सहजि सहजि गुन रमैं : मनोज छाबड़ा













मनोज छाबड़ा कलाओं के साझे घर के नागरिक हैं. कविताएँ लिखते हैं. पेंटिग बनाते हैं. हजारों की संख्या में उनके बनाए कार्टून पत्र- पत्रिकाओं में बिखरे पड़े हैं. हिसार,हरियाणा से सांध्य दैनिक 'नभछोर' के साहित्यिक पृष्ठ 'क्षितिज' का संपादन करते रहे हैं. एक काव्य-संग्रह 'अभी शेष हैं इन्द्रधनुष' वाणी प्रकाशन से (२००८ में) प्रकाशित है.
मनोज की इन कविताओं में उनका विकास और विश्वास साफ देखा जा सकता है. कविताओं के साथ रेखांकन भी आपके लिए..

_________________________

















संजौली

१.

सस्ते दामों और
महंगाई के तीखे आरोपों के बीच
संजौली में
ये चुनाव के दिन हैं
इन दिनों
बहुत फुसफुसाते हैं यहाँ के लोग
पार्टी छोड़ चुके नेताओं की
ताक़त तौलते हैं
अपनी निराशाओं की वज़ह ढूंढते
बहस करते
आखिरकार
सरकार को जिम्मेवार  ठहराते  हैं
और तसल्ली देते हैं खुदको
कि हम तो जी ही लेंगे उसी तरह
जीते आ रहे हैं जैसे बरसों से
इन मुश्किल पहाड़ों में

अक्टूबर के अंत की ठंडी रातों में
सब कुछ वैसा ही है  संजौली में
जैसा बरसों से था
एकाएक बन गए हज़ारों फ्लैटों से
चिंतित जरूर हैं यहाँ के लोग
पर सांत्वना देते हैं खुद को
कि चलो!
बच्चों के रोज़गार के अवसर तो बढ़े



२.

अब शिमला में नहीं बची जगह  कहीं
तो  संजौली ही सही
सर्पीली सड़कें
करवट लिए औंधी पडी हैं
और पर्यटकों की गाड़ियां
संजौली के कमर रौंद रही हैं

सिसकती संजौली का सारा जल
पर्यटकों के हिस्से आ जाता है
और
ठिठुराती सर्दी में
संजौली के बच्चे
अपने सूखे गलों को सहलाते रहते हैं

दो-चार रोज़ के मेहमान
अपनी जेबों में सिक्के खनखनाते रहते हैं
और
किसी अनुभवी-पुराने आदमी को तलाशकर
फ्लैट्स के दाम पूछते हैं
वे ये भी जानना चाहते हैं
कि कैसे
सेब के बागों में हिस्सेदारी मिल सकती है

पहाड़ का अनुभवी बूढ़ा
खूब हँसता है भीतर
और
उन पहाड़ों की ओर इशारा करता है
जिसे खनकते सिक्के वाली आखें
नहीं देख पाती
अचानक
खनकते सिक्के सूखे चमड़े में बदल जाते हैं

उधर संजौली
आने वाले नए पर्यटकों के लिए कमर कसती है


३.

संजौली से लौट रहा हूँ
पहाड़ को अपने भीतर लिए
तमाम लोगों के साथ
मैं भी उसी संघर्ष से गुज़र रहा हूँ
जहां दो बोरियां लादे
पहाड़ पर चढ़ रहा था कोई
चेहरे की झुर्रियों के खिलाफ लड़ते हुए
समय से पहले पहुँचने की कोशिश में

हालांकि
समय से पहले पहुँचने पर भी
गालियाँ सुननी होंगी
डेरी से पहुँचने और
ग्राहकों के खाली लौटने के नाम की
इसके एवज़ में
मज़दूरी में कटौती आसान होती है

मज़दूरी देने वाले  हाथ
पूरी  दुनिया में एक समान हिंसक होते हैं
मैं जानता  हूँ

मज़दूरी मांगने वाले हाथ
जानते हैं पहले से ही
कि
मज़दूरी का कटान
मालिक के बच्चे का झुनझुना बन कर खनकेगा

