ़ ले जाइए अब तालीम का वक़्त हो रहा है. फिर चिढकर कहते ...’’,वक़्त कोई आपकी बकरी नहीं है बेगम जब चाहे जहाँ चाहे बाँध दिया‘.

बिस्मिल्लाह करते और फिर रियाज़ शुरू. अब्बू ताण्ड पर से कनेर की हरी संटी निकालकर अपनी बगल में रख लेते. रखते तो इस गरज़ से कि ज़रा गलती की और सटाक......दरअसल संटी रखना भी तालीम के पुश्तैनी रिवाज़ में शरीक था तालीम का ही एक हिस्सा .अब्बू के अब्बू भी उनको संटी बगल में रखकर संगीत की तालीम दिया करते थे पर ना उन्होंने कभी उसका इस्तेमाल किया ना ही अब्बू ने. बस वो एक संकेत होती थी खानदानी कवायद की. और फिर तालीम शुरू ....बड़े उस्ताद साब यानी अब्बू हारमोनियम संभाल लेते और हमीद मियां पालथी मारकर खरज के स्वर जमाते और फिर अलंकार आलाप छोटा ख़याल बड़ा ख्याल ... बोल आलाप,कूट तान.  किसी अच्छी ‘’चीज़’’’ पर अब्बू ‘’वाह वाह’’कहकर दाद दे उठते तो छुट्टन मियां की आँखों में हौसले तिरने लगते वो और ज़ोरदार गमक की तान लगाते. बड़े उस्ताद जी की आँखों में एक पारदर्शी छलछलाहट चमकने लगती, उँगलियाँ और तेज़ी से हारमोनियम पर फिसलने लगतीं.
  
यूँ तो बड़े उस्ताद साब पांचों बखत के नमाजी मुसलमान होना उनके लिए हलाकि फख्र और इज्ज़त की बात थी लेकिन वो कहते ‘’संगीत का खुदा ईश्वर सब एक है ‘’और फिर जब से अब्बू मैहर जाकर खान साब से गंडा बंधवा आये थे सो देवी भक्त भी हो गए थे. इतना ही नहीं गोश्त और निरामिष भोजन से तौबा भी कर ली थी उन्होंने ताजिन्दगी इन नियमों को निभाया. अपने साथ कभी कभी बड़े उस्ताद जी उर्फ अब्बू मियाँ महफ़िलों में कहते ’मियां रुजगार तलाशना पड़े उससे पहले तो मौत ही आ जाये खुदा कसम. यकीं मानिए जनाब, भूखों मर जायेंगे पर अपना खानदानी हुनर छोड़कर पचास रुपये की भी नौकरी मिलेगी, तो भी रुख नहीं करेंगे, मुसलमान ज़बान का पक्का होता है .’’वो फख्र रोब से कहते.

सचमुच ज़बान के पक्के निकले बड़े उस्ताद जी. देह सींक हो गयी थी. खांसते खांसते आँखें बाहर निकल आतीं दम फूल जाता पलटियां खाने लगते बिस्तर पर .....पर मजाल जो किसी का अहसान ले लें ! कोई अज़ीज़ मदद की बात करता तो टाल जाते. यहाँ तक कि राज्य सरकार ने आर्थिक मदद देने की गुजारिश भी की पर अब्बू ने साफ़ इनकार कर दिया. ‘’बरखुरदार, हम गवैये हैं कोई भिखमंगे नहीं ‘’और पड़े रहे बिना दवाई के वही रूखा सूखा खाकर.

अब ना वो खानदानी हुनर बचा ना पेशा, वो भी उनके साथ उनकी ही तरह आख़िरी साँसें गिन रहा था. औलादें सब अपनी नौकरियों, बीवी बच्चों की खिदमत दारी में लग गए. यूँ भी उनके नए नए व्यवसाय थे सो ज्यादा बरक्कत भी नहीं थी और फिर खैरख्वाह का ताल्लुक तो जेहनी इज्ज़त और आँखों की शर्म से होता है जब वो अहसास ही नहीं तो कैसा सुख?बुजुर्गों की तीमारदारी के लिए ना वक़्त था किसी के पास और ना पैसा.

