हस्तक्षेप : मुजफ्फरनगर दंगे : भाषा सिंह

photo : children at loni relief  camp  : Bhasha Singh




























साम्प्रदायिक दंगे समाज के नासूर हैं. इनका समय रहते इलाज न किया जाए तो कैंसर का रूप ले लेते हैं और पूरा समाज सड़ जाता है. दुर्भाग्य से हिंदुस्तान में दंगों का बेरहम सिलसिला चल निकला है, इसके धार्मिक, सामजिक, आर्थिक और राजीनीतिक कारण हैं. साम्प्रदायिकता चाहे बहुमत की हो या अल्पमत की हमेशा एक दूसरे को प्रश्रय देती हैं. राजीनीति और वर्चस्व के इस खूनी खेल में मनुष्यता शर्मसार है.


वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह मुजफ्फरनगर  से अभी अभी लौट कर आयी हैं. वहां की सच्चाई दिल दहला देने वाली है.   


खूनी सियासत के खौफनाक मंजरों के दरम्यान `ख्वाब’                

भाषा सिंह

photo : Khawab with mother : Bhasha Singh

ख्वाब का जन्म ऐसे समय हुआ जब सिर्फ उसके माता-पिता ही नहीं जिस कौम में वह पैदा हुई, उसके ख्वाब बेघर हो गए थे. देश की राजधानी दिल्ली के बिल्कुल सटे उत्तर प्रदेश के लोनी के छोटे से नर्सिंग होम में जब पैदा हुई ख्वाब, तब तक उसके वालिदेन और उनका पुश्तैनी घर जल कर राख हो चुका था, दादी का सरेआम कत्ल हो चुका था, मुजफ्फरनगर से 70 हजार से ज्यादा मुसलमान पलायन कर चुके थे.

उसे जब मैंने देखा तो वह महज एक दिन की थी. मौत के मुंह से बाहर आई उसकी मां सायरा के चेहरे पर उसे देखते हुए जो मुस्कान आई वह लोनी के राहत शिविर में टिके तीन हजार लोगों की पीड़ा पर भारी थी. बीस साल की सायरा बागपत के अपने धनौरा गांव से परिवार के साथ बड़ी मुश्किल से जानबचाकर भागी. अपने से ज्यादा उसे चिंता थी पेट में पल रहे 34 हफ्ते के गर्भ की. इसकी हिफाजत के लिए वह भागते-दौड़ते-मीलों पैदल सफर तय करते हुए जब लोनी पहुंची, तब तक उसके बच्चेदानी की थैली से रिसाव शुरू हो गया था. लोनी के मदरसे में चल रहे राहत शिविर चलाने वालों से उसकी बिगड़ती हालत देख रातों-रात उसे प्राइवेट अस्पताल चौधरी नर्सिंग होम- में भर्ती कराया, जहां डॉक्टरों ने उसका तुरंत ऑपरेशन किया. डॉक्टर ने हंसकर कहा कि चूंकि बेटी थी, इसलिए बच गई...वरना कोई गुंजाइश न थी.... बच्ची का नाम पूछा तो सायरा ने बहुत धीमी आवाज में कहा...अपना नाम ही मुश्किल से याद रह पाया, इसका रखने की मोहलत किसी थी, आप ही कुछ रख दो.... ख्वाबों के टूटने के जिंदा नश्तरों के बीच इस नन्हीं सी जान का दुनिया में आना, ख्वाब ही तो है.... बरबस ही कहा, इसे हम ख्वाब कह सकते हैं...मा सायरा आश्वस्ति में हौले से मुस्कुराई और उसने समर्थन के लिए अपने पति आलम की तरफ देखा. तब तक वह भी ख्वाब की तस्दीक कर चुके थे.

सायरा, आलम, असगर, बिलकिस-उनके पति सोनू या यूं कहें कि लोनी के इस छोटे से नर्सिंग होम में जितने मरीज थे उनमें से कोई भी वापस अपने गांव जाने को तैयार नहीं था. इसी स्वर में लोनी के राशिद अली गेट में जामिया अरेबिया जैनातुल इस्लाम (मदरसे) कैंप में ठुंस-ठुंसकर दिन-रात काट रहे हजारों बेघर एक स्वर में कह रहे थे कि वे किसी भी सूरत में वापस अपने गांव नहीं जाना चाहते.

