हिंदी के श्रेष्ठ उपन्यासों में फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास ‘मैला आँचल’
स्वीकृत है. १९५४ में प्रकाशित यह उपन्यास अपनी चेतना, आंचलिक – रागाताम्कता,
रोचकता, मार्मिकता और लोक-संस्कृति के लिए आज भी पढ़ा जाता है. और आज भी इसके ‘पाठों’
की गुंजाईश बची हुई है. यह खोजना और देखना दिलचस्प है कि जो बिहार ‘पिछड़ी जातियों
के उभार’ का केंद्र बना क्या उसकी कोई अनुगूँज इस उपन्यास के गाँव मेरीगंज में है,
और जे.पी आन्दोलन में सक्रिय रेणु इसे किस रूप में लिखते हैं. उपन्यासों का समाजशात्रीय अध्ययन बाकायदा आज साहित्य और
समाजशास्त्र दोनों में एक अनुशासन है.
संजीव चन्दन पिछले कई वर्षों से स्त्रियों और हाशिये के समाजों को
लेकर वैचारिक और रचनात्मक लेखन कर रहे हैं. इस आलेख में संस्कृतीकरण की प्रक्रिया
में मैला आंचल में दर्ज़ घटनाओं को परखा गया है.
मेरीगंज का पिछडा समाज
संजीव चंदन
मैला आँचल का रचनाकार सिद्धहस्त समाजशास्त्री की भूमिका में है, अपनी लेखकीय संवेदना के साथ. वह जिस ‘मेरीगंज’ की कहानी कह रहा है, वह
पिछड़ी जातियों के बाहुल्य वाला गाँव है- आजादी के २ साल पूर्व और आजादी के २ साल
बाद के समय परिवेश का गाँव, जहां विविध जातियों के लोग रहते
हैं - उपन्यासकार के शब्दों में, ‘मेरीगंज बारहो बरन (बारह जातियों) के टोलों में बँटा है- राजपूत टोली,
कायस्थ टोली, संथाल टोली, कुर्मी, क्षत्री टोली, धानुक
क्षत्री टोली, पोलिया टोली, रैदास टोली,
यदुवंशी क्षत्री टोली, कुसवाहा क्षत्री टोली,
गहलोत टोली, तन्त्रिमा टोली और दुसाध टोली’.
उपन्यासकार फनीश्वरनाथ नाथ रेणु के दो महत्वपूर्ण उपन्यास हिन्दी
साहित्य में मील का पत्थर माने जाते हैं मैला
आँचल और ‘परती परिकथा’.
परती परिकथा का समय परिवेश पहली –दूसरी
पञ्चवर्षीय योजना तक फ़ैला है. परिकथा में उपन्यासकार ग्रामीण भारत के लिए नेहरू की
सपनों भरी आँखों से गरीब, भूखी, दलित –पिछड़ी जनता की समस्याओं का सामाधान देखता है, लेकिन
मैला आँचल में वह यथार्थ के ज्यादा करीब
है, बल्कि क्रूर यथार्थ को सामने लाता है, उपन्यास के सुखद अंत की सीमाओं में बंधे होकर भी - सुखद अंत, जहां वह लेखकीय रूमानियत के साथ समाधान देने की कोशिश करता है. इसपर मैंने
विस्तार से अपने आलेख ‘मैला आंचल’ में जाति वर्ग और लिंग’ लेख ( नया ज्ञानोदय,
2006 ) में लिखा है. इस लेख में तत्कालीन पिछड़ा जाति आन्दोलन और
उसके हासिल की परख समाजशास्त्रवेत्ता की भूमिका में रेणू कितना, कैसे और किस
पक्षधरता के साथ रख रहे हैं, इसकी व्याख्या करने की कोशिश की
जा रही है – ऐसा करते हुए उपन्यास के यथार्थवादी कलेवर को
हमेशा ध्यान में रखा जा रहा है.
जनेऊ आन्दोलन और क्षत्रियत्व का दावा
उपन्यास के कालखंड तक बिहार में पिछड़ी जाति अपनी अस्मिता और हक़ की
लड़ाई लड़ते हुए लगभग 5 दशक जी चुकी थी.
पिछड़ों की सामाजिक – सांस्कृतिक लड़ाई का एक चरण के अनुसार 1899-1925 ( मुख्यतः यज्ञोपवित – जनेऊ और क्षत्रियत्व पर दावा - प्रसन्न
कुमार चौधरी और श्रीकांत, बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ
आयाम)तक पूरा हो चुका था और राजनीतिक लड़ाई का एक चरण भी ‘त्रिवेणी
संघ’ ( 1933- 1942) के माध्यम से भारत छोडो आन्दोलन तक आते
हुए अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाते हुए पूरा हो चुका था. लगभग आधी शताब्दी तक के अपने अब तक के संघर्षों
के साथ पिछड़ी जाति के हासिल मैला आँचल के अत्यंत पिछड़े गाँव की कसौटी पर कसे जा
सकते हैं.