‘’गालिबन, इलाज ढंग का हो गया होता तो कुछ बरस और जी जाते अब्बू .’’छुट्टन मियाँ अफ़सोस मनाते ’’पर क्या करते जीकर? हम जी तो रहे हैं ना जीने में ना मरने में. खुदा का शुक्र है कि अब्बू बुजुर्गियत और इस खानदानी हुनर की फजीहत देखने से पहले अल्ला मियाँ को प्यारे हो गए.’’छुट्टन मियां की आँखें ज़ल्दी ज़ल्दी झपकने लगीं .उन के भीतर फिर कुछ उलटने –पुलटने या पिघलने सा लगा.
छुट्टन मियां ने एक और बार उठकर गला तर किया. अफसोस और नींद की कम्बखत ज़नम की दुश्मनी है. जैसे ही अफ़सोस आते हैं ज़ेहन में, नींद एक गुस्सैल पंछी सी जाकर रात के पहाड पर बैठ जाती है यादों ने फिर घेरा बंदी शुरू कर दी ,वो जकड़ते गए उसमे .छुट्टन उस्ताद फिर बैठ गए उकडूं पलंग पर.
यूँ तो अब्बू के साथ वो देश भर में बड़े शास्त्रीय संगीत के प्रोग्रामों में जाते थे लेकिन ग्वालियर का तानसेन संगीत समारोह जो उस दौर का सबसे बड़ा संगीत का प्रोग्राम माना जाता था में अब्बू के साथ दो दफे जाना कुछ अलग था.

अब्बू की बगल में बैठ कर सुर मंडल के तारों को छेड़ते हुए उन्होंने भी राग दरबारी कान्हड़ा गाने में साथ दिया था बड़े उस्ताद साब का. तालियों की गडगडाहट अभी तक दिमाग में ज्यूँ की त्यूं हिलोरती है. छुट्टन मियां की फीकी आँखों में चमक आ गई.’दूसरे दिन ग्वालियर के अखबार में उनकी और अब्बू की तस्वीर छपी थी गाते हुए. खबर भी थी ‘’देश के सुप्रसिद्ध शास्त्रीय संगीत के गायक लखनऊ घराने के उस्ताद अमानुल्ला खान का तानसेन संगीत समारोह में बेहतरीन प्रदर्शन. उनके बेटे उस्ताद हमीदुल्ला खान की शानदार शिरकत.’’
छुट्टन मियाँ के इकहरे शरीर में फुरफुरी सी दौड गयी. उनके खंडहर जैसे चेहरे पर फिर पुरानी यादों की मोमबत्ती टिमटिमाने लगी.

वो पैर लटका कर बैठ गए चारपाई पर. कुतिया फिर निकल आई खाट के नीचे से और उनके पैरों पर लोटने लगी. छुट्टन मियाँ मुस्कुराने लगे. लटपटाते शब्दों और कांपती आवाज़ में बोले...
’’मोहतरमा देखा होता वो जश्न आपने भी मज़ा आ जाता बस, लोग बाग खड़े हो-होकर तालियाँ पीट रहे थे जब हमने दो सप्तक की ज़ोरदार गमक की तान खेंची .जानती हो अब्बू ने पलटकर वहीं शाबाशी दी थी हमें ...’’
कुतिया यूँ ही देखती रही उनकी तरफ कुछ देर, फिर पूंछ को अकड़ाकर उसने जम्हाई ली और धीरे धीरे आंगन के दूसरे कोने में जाकर पैरों में मुहं देकर बैठ गई. छुट्टन मियां दुबारा लेट गए पलंग पर थकान सी हो गयी थी उन्हें.

‘’चलना फिरना तो दूर की बात कम्बखत ज़रा ख्वाब भर देख लें तो साँस फूल जाती है ‘’वो भीतर ही भीतर बडबडाये उन्होंने आँखें मींच लीं.यादों का हुजूम फिर बह निकला. तहखाने का सहन तालीम का कमरा हुआ करता था.,जिसमे अब घर में इस्तेमाल ना होने वाली बेकार चीज़ें भरी हुई हैं. यादें ताज़ा करने की मंशा से उस दिन सालों बाद छुट्टन मियाँ जब बेटे सलीम का हाथ पकडकर सहन में जा रहे थे तहखाने की पांच सीढियां उतरते हुए तो लग रहा था जैसे सैंकडों वर्षों से सीढियां उतर रहे हैं खत्म ही नहीं हो रहीं !

छुट्टन मियां जब पहले पहल बाप बने और बड़े उस्ताद जी दादा मियाँ तो हवेली मानों जश्न में डूब गई  मिरासिने आई लखनऊ के अमीनाबाद के ज़नाना पार्क के करीब से. खूब नाच गाना इनाम इकराम हुआ.

दूसरे दिन संगीत की महफ़िल जमी. अख्तरी बाई फैजा बादी (बेगम अख्तर) की ठुमरी ‘’मैंने लाखों के बोल सहे सितमगर तेरे लिए ‘’और बड़े उस्ताद साब के जिगरी दोस्त उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई के राग पूरिया धनाश्री ने समा बाँध दिया. मेहमानों की फरमाइश पर ‘’दिल का खिलौना हाय टूट गया ‘’जब खान साब ने अपनी जादुई उँगलियों से बजाया तो महफ़िल वाह वाह से गूँज उठी. शानदार जश्न था ...पूरा शहर माशाल्लाह जमा हो गया था जैसे. खाना पीना, संगीत की महफ़िल, हंसी ठिठोली, किस्से बतौले छुट्टन मियाँ की ऑंखें फिर सपनों से भरने लगीं. हलाकि बड़े उस्ताद साब उस जश्न के वक़्त तक काफी कमज़ोर हो गए थे दिखना सुनना भी कम हो गया था, पर उन्होंने मेहमानों से खुश होकर कहा ‘था ’खानदान का एक और फनकार पैदा हो गया है.

