परख : मद्रास कैफे : सारंग उपाध्याय











सारंग उपाध्‍याय  कवि – कथाकार के साथ एक संवेदनशील फ़िल्म समीक्षक भी हैं. शूजीत सरकार की फ़िल्म म्रदास कैफे की यह समीक्षा इस  फ़िल्म के प्रति रूचि पैदा करती है. सृजनात्मक भाषा में कलाओं पर लिखने वाले रचनाकारों की प्रतीक्षा हिंदी को हमेशा से रही है. युवाओं का इस तरफ रुझान सुखद है.    


मद्रास  कैफे :: यह फिल्‍म अतीत के कालखंड का जीवंत चित्रण है   

सारंग उपाध्‍याय 

शूजीत सरकार निर्देशक के रूप में स्‍थतियों, घटनाओं और प्रसंगों के बीच गुजरते जीवन के अद्भुत चितेरे हैंउनकी निर्देशन कला का यह चितेरापन ही उनकी फिल्‍म म्रदास कैफे से किसी गंभीर राजनीतिक कविता की तरह बाहर आता है. यह एक बेहतरीन राजनीतिक कविता है जिसे हर नागरिक को देखना और सुनना चाहिए.

मद्रास कैफे" दक्षिण भारत सहित श्रीलंकाई अतीत के राजनीतिक रूप से अशांत, अस्‍थिर, जलते और गृहयुद्ध की विभीषिका में उलझे कालखंड के दृश्‍यों का मौन, लेकिन जीवंत चित्रण है. फिल्‍म के भीतर यह चित्रण डाक्‍युमेन्‍टेशन के रूप में है, जो किसी समीक्षक की आंखों में फंस सकता है, पर यही निर्देशक की कला है जो फिल्‍म की कमजोरी नहीं, बल्‍कि घटनाओं की सतह के भीतर बह रही धारा का गंभीर अध्‍ययन और फिल्‍मांकन है.

यह निर्देशक का कमाल है कि फिल्‍म की अपनी कोई पटकथा या कहानी नहीं है, बल्‍कि जो कुछ है दृश्‍यों की जीवंतता है. हालांकि एक चर्च में अपने अंदर के उबाल को ऊंडेलने जा रहे एक थके, शराब पिए हुए व्‍यक्‍ति की फादर से सपाट, सीधी बयानबाजी भरी बातें, फिल्‍म के शुरूआती दृश्‍य के प्रति मन में एक थकाऊ ऊब पैदा करती है, लेकिन उसके बाद कम संवादों के बीच निर्देशक निर्देशन कला का ब्रश चलाता है और उसमें रंग भरना शुरू करता है. दिखाई देते हैं बैग्राउंड में चल रहे गंभीर से नरेटिव वॉइस ओवर के बीच घायल, खून से लतपथ बच्‍चों, बूढों और महिलाओं के विभत्‍स दृश्‍य, कई अधकटी, जली लाशों और करूण वेदना से ग्रस्‍त सैंकडों मासूम व लाचार चेहरे, जो अपनी कहानी स्‍वयं रचना शुरू करते हैं. ऐसी कहानी जिसका सीधा संबंध इस देश के राजनीतिक इतिहास से जुडता है. इन्‍हीं दृश्‍यों से शूजीत दर्शक को कहानी का वह सिरा पकडाते हैं जिसके लिए संवदेनशीलता और संजीदगी चाहिए और वाकई में दृश्‍य अपना काम खुद करते हैं. वह फिल्‍म देखते हुए हमें संवेदनशील भी बनाते हैं और गंभीरता के साथ संजीदगी भी प्रदान करते हैं, फिर हम उस डोर को थामे रहते हैं जिसे थामकर निर्देशक फिल्‍म बना रहा है और आगे बढा रहा है

जल्‍द ही दर्शक भी समझ जाता है कि यह एक कहानी नहीं है, बल्‍कि एक देश का ऐतिहासिक, राजनीतिक घटनाक्रम है जो अपने बारीक से बारीक सच के साथ पर्दे पर आकार ले रहा है.