ऐसी हजारों वारदातें मुजफ्फनगर से लेकर दिल्ली के दरम्यान पसरी हुई हैं. सबके जेहन में एक सवाल कौंध रहा है कि आखिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस इलाके में 10-15 दिन के भीतर क्या हुआ कि 70 हजार के करीब मुसलमान अपना घर-गांव छोड़कर भाग गए. हजारों बद-से-बदतर हालातों में राहत शिविरों में ठूंसे हुए हैं. लोनी, कांदला (ईदगाह कैंप, इस्माइल कॉलोनी, मुस्ताफाबाद कैंप, बिजली घर कैंप), जोला (दंगा पीड़ित राहत शिविर), शामली कैंप, माल्लकपुर, करैना कैंप, लोई कैंप में जाकर जब इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश की तो पूरे इलाके को झुलसाने की लंबे समय से चल रही साजिश बेनकाब हुई. तमाम पीड़ितों ने बताया कि किस तरह से राज्य सरकार की मिलीभगत से पिछले छह-आठ महीने से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल आदि उग्र हिंदू दल तनाव फैलाने, अफवाहें फैलाने, हथियार बांटने में लगे हुए थे. राज्य सरकार-उसके प्रशासन से ये सारी बातें छुपी हुई नहीं थी, फिर भी उसने जिस तरह से माहौल बिगड़ने दिया, अंतिम समय तक कोई सख्त कार्ऱवाई नहीं की, उससे संघ परिवार-भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच शुरुआती साठगांठ की बात में दम दिखाई देता है. जितने बड़े पैमाने में यहां सुनियोजित ढंग से हिंसा फैलाई गई और प्रदेश सरकार द्वारा इसे फैलने दिया गया, ये प्रदेश सरकार की भूमिका पर गहरे सवाल उठाता है. इस इलाके में जो खूनी दरार खींची गई है, वह अभी कितना खून पीएगी, कितने और हलाक होंगे, कितने गांव खाली होंगे, कहां-कहां तक ये नफरत फैलेगी, इसके बारे में सोचकर ही खौफ लगता है. ये आग फैल रही है और मुजफ्फरनगर के पूरे इलाके को जलाने के बाद बागपत, लोनी, मेरठ, गाजियाबाद होते हुए राज्य के बाकी हिस्सों में पहुंच रही है. 

मकसद साफ है, वोटों का ध्रुवीकरण करना. हिंदू वोट, खासकर इस इलाके में जाट वोट अपने पास करने के लिए भाजपा अपने गेम प्लान में सफल होती दीख रही है. वैसे भी उत्तर प्रदेश की धरती सांप्रदायिक तनावों के लिए गरम कर दी गई है. डेढ़ साल के भीतर 100 से भी अधिक छोटे-बड़े सांप्रदायिक तनावों को झेल चुका उत्तर प्रदेश में किसी बड़े ज्वालामुखी की सी तपिश महसूस की जा सकती है. मुजफ्फरनगर की तुलना छोटे गुजरात से होने लगी है. पूरे इलाके में 27 अगस्त और उससे पहले के घटनाक्रम पर नजर दौड़ाने पर तनाव फैलाने का एक ही पैटर्न नजर आता है. एक बात साफ दिखाई देती है कि सात तारीख से फैली हिंसा के लिए मुजफ्फरनगर के कवाल में 27-28 अगस्त को  हुई तीन हत्याओं को सिर्फ जिम्मेदार ठहराना बड़ी भूल होगी. तनाव पहले से बढ़ाया जा रहा था, पिछले आठ-नौ महीने से तलवारें-त्रिशूलें बांटी जा रही थीं, बहू-बेटी के सम्मान पर लामबंदी की जा रही थी, खापों को भगवा रंग में रंगा जा रहा था और प्रशसान या तो मूर्क दर्शक बना हुआ था या उनकी हां में हां कह रहा था. तमाम राहत शिविरों में हजारों की संख्या  यह कहने वाले लोग मिले कि उनकी मदद की पुकारों-फोन कॉलों को पुलिस प्रशासन ने अनसुना कर दिया. अगर सही समय पुलिस आ गई होती तो कई जानें बच सकती थी, घर राख होने से बच सकते थे.