अक्सर अमीर बच्चों के खिलौने
मज़दूर-बच्चों के रोटी से निकलते हैं
और भूख से बिलखते बच्चे की
बेबस मां की आँखों में जाकर चुभ जाते हैं

इसे दुःख में
पहाड़ स्खलित हो जाते हैं कई बार
और बड़ी-बड़ी इमारतें
गिर जाती हैं पत्थरों की मार से

इन्हीं पत्थरों को उठाते
सड़क को फिर से संवारते
पहाड़ के लोगों की 
एक और पीढ़ी पल जाती है
लेकिन पहाड़ कुछ और नंगे हो जाते हैं

दरख़्त कटते हैं
और मैदान के अमीरों का सपना
पहाड़ के वक्ष पर
बहुमंजिली इमारत की शक्ल में
सांस लेने लगता है

मैं संजौली से लौट रहा हूँ
मेरे भीतर उगे पहाड़ पीछे छूटने लगे हैं
मैदान पर लौट तो आया हूँ
कुछ  अनगढ़ पत्थर
अब भी चिपके हैं मेरे अंतस में



हस्ताक्षर

अभी भी मेरे पास है
वढेरा आर्ट गैलरी की किताब वह
जो खरीदी थी
दरियागंज के फुटपाथ से
इस बात से अनजान
कि
हुसैन के दस्तखत छिपे हैं उसमे
वहाँ घोड़े नहीं हैं
नहीं है मदर टेरेसा
हुसैन के घुमावदार हस्ताक्षरों को समझा जब मैं
मेरे भीतर एक घोडा टप-टप करता हुआ
दौड़ गया
बड़ी कूची से रंग गया एक कैनवास
भीतर के काले बच्चे के बालों को
मदर टेरेसा के झुर्रीदार हाथ सहला गए

बाद में सोचा कई बार
एक रोज़
बेच डालूँगा
इस  पुस्तक को किसी शौक़ीन अमीर के हाथ
मोटी रकम ऐंठ कर
अपनी ज़रूरतों पर हुसैन की चादर तानूंगा
रोज़ ढूंढता अखबार में
हुसैन की तस्वीरों की कीमत
और
करोड़ के शून्य गिनते-गिनते
दरियागंज से बहुत सस्ती खरीदी गई
उस किताब को उठाता
हस्ताक्षरों को सहलाता
और
रख लेता
भविष्य के तंग दिनों की खातिर...





आकाश के विश्वास में

आकाश के विश्वास में
करोड़ों स्त्रियाँ बदलती हैं अपने वस्त्र -
खुले में
और
ढेरों इंद्र झांकते हैं
अपनी-अपने खिड़की खोलकर
आकाश से

ओ देवताओ !
जनता छली जाती है हमेशा
तुम पर ढेरों विश्वास करके
देखो !
कितनी भारी भीड़ जुटी है
तुम्हारे दरवाजों पर
इन पीड़ितों के पास
कुछ नहीं है तुम्हारी आशा के सिवाय

तुम्हारे छहों-आठों हाथ
तलवार-हथियार से होते हैं लैस
और
भूमि-दलालों के हाथ बिके ये हथियार
ग़रीब जनता के पीठ पर पड़ते हैं

मैंने
अपने मंदिर से
तुम्हें
निष्कासन की दे दी है सजा




ईश्वर की गोद में


ईश्वर की गोद में बैठी
अबोध बच्चियां
पूछती हैं ईश्वर  से
कहाँ गए वे सारे लड़के
जिनके हाथ में थे
हमारे गुड्डियों को ब्याहने वाले गुड्डे
छुपन-छिपाई का यह कैसा खेल है ईश्वर !
कि
छिपे हैं वे ऐसे
कि निकले ही नहीं


चुप है ईश्वर
कैसे कहे
कि सभी लड़के
पृथ्वी पर औरतों के पेट में जा छिपे हैं
बहुत मांग है उनकी वहाँ
ईश्वर कहता है-
अभी कई माह छिपे रहेंगे लड़के
और
थाली बजने की आवाज़ के साथ प्रकट होंगे

ईश्वर
बच्चियों के सर सहलाता है -
कहता है -
इन लड़कों की कलाइयां
ढूंढेंगी तुम्हारे हाथ
और
निराश होकर लटक जायेंगी

अचानक
इनके सपनों से
सभी स्त्रियाँ गुम हो जायेंगी
मेरी बच्चियो !