अगड़ी जातियां पिछड़ों के इस हासिल पर आक्रामकता, क्रोध और उपहास की मुद्रा में थीं: ‘अभी कुछ दिनों से यादवों के दल ने जोर पकड़ा है. जनेऊ
लेने के बाद भी राजपूतों ने यदुवंशी क्षत्रियों को मान्यता नहीं दी है? इसके विपरीत समय–समय पर यदुवंशियों के क्षत्रियत्व
को वे व्यंग्य विद्रूप के वाणों से उभारते रहे हैं. एक बार यदुवंशियों ने खुली
चुनौती दे दी, बात तूल पकड़ने लगी थी. दोनों ओर से लोग लगे
हुए थे. यदुवंशियों को कायस्थ टोली के मुखिया, तसीलदार
विश्वनाथ प्रसाद मल्लिक ने विशवास दिलाया, “मामले –मुकदमे की पूरी पैरवी करेंगे. जमींदारी कचहरी के वकील बसंतो बाबू कह रहे
थे, ‘यादवों को सरकार ने राजपूत मान लिया है. इसका मुकदमा तो
धूम –धाम से चलेगा.’ खुद वकील साहब कह
रहे थे.”
राजपूतों को ब्राह्मण टोली के पंडितों ने समझाया, “जब –जब धर्म की हानि हुई है,
राजपूतों ने ही उनकी रक्षा की है. घोर कलिकाल उपस्थित है, राजपूत अपनी वीरता से धर्म को बचा लें.” .... लेकिन
बात बढ़ी नहीं, न जाने कैसे यह धर्मयुद्ध रुक गया, ब्राह्मण टोली के बूढ़े ज्योतिषी जी आज भी कहते हैं – “यह राजपूतों के चुप रहने का फल है कि आज चारो ओर हर जाति के लोग गले में
जनेऊ लटकाये फिर रहे हैं – भूमफोड़ क्षत्री तो कभी नहीं सुना
था. .... शिव हो ! शिव हो! .’ (मैला आँचल, पेज न. १५)
मैला आँचल की इन पंक्तियों में तत्कालीन ५ दशकों का सामाजिक इतिहास
दर्ज है. १८९९ से यादवों की अगुआई में पिछड़ों ने भी ‘जनेऊ आन्दोलन’ शुरू कर रखा था,
जिसे अगड़ी जातियां अपने अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण मान रही थीं और
खून – खराबे पर उतारू थीं. जाति के सांस्कृतिकरण के इस
अभियान में जाति और सम्बंधित जाति की स्त्रियाँ एक साथ नए नियमों के दायरे में
लाये जा रहे थे – सबका दावा क्षत्रियत्व का भी था. इस प्रकरण
में अंतिम बड़ा खूनी संघर्ष लाखोचक में 26 मई 1925 को हुआ . ‘लाखोचक की घटना के बाद पिछड़ी – दलित जातियों के जनेऊ धारण करने के खिलाफ उच्च जाति- भू स्वामियों का उग्र
सामूहिक विद्रोह लगभग समाप्त हो गया. १८९९ ई. में मनेर के हाथीटोला की घटना जनेऊ
धारण करने के खिलाफ सामूहिक हिंसक विरोध की यदि पहली घटना थी, तो लाखोचक अंतिम.’ (बिहार में सामाजिक परिवर्तन के
कुछ आयाम, वाणी प्रकाशन, 2001, पेज
न. 81-82). इसके बाद
पूरे बिहार में पिछड़ी–दलित जातियों के क्षत्रियत्व और जनेऊ
धारण के आग्रह के प्रति हिंसक प्रतिरोध की जगह अगड़ा समुदाय व्यंग्यबोध में रहा और
धीरे –धीरे इस मांग के प्रति तटस्थता से भरता गया. इधर ब्रिटीश सरकार अलग – अलग
पिछड़ी जातियों के क्षत्रियत्व के दावे को स्वीकार करने की मुद्रा में थी. 1931 की जनगणना के पूर्व कुर्मियों के क्षत्रियत्व के दावे को स्वीकार करते
हुए भारत के तत्कालीन जनगणना आयुक्त ने उनकी जातीय सभा को एक पत्र लिखा.’ (बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम पेज न. 51) अब
उपरोक्त घटनाओं का लगभग दो डेढ़ दशक बाद
पिछड़ी जातियों के अत्यंत पिछड़े गाँव के लोगों पर क्या असर था, वह मैला आँचल के उपरोक्त उद्धरणों से समझा जा सकता है. गाँव के अधिकाँश
लोग अनपढ़ और देश दुनिया के दिन–प्रतिदिन के परिवर्तनों से
परिचित नहीं हैं, लेकिन अस्मिता आन्दोलनों का स्पष्ट प्रभाव
उनपर है. सरकारी निर्णयों की खबरें देर–सबेर अपनी सूचना
तंत्र –हाट-बाजार, कोर्ट –कचहरी– के रास्ते उनतक पहुंचता रहता है. कायस्थ
विश्वनाथ प्रसाद यादवों के क्षत्रियत्व के दावे को अपना समर्थन देते हैं. दरअसल