गौर करने वाली बात है कि शूजीत सरकार की यह फिल्‍म केवल श्रीलंका और भारत से जुडी एक गंभीर समस्‍या को महज कुछ मुसलसल घटनाओं की तस्‍वीरों से ही हमारी ऑंखों के सामने रखती नहीं चलती, बल्‍कि इस समस्‍या को लेकर लिजलिजी सूचनाओं के जाले भी साफ करती है. मेरे जैसे लोगों को इसके पीछे छिपी ऊंची-नीची, टेढी-मेढी कुछ गणितीय गणनाओं से भी अवगत करा देती है, जिसे जानना फिल्‍म के अंतिम दृश्‍य तक हैरान कर देता है. इस रूप में भी कि राजनीति में एक बडे नेता की क्‍या जरूरत होती है और एक देश के प्रधानमंत्री की हत्‍या देश के राजनीतिक परिदृश्‍य में कितना बडा शून्‍य होती है?
बहरहाल, मद्रास कैफे में वेल्‍लुपिल्‍लई प्रभाकरन और लिब्रेशन टाइगर ऑफ तमिल ईलम, ये दोनों ही नाम लाख खुदको छिपाने के बाद अपने समग्र परिवेश के साथ प्रतीक रूप में हमें वहीं ले जाकर छोडते हैं जहॉं हमें होना चाहिए.

श्रीलंका के भीतर की वास्‍तविक स्‍थितियों, उसमें पल-पल घटते घटनाचक्रों, उसमें जीने वाले किरदारों का शानदार चित्रण करती इस फिल्‍म का फिल्‍मांकन बेहद उम्‍दा किस्‍म का है. देश के राजनीतिक इतिहास की एक बडी दुर्घटना के घटने से पहले, उसे रोकने के प्रयासों के बीच का शानदार संतुलन, इसके तकनीकी रूप से कुशल और संतुलित फिल्‍मांकन का ही नतीजा हैइसमें दिखाया गया देश की खुफिया ऐजेंसी रॉ के काम करने का तकनीकी और प्रोफेशनल ढंग किसी टाइगरी ढंग से बेहद संजीदा, गंभीर और शानदार है व बहुत कुछ समझाता सिखाता है, कि काम कैसे होता है. बेहतरीन संपादन फिल्‍म को नदी की तरह बिना रूके बहाता ले चलता है. पलक झपकने के लिए भी इससे अलग नहीं करता.

कलाकार के रूप में जॉन अब्राहम के साथ सभी कलाकारों के चेहरे फिल्‍म की सफलता है. विशेष रूप से रॉ के अधिकारियों के बीच बाला जैसा आदमी और उसके बोलने का ढंग, हमें जीवन के यथार्थ का नया पृष्‍ठ हाथ में पढने के लिए देता है.

शूजीत सरकार ने कश्‍मीर को लेकर बनाई गई अपनी पहली फिल्‍म यहां के बाद दूसरी फिल्‍म विकी डोनर
बनाई थी. यहां कश्‍मीर जैसे संवेदनशील व ज्‍वलंत विषय को पर्दे पर बुनने का नया प्रयास था, तो वहीं दूसरी फिल्‍म विकी डोनर सामाजिक जीवन के वृहद और विस्‍तृत प्‍लेटफार्म पर दाम्‍पत्‍य जीवन में संतानविहीन होने के खालीपन का रोचक, सहज किंत संवेदनशील चित्रण था. विकी डोनर संतान के जन्‍म को अध्‍यात्‍मिक चक्र का हिस्‍सा ज्‍यादा मानने वाले भारतीय दर्शकों के मानस को शरीर संरचना की निर्दोष शिक्षा देती है.

इधर, मद्रास कैफे शूजीत की तीसरी फिल्‍म है, जो इस देश के राजनीतिक रक्‍तरंजित अतीत की एक घटना है, जिसका ट्रीटमेंट उन्‍होंने बेहद इंटेसिटी के साथ किया है. कुछ ऐसा कि आप एक रोचक किस्‍से को सुनने वाले बच्‍चे की तरह एक राजनीतिक रूप से आकार ले चुकी घटना का रोचक फ्लैशबैक उतरता हुआ देख रहे हों.