 photo : children at relief  camp  : Bhasha Singh
तमाम दूसरे भीषण सांप्रदायिक हिंसा की वारदातों की तरह मुजफ्फरनगर में भी बड़े पैमाने पर महिलाओं पर यौन हिंसा ढहाई गई है. सैंकड़ों की संख्या में औरतों पर जुल्म ढहाए गए, सामूहिक बलात्कार हुए, स्तन काटने-गाल काटने की घटनाएं बहुत दबे-दबे अंदाज से, फुसफुसाहटों में सामने आना शुरू हुईं. कम उम्र की बच्चियों, किशोरियों और नौजवान लड़कियों के गायब होने की खबर हर राहत शिविर में चर्चा का विषय बनी हुई थी. ऐसे ही एक शिविर में मेरी मुलाकात एक सामूहिक बलात्कार पीड़िता से हुई, जो फुगाना गांव की रहने वाली थी. बुखार में थप रही उस महिला के पूरी बात रोते-रोते बताई, एक भी वाक्य बिना क्रंदन के पूरा नहीं हो रहा था. उसे दुख इस बात का बहुत ज्यादा था कि गांव में उसके जानकारों ने-उसके पड़ोसियों ने, उससे कम उम्र के युवकों ने उसका बलात्कार किया. वह मामले की शिकायत करने को तैयार भी घटना के 12-13 बाद हुई. वजह,सबसे पहले गांव से बेघर हुए इस परिवार को बाकी लोगों के कहीं और ठोर-ठिकाना देखना था. इसके अलावा, उन्हें पुलिसवालों पर रत्ती भर भरोसा नहीं था क्योंकि पुलिस को उन्होंने कहर बरपाने वालों के साथ खड़ा देखा था. सबसे बड़ी बात यह है कि बलात्कार का शिकार अनब्याही लड़कियों के सामने यह खौफ था कि वे कैसे किसी के सामने ऐसी बर्बर वारदात बयां करे, कौन उनकी सुनवाई के लिए-मदद के लिए आगे आएगा, यौन हिंसा की शिकायत के पीड़िता के परिवार को तैयार होना, शादीशुदा महिला के लिए बलात्कार की शिकायत करने में उसके पति-परिवार का तैयार होना एक अहम भूमिका अदा करता है. अब लेकिन धीरे-धीरे ये मामले सामने आ रहे हैं, जिनसे पता चल रहा है कि लिसाड, लाख, फुगना आदि गांवों में सांप्रदायिकता के कहर ने औरत के जिस्म को किस तरह से रौंदा. इसे भी इस इलाके में विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, जनेऊ क्रांति दल, भारतीय जनता पार्टी द्वारा चलाए जा रहे बहू-बेटी बचाओ अभियान से जोड़ कर देखा जा सकता है. पूरे इलाके में यह जहर फैलाया जा रहा था कि चूंकि मुस्लिम लड़के हिंदू लड़कियों को फांस रहे हैं लिहाजा हमें भी उनकी औरतों-लड़कियों की इज्जत से खेलना है. एक साल से इस इलाके में लव जेहाद और बेटी बचाओ बहू लाओ जैसे मुद्दे पर ध्रुवीकरण किया जा रहा था. कई बलात्कार पीड़ित महिलाओं ने बताया कि बलात्कारी बलात्कार करते समय ऐसे नफरत भरे जुमले बोल रहे थे.

समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव, उनके बेटे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और पूरी सरकार इस सारे मामले में भाजपा की तैयारियों के साथ हमकदम दिखाई देती है. हालांकि जिस पैमाने पर मुसलमान प्रभावित हुए है, 70 हजार घर से बेघर हुए हैं, उसने मुलायम को तगड़ा नुकसान पहुंचाया है. यहां तमाम राहत शिविरों में मुलायम अखिलेश के खिलाफ तगड़ा गुस्सा है. राजनीतिक तौर पर अभी इससे बसपा को फायदा होता दिख रहा है और भाजपा ने तो जाट पट्टी का भगवाकरण करने में सफलता हासिल की है.