खुद कायस्थों ने काफी कानूनी संघर्ष के बाद शूद्र से क्षत्रियत्व का दर्जा हासिल
किया था. ब्राह्मण अपनी सुरक्षित सामाजिक स्थिति की कारण ही इन परिवर्तनों के
प्रति काफी प्रतिगामी और प्रतिकूल होते रहे हैं. मैला आँचल का बूढा ज्योतिषी इसी
ब्राह्मण–मन का प्रतीक है. वह पिछड़ों के जनेऊ धारण और
क्षत्रियत्व के दावे को चुनौतीविहीन देखने के लिए तैयार नहीं है. राजपूतों से जो
उम्मीद वह लगाये बैठा है, वह लाखोचक की घटना में वहां के
भूमिहारों ने पूरी करने की कोशिश की थी, जो अपने ब्राह्मण
होने के दावे के पूर्व तक स्वीकृत क्षत्रिय थे.
उपन्यास के भीतर यादवों के वास्तविक प्रतिद्वंद्वी राजपूत ही हैं, कायस्थ और ब्राह्मण दोनो के बीच अपनी उपस्थिति रखते हैं.
एम. एन. श्रीनिवास के अनुसार गैर-ब्राह्मण समुदाय संस्कृतीकरण के अपने
प्रयास में सिर्फ ब्राह्मणों के संस्कारों को ही नहीं अपनाता है अपितु ब्राह्मण
मूल्यों और संस्थाओं का भी अनुसरण करता है. मेरीगंज के यादवों ने भी यज्ञोपवित
करवाया, जनेऊ धारण करना
प्रारम्भ किया, जो मूलतः द्विज जातियों का सांस्थानिक
संस्कार माना जाता है. यादवों ने स्वयं को यदुवंशी क्षत्रिय भी घोषित किया. समाजशास्त्रियों
की स्थापना रही है कि पदानुक्रम में उन्नति प्रायः वर्ण-क्रम में होती है, इसलिए यादव भी अपने को क्षत्रिय के
रूप में उन्नत कर रहे हैं. इतिहास में सर्वाधिक पदानुक्रम उन्नयन के बाद जातियां
क्षत्रिय वर्ण में ही शामिल हुई हैं.
क्षत्रियत्व का उनका यह दावा व्यंग्यवाणों के अलावा अनेक तकलीफों के
रास्ते से भी गुजरा है. हिंसक प्रतिरोध के बाद उच्च जातियों के लोगों ने नाकाबंदी
और तरह –तरह से परेशान करने का
मार्ग अपनाया. प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत क्षत्रियत्व ने इस दावे के पीछे का
यथार्थ बतलाते हुए लिखा है, ‘भूमि केन्द्रित कृषि समाज में
क्षत्रिय होने का ध्वन्यार्थ था भूस्वामी होना, बलशाली होना
और राजा होना अथवा राजसत्ता का हकदार होना.’ (बिहार में
सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम पेज न. 109)
मेरीगंज की राजनीति : पिछड़ों की राजनीतिक सक्रियता का संकेत
मेरीगंज में राजनीति करने वाले लोग यादव जाति से हैं – बालदेव कांग्रेसी है, तो
कालीचरण सोशलिस्ट. कालीचरण के पीछे चलने वाले लड़के सुनार और दूसरी पिछड़ी जातियों
से हैं– अभी हाल तक दूध बेचने वाले खेलावन यादव १०० बीघे की
जोत के मालिक हैं, जो रामकृपाल सिंह (राजपूत ) और विश्वनाथ
प्रसाद सिंह (कायस्थ) से स्पर्धा रखते हैं. ४७ के आस–पास
बिहार और देश में हो रहे जमीन संबंधी हलचलों, लगान की वसूली
से लेकर, जमींदारी उन्मूलन की चर्चाओं के बीच जमीन पर कब्जे
की तिकड़मों का पूरा खेल मेरीगंज में भी एक छोटी हैसियत के बीच ही सही, लेकिन खेला जा रहा है. इन सब हलचलों में सबसे ज्यादा प्रभावित कृषि आधारित
जीवन यापन करने वाली पिछड़ी–दलित जातियां थीं, जो छोटे मालिकाना से लेकर, बटाईदारी, यजमानी और मजदूरी से जुडी थी. गाँव के लोग एक दूसरे को नाते –रिश्तेदारियों के संबोधनों से जुड़े होकर भी एक दूसरे को मात देने में लगे
हैं. कायस्थ विश्वनाथ प्रताप सिंह पिछड़ी जातियों के लोगों से चाचा, फूफा, मामा संबोधित होकर भी उनके हक़ मारने में लगे
हैं. इधर हिन्दूवादियों का दल अपने गाँव में ऊंची जाति के बीच, राजपूतों –ब्राह्मणों के बीच, राजपूत
युवा हरगौरी के माध्यम से अपनी पैठ बनाने में लगा है. जाति और वर्ग की संरचनाओं
में एक साथ जीने वाला यह गाँव तत्कालीन राजनीतिक घटनाक्रमों का एक छोटा नमूना भी
है.