यह शूजीत का आग्रह है, निर्देशक का आदेश है कि इसे आपको देखना है, फिल्‍म के रूप में नहीं, आपके देश के प्रधानमंत्री की हत्‍या में हुई एक सुरक्षात्‍मक भूल के रूप में. ऊफ! इतनी बडी गलती कैसे हो गई? सारा तंत्र, खफिया ऐजेंसियां अधिकारी और त्‍वरित निर्णय लेने वाली तमाम बुद्धियां मानों फिल्‍म में सतह पर घूमती, दौडती, भागती, बहस और जिरह करती रह जाती है? उनके फैसले ताक पर रख दिए जाते हैं.
 
यह फिल्‍म इस देश के लोकतंत्र में किसी नेता के अपने लोक से नेह और अपनत्‍व के बीच आई पहली दरार को दर्शाती है. यहीं से जन के नेता का मन जन से छिटकना सीखता है, मृत्‍यु का भय आम को खास से बांट देता है. एक सांसद, प्रधानमंत्री, मंत्री और वीआईपी सब हो जाते हैं, जन नेता नहीं रहते. जनता की भीड में आवारा हत्‍याएं घूमती हैं.
क्‍या देश की राजनीति में वाय और जेड की एबीसीडी वाली अल्‍फाबेट सुरक्षा की परम्‍परा यहीं से शुरू हो रही है? शूजीत तुम परिस्‍थतियों के पहाड से फिसलती सुरक्षा की रक्‍तमयी धारा का स्रोत बता रहे हो.


सच, यह फिल्‍म श्रीलंका के कभी न भूले जाने वाले इतिहास की किताब के अध्‍यायों का, भारत के राजनीतिक अतीत से संबंध उजागर करती एक बेहतरीन फिल्‍म है. मद्धम से बजते बैग्राउंड संगीत के बीच और किसी गाने से कोसो दूर गुरूदेव रवीन्‍द्रनाथ टैगोर की गीतांजलि की कविता व्‍हेयर द माइंड इज विदआउट फीयर की पंक्‍तियों के साथ खत्‍म होती, एक चितेरे की यह दृश्‍यभरी कला, मन में एक राहत भरी बैचनी छोड जाती है.
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सारंग उपाध्याय (January 9, 1984, मध्यमप्रदेश के हरदा जिले से)
विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में संपादन का अनुभव
कविताएँ, कहानी और लेख प्रकाशित 
फिल्‍मों में गहरी रूचि और विभिन्‍न वेबसाइट्स और पोर्टल्‍स  पर फिल्‍मों पर लगातार लेखन.
sonu.upadhyay@gmail.com

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  1. अच्छी समीक्षा है . बधाई सारंग जी को .

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  2. बहुत अच्छी समीक्षा की गयी है। बहुत संवेदनशीलता और गहनता से जिस एक दर्द को समीक्षक ने सबसे बारीकी से पहचाना है- राजनीति में एक बड़े नेता की क्या जरूरत होती है और एक देश के प्रधानमन्त्री की हत्या देश के राजनीतिक परिदृश्य में कितना बड़ा शून्य होती है। क्या इतने पर भी हिंदी जगत के आलोचक नहीं कहेंगे कि राजीव गाँधी एक उसूल के चलते शहीद हुए थे। एक नेता जो अपने लोगों से सिर्फ इसलिए दूरी बनाने को तैयार नहीं हुआ कि उसकी जान को खतरा था।

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  3. उत्‍साह बढाने के लिए शुक्रिया अपर्णाजी...!!

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  4. Excellent Sarang....keep it up........one of the best reviews. I have ever read till date...... Madhukar Panday

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  5. सुधा सिंह2 सित॰ 2013, 7:42:00 pm

    बहुत बेहतरीन समीक्षा लिखी ........फिल्म अभी नहीं देखी पर देखनी है इस समीक्षा को पढने के बाद ........निश्चित खरी उतरेगी ये समीक्षा ......बहुत बधाई सारंग जी को और अरुण जी को ...

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  6. maine tumhara madras cafe ka samiksha padha hai... wakei mein bahut umda likkha hai tumne ... bahut hi barikion se tumne samiksha ki hai... jisne film nahi bhi dekhi hogi, jaise ki main, wo bhi puri film tumhare lekhan k jariye dekh payega .... bahut achha likhe ho tum.. tum to humesha se hi achha likhte ho ismein koi sandeh nahi hai... gud job .. keep it up.. n all d best for ur next critics.. mujhe intezar rahega

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  7. क्रियेटिव समीक्षा जो फिल्म के प्रति दिलचस्पी जगाती है.

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