मुजफ्फरनगर के बाद गाजियाबाद, बहराइच में हुए सांप्रदायिक तनावों को राज्य में पिछले एक साल में हुए सौ के छोटे-बड़े करीब सांप्रदायिक वारदातों की कड़ी में देखा जा रहा है. इस कड़ी में इजाफा होने की आशंका लगातार बनी हुई है. इसमें 17 अगस्त 2013 को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के यहां मुलायम की सरपरस्ती में बाबरी मस्जिद विध्वंस से जुड़े विहिप नेता अशोक सिंघल की बैठक के निहितार्थ समझने जरूरी हैं. एक तरह से इस बैठक में विहिप की (बेसमय) प्रस्तावित 84 कोसी परिक्रमा को राज्य सरकार ने हरी झंडी दी और खतरनाक ध्रुवीकरण का खेल जमीन पर शुरू हो गया. मुजफ्फरनगर में जो हुआ, जिसमें 70 हजार से अधिक मुसलमान बेघर हुआ, पांच से ज्यादा गांवों में मुसलिम बस्ती नेस्तनाबूद कर दी गई, उससे फिलहाल लगता है कि सपा प्रमुख पर संघ का दांव भारी रहा.

मुजफ्फनगर एक छोटा गुजरात दिखाई देता है. जिस तरह से बड़े पैमाने पर गुजरात में 2002 में कत्लेआम किया गया था, जो तौर-तरीके अपनाए गए थे, उसे छोटे पैमाने पर यहां देखा जा सकता है. एक बात और ध्यान देने वाली है कि जिस तरह से उड़ीसा के कंधमाल में गांवों में हिंसा फैलने के बाद इसाई गांवों से पलायन किए थे, कमोबेश वहीं पैटर्न यहां पर भी है. यह आशंका भी तगड़ी है कि मुजफ्फरनगर के जिन 162 गांव से 70 हजार मुसलमानल भागे हैं, अगर वे वापस नहीं गए तो यह सारा इलाका जाट-भाजपा बहुमत का हो जाएगा. इसका सीधा असर यहां के वोटिंग पैटर्न और संपत्ति के प्रभुत्व पर पड़ेगा. कंधमाल का अनुभव यह बताता है कि जब सांप्रदायिक हिंसा गांवों में फैलती है तो वहां से भागने वालों का राजनीतिक-आर्थिक सफाया हो जाता है. ऐसा ही मुजफ्फरनगर में होता दिख रहा है. इस ध्रुवीकरण को और तेज करने और जिंदा रखने की कोशिशें भाजपा कर रही है औऱ इसे रोकने की कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति सपा सरकार में नहीं दिखती. मेरण में 29 सिंतबर को संगीत सोम की गिरफ्तारी के विरोध में जिस तरह से तनाव फैलाने के लिए महापंचायत का आह्वान हुआ और हजारों की संख्या में लोगों को जुटने दिया गया, वह यह बताने के लिए पर्याप्त है कि यह मामला यही रुकने वाला नहीं है. ऊपरी तौर पर शांत दिखने वाले इस इलाके में जबर्दस्त तपिश है. ऊपरी तौर पर स्वतःस्फूर्त दिखने वाली ये वारदातें आपस में गुंथी हुई हैं. हर इलाके में तनाव का तरीका एक ढंग का दिखाई देता है. हथियारों की सहज उपलब्धता और तलवारों, गंडासे आदि का इस्तेमाल एक बड़े नेटवर्क के लंबे समय से इलाके में सक्रिय होने का संकेत दे रहे हैं. भीषण हिंसा से तबाह हुए गांवों- लिसाड़, लाख, बाहावडी, फुगाना आदि का मुआयना करके यह साफ होता है कि पूरी तैयारी के साथ ही वहां आगजनी और हिंसा का तांडव मचाया गया. राहत शिविरों में रह रहे पीड़ितों के ये बयान महत्वपूर्ण हैं कि स्थानीय तेल डीलरों ने ड्रमों में मिट्टी का तेल हिंसा करने वालों को मुहैया कराया, हिंसा भड़कने से कुछ समय पहले से ही अल्पसंख्यक समुदाय को यह कहकर चेताया जा रहा था कि- खा लो, अच्छे से खा लो, बाद में तो तुम्हें जाना ही है... आदि. 