तब तक
तुम रहोगी
यहीं स्वर्गलोक में 

उस समय तक
पुरुष बन चुके बालक
अपने गुड्डे लिए
भटकते रहेंगे गुड्डियों की तलाश में

एक रोज़
जब पृथ्वी घोर संकट में होगी
तुम जाओगी
और
उदास आँगन लीप दोगी पृथ्वी का
और सारा संकट हर लोगी

तुम्हारे  दिन लौटेंगे
ज़रूर लौटेंगे एक दिन
दिन तुम्हारे.


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  1. मनोज जी की सभी कवितायेँ बेहद पसंद आई इन्हें पहली बार पढ़ा, आकाश के विश्वास में और हस्ताक्षर कवितायेँ बेहद पसंद आई ......इन्हें पढवाने के लिए शुक्रिया अरुण जी। बधाई मनोज जी और समालोचन .......

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  2. मनोज जी ..फेस बुक पर मेरी पसंदीदा दोस्तों में से एक है ...उस इन्द्रधनुषी ब्रश के साथ उनकी कलम में भी प्रकृति के राग /रंग और इंसानी जज्बातों का जखीरा है ये मैं जनता था ....बहुत बहुत शुभ कामनाएं मनोज भाई को ....सही में मजूरी मांगने वाले हाथ जानते है पहले से है की मजूरी का कटान मालिक के बच्चे का झुनझुना बनेगा ....ये ही मर्म है उनकी इंसानी जज्बातों को समझने में उनकी कलम का सोच !!!पुनः शुभकामनाएं मनोज भाई !

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  3. ईश्वर की गोद में कविता को आप एक बार नहीं बार-बार पढ़ें और अर्थों की सलवटें उघड़ती जायेंगी.

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  4. मनोज भई की कविताएँ....ज़रूर...पढ़ता हूँ कुछ देर में. फिलवक्त उनको बहुत बहुत बधाई व समालोचन को भी.

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  5. चित्र और शब्दचित्र..सुन्दर संयोजन..

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  6. मेरा हमेशा से मानना रहा है कि अगर एक चित्रकार कविता करता है तो वह केवल कविता भर नहीं कर रहा होता है बल्कि वर्तमान और भविष्य की कविता का रेखाचित्र भी बना रहा होता है. मनोज भई की कविताओं पर कोई टिप्पणी देने के बजाए उनकी कविताओं की कुछ पंक्तियाँ यहाँ रख रहा हूँ और दुनिया की तमाम अच्छी और सच्ची कविताओं को आवाज़ देता हूँ कि वे आएँ और इन पंक्तियों के आईने में अपना चेहरा एक बार फिर से निहारें.

    "मज़दूरी देने वाले हाथ
    पूरी दुनिया में एक समान हिंसक होते हैं,
    मैं जानता हूँ.

    मज़दूरी माँगने वाले हाथ
    जानते हैं पहले से ही
    कि
    मज़दूरी का कटान
    मालिक के बच्चे का झुझुना बन के खनकेगा"

    "हुसैन के घुमावदार हस्ताक्षरों को समझा जब मैं
    मेरे भीतर एक घोड़ा टप टप करता हुआ
    दौड़ गया'

    "मोटी रकम ऐंठ कर
    अपनी ज़रुरतो पर हुसैन की चादर टांगूगा"

    पंक्तियाँ और भी हैं और ऐसी ही पंक्तियों ने मिलाकर सभी की सभी कविताओं को बेजोड़ बना दिया है. चाहे वह संजौलो सीरीज की कविताएँ और उनमें छिपा पहाड़ों का दर्द हो, चाहे वह कन्या भ्रूण हत्या जैसे विषय को लेकर लिखी गयी कविता 'ईश्वर की गोद में' हो, सब एक से बढ़कर एक, बेजोड़. बहुत बहुत बधाई ऐसी कविताओं के रचियता को, बहुत बहुत शुक्रिया समालोचन इस चित्रकार, कवि, पत्रकार आदि-आदि की इतनी बेजोड़ कविताएँ पढ़वाने के लिए.