अचानक छुट्टन मियां की देह में फुर्ती सी आ गयी. छुट्टन मियाँ गुनगुनाने लगे ...होठों पर बिलखते गीत यादों की बाड़ तोड़कर बह निकले ‘’फूलना की सेज करो सखी सब काज धरो  .....’’
‘’अरे, आधा दिन गुजर गया आप अभी तक धूप में ही पड़े हैं ?अचानक जैसे हरहराती नदी के ऊपर बना पुल टूट गया हो और राहगीर डुब्ब से .....ये. सलीम था ...छुट्टन मियाँ का जवान बेटा.
’’अब इस कदर दीवाने ना होइए अब्बू कि धूप छाँव का मतलब ही भूल जाइएगा बडबडाते अलग रहते हो. ’’उस ने उलाहते हुए कहा. छुट्टन उस्ताद हडबडाकर उठ बैठे.
सलीम ने खाट को धूप में से सरकाते नीम के पेड़ की छांह में करते व खीझते हुए कहा ,’’कहाँ खो जाते हो आजकल अब्बू?ये नई बीमारी हो गई है आपको या किसी रूह का साया है बदन पे ?’’
’’नहीं खोये नहीं थे ‘’’छुट्टन मियां ने अस्पष्ट आवाज़ में कहा ‘’बस ज़रा दूर तलक निकल गए थे ’’
सलीम ने सुना नहीं वो चला गया. छुट्टन मियां खाट पर लेटे-लेटे नीम के झुरमुट में से चमकीले आसमान की परतों को खोद खोद कर फिर आवाजें ढूढने लगे जो अभी अभी वक़्त के शोर में गुम हो गई थीं.

(वन्दना शुक्ल के प्रकाशित हो रहे कहानी - संग्रह ''उड़ानों के सारांश में शामिल )
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  1. सशक्त कहानी . वंदना इस कहानी का वातावरण एक पुकार की तरह पाठक को अपने भीतर ले जाता है .आपको बधाई .

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  2. बीते जमाने की स्‍मृतियों को संवेदनशील स्‍पर्श के साथ सहेजती मार्मिक कहानी 'आवाज' एक बुजुर्ग कलाकार के गहरे अहसास से रूबरू कराती है। इस खूबसूरत बयानगी के लिए वन्‍दना जी को बधाई।

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  3. वंदना जी की कहानी अपने अलग वक़्त और माहौल में ले जाती है। बेहद मर्मस्पर्शी।

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  4. नूतन डिमरी गैरोला23 जन॰ 2013, 7:54:00 pm

    बहुत सुन्दर कहानी... वृद्ध हो चले एक संगीत के कलाकार की,शास्त्रीय संगीत की महफिलों की छटा, पुराना लखनऊ, पुरानी यादों में, और वो आवाजें जो आज के शोर में गुम हो गयी हैं .. जिन्हें नाज था अपनी आवाज पर अपनी उस्तादी पर उनकी आवाज खो चली है और उन्हें सुनने वाले भी नहीं .. ... बहुत कसक लिए हुए

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  5. एक भिन्न परिवेश और भिन्न स्वर की कहानी | अच्छा लगता है , जब कोई रचनाकार ऐसे अनछूए और सार्थक विषयों को अपनी कविता या कहानी में ढालता है | मुझे यह प्रयास अच्छा लगा | बधाई आपको |

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  6. वंदनाजी आपकी पहली कहानी पढी है...इसे कई बार पढने के के बाद दो शब्द कह पाऊंगा...विलंबित में जीता विलंबित में मर पाऊंगा..
    ji vandanaji hum sahaj bhaavak hai....hum pr hr cheej ka prabhav padta hai...jaise dharti pr baadalon ki chhaaya girati hai...aapki kahaani itnee achhootee cheejon ...jaghon ...drishyon me itne kamaal se ...apne maahol me le jaati hai ki...hame vah durlabh shabd milta hai ....akelaapan .
    bahut achhi kahaani ...is trh ki rachnaao pr mere jaisa vyakti dooba hi rahnaa chahega .

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  7. ज्योत्स्ना पाण्डेय24 जन॰ 2013, 7:21:00 pm

    भावनाओं के आरोह-अवरोह , न जाने कौन सी ताल में लय बद्ध यह जीवन राग....... अलग सी कहानी ..... कहानीकारा और प्रस्तुतकर्ता दोनों को ही बधाई, व शुभकामनाएँ.....

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