कांदला में शरणार्थियों ने बताया कि लिसाड़ गांव में एक साल पहले 10-10 रुपये की पर्ची पर 500 के करीब तलवारें बांटी गई थीं. इस बाबत पीड़ितों का दावा है कि उन्होंने पुलिस थाने में शिकायत भी दर्ज कराई थी लेकिन संवाददाता को इसका कोई प्रमाण नहीं मिल पाया. हथियार बांटने की बात अलग-अलग गांवों के लोगों ने अलग-अलग राहत शिविरों में कही. कव्वाल में हुई तीन मौतों को महज चिंगारी की तरह इस्तेमाल किया गया. पूरे मामले को भड़कने देने में उत्तर प्रदेश प्रशासन की सक्रिय भूमिका रही. आठ महीने पहले कुटबा में भाजपा के बैनर तले रैली हुई जिसमें त्रिशूल बांटे गए. इसमें भाजपा उमेश मल्लिक और संजीव बालियान मौजूद थे, जिनकी आगे बवाल फैलाने में सक्रिय भूमिका सामने आई. इसी तरह से 7 सितंबर को धारा 144 लगे होने के बावजूद महापंचायत होने दी गई. बताया जाता है कि महापंचायत वाले दिन मुजफ्फरनगर में उत्तर प्रदेश पुलिस के डीजीपी देवराज नागर जो भाजपा सांसद और इस मामले में आरोपी- हुकुम सिंह के समधी हैं, वह आए, कुछ देर रहे और फिर चले गए. गौरतलब है कि प्रशासन ने कोई कड़ाई किसी भी इलाके में नहीं दिखाई और लाखों लोगों को जमा होने दिया. श्यामली के मोहम्मद उस्मान ने बताया कि डीजीपी का आना इस महापंचायत को खुली छूट दिए जाने का संकेत था.

photo : burnt house of lisad:  Bhasha Singh
महापंचायत में उत्तेजक भाषण देने, हिंसा के दोषी नेताओं भाजपा विधायक हुकुम सिंह, संगीत सोम, सुरेश राणा और दूसरे वाकए में बसपा विधायककादिर राणा के खिलाफ दबाव में एफआईआर तो दर्ज की गई लेकिन लंबे समय तक उन्हें खुला छोड़ा गया. इनमें से प्रशासन ने कार्रवाई तो की लेकिन दोषियों को पूरी तरह से समुदाय का हीरो बनने दिया गया और फिर उन्होंने आत्मसमर्पण किया. प्रशासन के इस रवैये से मुस्लिम समाज में गहरा आक्रोश और क्षोभ है. उत्तर प्रदेश सरकार के इस रवैये के खिलाफ कई मुस्लिम संगठनों का राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने तक की मांग करना गहरे सियासी उलटफेर का संकेत भी दे रहा है.

भाजपा के दागी नेता अमित शाह को जब से उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी गई , तब से पूरे उत्तर प्रदेश की फिज़ा में तब्दीली महसूस की जा रही है. संगठित तौर पर छोटी-छोटी वारदाता को बड़े सांप्रदायिक तनाव में तब्दील करने के लिए एक टीम स्थानीय स्तर पर सक्रिय की गई. बताया जाता  कि गंव स्तर से लेकर जिल स्तर पर 10-15 युवकों को नियुक्त किया गया है, तो आन-बान-शान को सांप्रदायिक रंग देंगे. तकरीबन सारे गांवों में, राहत शिविरों में लोगों ने बताया कि पिछले छह महीने से बसों में, ट्रेनों में तबलीग जमात (इस्लामी धर्म प्रचारकों) को पीटने, उनकी दाढ़ी काटने आदि की वारदातों में इजाफा हो रहा था. साइकिल-मोटरसाइकिल की भिडंत, छेड़खानी की वारदातों को बढ़ा-चढ़ाकर बड़े तनाव में विकसित करने के अनगिनत वाकए सामने आए.इसी कड़ी  में जुलाई में अमित शाह ने लखनऊ में बैठक बुलाई को भी देखा जा रहा है. इसमें उमेश मल्लिक, संजीव बालियान, हुकुम सिंह, संगीत सोम, सुरेश राणा और कपिल अग्रवाल शामिल हुए. बताया जाता है कि इसमें 150 करोड़ रुपये एक विधायक को पार्टी फंड के लिए दिया गया. आठ महीने पहले कुटबा में भाजपा के बैनर तले रैली हुई जिसमें त्रिशूल बांटे गए. इसमें भाजपा के उमेश मल्लिक और संजीव बालियान मौजूद थे और भड़काऊ भाषण दिए गए थे.