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  7. सभी कविताएँ अच्छी हैं . आकाश के विश्वास में कविता ख़ास अच्छी लगी .थोड़ी आस्था तो जगाती है कि कुछ नहीं के आकाश में पृथ्वी के दिन लौटें ..

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  8. इन कवितायों को पढ़कर मनोज जी को इसके पहले नहीं पढ़ने का अफसोस हो रहा है ! जिस सहजता से इतनी गम्भीर बातें की गयी हैं ,काबिले तारीफ है ! सभी कि सभी कवितायें पसंद आयीं ! मैं तो यही नहीं समझ पा रहा हूँ कि क्या उद्धृत करूँ क्या नहीं । अब मनोज जी की रचनाओं का इंतेजार रहेगा...

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  9. मनोज की कविताओं से पहले इस कदर मुलाकात नहीं हुई थी... उनके भीतर सच में एक बहुत प्‍यारा कवि रहता है, जिसके पास चीजों को देखने की अपनी अलग ही दृष्टि है। इन कविताओं को पढ़कर मन बहुत आश्‍वस्‍त हुआ कि सच्‍ची कविता लिखने वाले कभी कम नहीं होते.. धन्‍यवाद समालोचन का और शुभकामनाएं मनोज के लिए...

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  10. मनोज भाई की कविताएं उनके संग्रह में पढ़ी थी...यहां की कविताएं भी बहुत अच्छी हैं। मनोज एक बहुत अच्छे व्यंग्य चित्रकार तो हैं ही एक संजीदा कवि भी हैं.... उन्हें ढेरों बधाइयां.....

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  11. मनोज मेरे भी प्रिय रहे हैं ....कभी एक दोस्त ने कहा था -- ''जो अपने समय के कन्फलिक्ट्स को या परस्पर विरोधी टकराहटों को नहीं देख पाता , उसे ह्यूमर की समझ नहीं होती।'' मुझे भी लगता है कि कविता, कहानी, आलोचना या कार्टून ..बिना इस व्यंजना के संभव ही नहीं हो सकते। उनके कार्टूनों का प्रशंसक था, अब कवितायेँ ध्यान से पढ़नी हैं।

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  12. ये वैसी कवितायेँ हैं जैसी असल में कविताओं को होना चाहिए-मन में उतर जाने वाली .

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  13. भई, वाह. सभी कविताएं अपनी सहजता में अर्थ-गर्भित हैं. "हस्ताक्षर", "आकाश के विश्वास में", तथा "संजौली" से जुडी तीनों कविताएं, उसी क्रम में बेहद अच्छी लगीं. बहुत-बहुत बधाई, मनोज को.

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  14. बहुत ही उम्दा लिखे अपने ... जितना अच्छा आप कार्टून बनाते है उतना ही अच्छी आप लिखते है ... ! हमे तो हमेसा ही ऐसी लेख पसंद है जो वास्तविकता से प्रेरित हो ... ! जय हो ... ! :)