गौरतलब है कि पिछले एक साल में उत्तर प्रदेश में छोटे-बड़े करीब 100 सांप्रदायिक तनाव हो चुके हैं. इनमें से 27 सांप्रदायिक तनावों (15 मार्च 2012 से 31 दिसंबर 2012) की बात तो खुद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव मान चुके हैं. मथुरा, बरेली, फैजाबाद, प्रतापगढ़, गाजियाबाद, बरेली, संभल, बिजनौर और इलाहाबाद में हुई वारदातें इनमें शामिल नहीं है. इसके अलावा मेरण में तीन, गाजियाबाद में दो, मुजफ्फरनगर में तीन, कुशीनगर में दो, लखनऊ, बिजनौर, सीतापुर, बहराइच, संत रविदास नगर, मुरादाबाद और संभल में एक-एक सांप्रदायिक तनाव की वारदातें सरकारी तौर पर दर्ज हैं.

पिछले साल दिसंबर के बाद से इस तरह की वारदातों की बाढ़ सी आई. इस बारे में गृह मंत्रालय की चेतावनी भी रही है. इस क्रम में फैजाबाद में छिड़ी सांप्रदायिक हिंसा पर जारी प्रेस परिषद की रिपोर्ट आंख खोलने वाली है. फैजाबाद, रुदौली और उसके आसपास के 50 किलोमीटर में अक्टूबर 2012 को फैली सांप्रदायिक हिंसा पर प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्केंडय काटजू ने इस साल फरवरी में रिपोर्ट जारी की, उसमें साफ लिखा था कि यह कोई आक्सिमक घटना नहीं थी, इसे साजिश के तौर पर अंजाम दिया गया था. प्रशासनिक विफलता और दंगों पर काबू पाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति भी इसके लिए जिम्मेदार हैयानी एक साल पहले जो सांप्रदायिक हिंसा के जो कारण सामने आए थे, ठीक वही मुजफ्फरनगर में मचाई गई तबाही के पीछे नजर आते हैं.

धीरे-धीरे पूरा उत्तरप्रदेश सांप्रदायिक तनाव की गिरफ्त में आ रहा है. ध्रुवीकरण का जहरीली मार फैल रही है. ध्यान रहे कि मुजफ्फरनगर वह इलाका है जिसमें आजादी के समय भी बड़ा दंगा नहीं हुआ था, न ही बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद फैली सांप्रदायिक में यह जला था. और आज, करीब 162 गांवों के 70 हजार मुसलमान घर छोड़कर भागे हुए हैं. निश्चित तौर पर इन लाके में सांप्रदायिक तनाव-हिंसा का नंगा नाच होने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ही प्रमुख दोषी है, लेकिन इसके साथ ही भगवा ब्रिगेड के खूनी मंसूबे-तैयारियां जिस तेजी से बढ़ रही हैं, वे अशांत भविष्य का संकेत दे रही है.

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1996 से हिंदी पत्रकारिता में सक्रिय, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, नई दुनिया से होते हुए फिलहाल आउटलुक पत्रिका में.

मैला ढोने की प्रथा पर पेंगुइन बुक्स से  ‘अदृश्य भारत’ २०१२ में प्रकाशित. 
bhasha.k@gmail.com

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  1. पूरी दास्तान कडुआ सत्य बयाँ कर रही है! इंसान ओर इंसानियत को झकजोर कर देने वाली सच्ची कथा है ये!!

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  2. धर्म
    -मोहन कुमार डहेरिया

    इससे पहले कि वह पकड़ता
    स्लेट और कलम
    उन्होंने लटका दिया
    उसकी भाषा के गले में क्रास का निशान
    लगा दिया
    संस्कारों के माथे पर तिलक
    कर दिया शब्दों को अभिमंत्रित
    पहना दिया हाथों में
    लोहे का कड़ा
    कर दिया पूरा मस्तिष्क कुंद
    अब हैरान हैं वे,
    होना चाहिए था जिसे पाठशाला में
    दंगाइयों की भीड़ में सबसे आगे है।

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  3. मार्मिक,अंतःकरण को हिला देने वाला..

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  4. aapke lekh se aapke perti ezzat aor badh gae

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  5. दंगों का दर्द हिन्दू हो या मुसलमान दोनों कोमें बराबर दर्द के साथ झेलती है इस एक तरफ़ा लेख के लिये क्या कहा जाय.."पूर्वाग्रह से ग्रसित"ये आरोप तो बनता है

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  6. Varat me hone wale aise sampradayek dango ka ilage vagat sing ne pahale he batya tha suna kishne?