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  15. मनोज छाबड़ा एक संवेदनशील कवि हैं। वे सृजनशीलता की भूमि होने तक सह्रदय हैं। संजौली कविता में शिमला के पास के इस छोटे से पहाड़ी कस्बे को कवि उसकी फुसफुसाहटों में सुन और गुन रहा है।बिम्ब के अनुरूप गति और विषयानुकूल भाषा इस कविता की सहजता और शक्ति है। वहां के लोगों के जीवन में निराशा और चिंताएं हैं, पहाड़ और उसका सौन्दर्य तो जैसे सिर्फ सैलानियों के लिए ही हैं जिन्हें उनके आंसू भरे चेहरे नहीं दीखते जो उनका सामान ढो रहे होते हैं। वहां फ्लैट्स भी उग आये हैं जो उन्हें चिंतित भी करते हैं और बच्चो के लिए रोजगार के अवसर की उम्मीद जगाते हैं। बच्चों के लिए मजदूरी के सपने ही देखना जैसे उनका लिखित भविष्य हो।वे अपनी ही जमीन पर सर्वहारा बने रहने को अभिशप्त हैं। यहाँ कवि एक चितेरा है जो अपने सीने में पहाड़ के टुकड़े लेकर लौटता है लेकिन आगे की कविताओं में उसका आक्रोश प्रगट होता है। आकाश के विश्वास में, ईश्वर की गोद में और हस्ताक्षर में कवि क़ा विप्लवी मन फूट पड़ता है। हस्ताक्षर में तो वह जैसे अपना वजन तौलता है और आकाश के विश्वास में अपना कंठ खोलता है और ईश्वर की गोद में सत्य की प्रतिस्थापना। मुझे इन कविताओं ने प्रभावित किया। मौका मिला तो मैं और बारीकी से इनमें अवगाहन करना चाहूँगा। धन्यवाद! डॉ अनुपम

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  16. मनोज की कविताएं पहली बार पढ़ने का मौका मिला. बहुत साफ, सरल और सीधी कविताएं हैं. उनमें अर्थ की एक गूंज है. बाहरी तोड़-फोड़ के प्रति कसक है, भावुक उछाह नहीं जिम्‍मेदारी के साथ. ऐसी कविताएं लिखना आसान नहीं. रेखांकनों की जुगलबंदी कविता को और विस्‍तार देती है. बधाई मनोज और समालोचन.

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  17. manoj ji ke chiron ki prshansak rahi hoon .. kvitayen bhi yada kada padhi hain lekin itni saari kvitayen ek saath padh kar achha laga.. pahad ke jeevan ko paryatak kis prkaar prbhavit karte hain.. yah bhav apni sampoorn vedna ke saath sampreshit hota hai. 1,2, 3 kvtaon ne man ko chhua.. dheron shubhkamnaayen..

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  18. मनोज भैय्या की कविताओं की उजास ने हमेशा ही उत्सुक किया है मुझे !

    प्रस्तुत कविताओं ने तो उनके जादू का दीवाना किया!

    अभी अभी पूजे गए कोहबर की सी पवित्र कवितायें!

    (अमित आनंद )

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  19. मुझे मनोज जी की कविताऍं अच्‍छी लगी हैं। बधाई उन्‍हें।

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  20. मनोज जी, जितनी गंभीरता से आपने बेचैनियां ज़ाहिर की हैं...उतनी ही सहजता से उम्मीद का ज़िक़्र किया है.....इतनी अच्छी कविताएं पढ़वाने का शुक़्रिया और आपको हृदय से शुभकामनाएं।

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  21. यह नाचीज़ मनोज भाई के कवि रूप से पहली बार रूबरू हुआ , जबकि आपका काव्य संग्रह 2008 में ही चुका है ! अभी तक तो मैं इनके कार्टून का ही मुरीद था और अब इनकी कविताओं का भी ! कविताएँ बहुत बढ़िया है ! इन्हें पढ़वाने के लिए समालोचन का आभार और मनोज भाई को बधाई !

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  22. प्रिय मनोज / 'समालोचन' में आयीं तुम्हारी सभी कविताएँ बहुत अच्छी लगीं| संजोली के चित्रांकन भी| ये कविताएँ हमें फिलवक्त के विमर्शों से रूबरू करती हैं| मेरा हार्दिक साधुवाद स्वीकारो!

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  23. बहुत ही सुंदर..पहली बार आपकी कविताओं को पढ़ा..बहुत गहरी अनुभूति हुई..आपको हार्दिक शुभकामनाएँ..

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