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  7. स्तब्ध कर देने वाला रिपोतार्ज है...मिलजुल कर रोकना चाहिए ये सब ..

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  8. मुजफ्फरनगर के दंगो के कुछ और भी पहलु हैं या तो लोगो का सामान्य ज्ञान कमजोर है या ध्यान नहीं देना चाहते .
    भारतीय किसान यूनियन हिन्दू मुस्लिम कूलाक(सामंत ) का संगठन था. मुस्लिमो में परिवर्तित जाट ,गुर्जर ,राजपूत जैसी जातियों ने अपने बिरादरो से एक अघोषित सम्जोहता किया हुआ था .दोनों ही धर्मो के सामंत दलित विरोधी है। जहाँ जहाँ जाये लोग मेजोरिटी में हैं उस गावं में दूसरी जातियों के लोगों का जीना हराम कर देते हैं .यकीं ना आये तो उन गावों में में घूम के लोगों से बात करके देख लो .कई बार ऐसा हुआ की दलितों के खिलाफ ये दोनों धर्मो के सामंत एक हो गए .भोपा गाव में १ ९ ८ ८ में किस्सान यूनियन के लोगों ने गोली चलाई . २ दलित मजदुर मारे गए .किसी वामपंथी दल का कोई आदमी कुछ नहीं बोला ,?
    बाद में मार्क्सवादी पार्टी ने तो बाकायदा सहयोगी संगठनो में किस्सान यूनियन को शामिल किया . इस दंगे में मुस्लिम सामंतो के आत्तंक से ३ ० ० दलित परिवार शाहपुर इलाके के गाँव बसी से घर छोड़ कर भागे ..सब चुप है ?कोई कुछ नहीं बोल रहा ?प्रगतिशील लोगों की जबान पर ताले लग गए ..और कामाल की बात ये है की ये लोग वर्ग के आधार पर समाज को देखते हैं ..मुस्लिम सामंतो का विरोध करने में क्यों पीछे हैं ये ...दंगो का सबसे जयादा शिकार हुए लोग भी गरीब रोज के कमाने खाने वाले सेकुलर मुसलमान है।मैं पूछना चाहता हूँ की इस दंगे के विश्लेष्ण में परगतिशील लोगों का वर्गीय विवेचन कहाँ चला गया ?

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  9. मार्मिक रिपोर्ट.शुक्रिया समालोचन.

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  10. झूठ है ..दंगों से बहुत पहले, मस्जिदों में रात भर चलनेवाले भडकाऊ भाषण मैंने अपने कानों से सुने हुए हैं ! यह एक पक्षीय रिपोर्ट है ...

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  11. is report se lagta hai ki patrakaar bhi ek paksiye report kar rahe hai.keval muslim log mare gaye.aisa ahi hai.isme jo sthan [ gujrat,kandhmal,fugna,lisad] likhe hai,bharat me or bhi sthano par dange huye hai jinhe badi basharmi se chhupaya gaya hai[like ghodra train, kistvaad,delhi1984,ayodya,mumbai ajad maidan,kasmir,---] jab state ka cm ek ki god me jakar baith jaye,aajam main cm banakar raj chalave to logo ka gussa badata.halaanki dard ye nahi dekhta ki admi hindu ya muslim,kyonki vi nispaks hota hai.

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  12. उत्तर प्रदेश में सरधना के खेड़ा की महिलाओं ने आरोप लगाया है कि खेड़ा महापंचायत में लाठीचार्ज के दौरान बचने के लिए एक कमरे में छिपी महिलाओं पर सादी वर्दी वाले पुलिसकर्मियों ने न सिर्फ लाठियां बरसाईं, बल्कि उनके कपड़े तक फाड़ दिए।
    दोस्तों आप सोच सकते है ये सदी बर्दी वाला पुलिश कोन हो सकता है (जाहिर से बात है की दंगा के टाइम कम से कम हिन्दू तो महिला के साथ ऐसे नहीं कर सकते अगर करते भी तो ग्रुप में जा के महिला के साथ नहीं कर सकते )
    दोस्तों जब आजम खान ने सरे ऑफिसर को बदली करवा सकता हिन्दुओ को मरवाने के लिय तो इस पुलिश का भी खुलासा क्यों नहीं हो रहा के ये सरे कोन था

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  13. Reporting ke liye dhanyavad Bhasa ji aur khastor per pics ke liye.

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