बिहार में पिछड़ी जातियां अंतरिम चुनावों के समय से ही अपना राजनीतिक
प्रतिनिधित्व माँगने लगी थीं, लेकिन कांग्रेस ने उनके लिए अपना दरवाजा बंद कर रखा था. अपनी राजनीतिक
जमीन तलाशती पिछड़ी जातियों के लिए एक बड़ा दवाब पैदा करने में त्रिवेणी संघ सफल हुआ,
जो १९३३ में अपने गठन और १९४२ में अपने पतन के बीच पिछड़ों की बड़ी
राजनीतिक चुनौती खड़ी करने में सफल हो गया था. कांग्रेस ने इसी दवाब में पिछड़ों को
अपने साथ जोड़ना शुरू किया जबकि प्रारम्भिक
दौर का अनुभव पिछड़ी जाति के नेताओं के लिए कटु था, ‘’पहले
ऐलान किया गया कि योग्य व्यक्तियों को लिया जायेगा. जब इन बेचारों ने योग्य
व्यक्तियों को ढूँढना शुरू किया, तो कहा गया खद्दरधारी होना
चाहिए. जब खद्दर धारी सामने लाये गये तो कहा गया कि जेल यात्रा कर चुका हो. जब ऐसे
भी आने लगे तो किसी को झिड़क दिया जाता था, क्या वहां साग
भंटा बोना है, तो किसी को कहा जाता कि क्या वहां भैंस दूहना
है? तो किसी को व्यंग्य मारा जाता कि क्या वहां भेड़ें चरानी है? तो किसी
को फटकार दिया जाता कि क्या वहां नमक तेल तौलना है ?’’ (त्रिवेणी
संघ का बिगुल, पेज 43)
प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के केन्द्रीय स्तर का यह अनुभव छोटे –छोटे –जिला और ताल्लुका स्तर पर
भी था. कालीचरण को यह अनुभव अपनी पार्टी में पहली बार पार्टी के जिला सेक्रेटरी एक
और पदाधिकारी सैनिक जी की पत्नी के लिए खाना पहुंचाने का काम सौपते हैं, ‘सैनिक जी की पत्नी उसे उसकी जाति की याद दिला देती हैं, ‘अरे जानती नहीं हैं, ग्वाला साठ बरस तक ...’ सैनिक जी की स्त्री बोली. (मैला आँचल पेज 157) यद्यपि सैनिक जी भी ग्वाला हैं
लेकिन यह प्रसंग छोटे–छोटे स्तर पर भी जाति आधारित हैसियत
बताने का प्रसंग है.
बालदेव को भी कांग्रेस के दफ्तर में इस हैसियत से आंका जाता है तो
बावनदास को पूर्णिया से पटना तक जाति का यह रोग साफ़ दिखता है: ‘यह बीमारी ऊपर से आयी है. यह पटनियां रोग है..... अब
तो और धूमधाम से फैलेगा. भूमिहार, राजपूत, कैथ, जादव, हरिजन सब लड़ रहे
हैं... अगले चुनाव में तिगुना मेले चुने जाएंगे. किसका आदमी ज्यादे चुना जाएगी इसी
की लड़ाई है.’ (मैला आंचल पृ. 290) गाँव में भी ऊंची जाति के लोगों के बीच
बालदेव और कालीचरण को वह सम्मान हासिल नहीं है, जो उसकी जाति
के लोगों के बीच उन्हें है. खेलावन यादव जरूर इन दोनों के माध्यम से अपने सपनों को
साधना चाहते हैं, जिन्हें विश्वनाथ प्रसाद सिंह की तिकडमों
के आगे खुद ही अपनी जमीन खो देनी पड़ती है. राजनीति का यह छोटा रूपक, जिला और प्रांतीय स्तर पर ज्यों का त्यों घटता रहा है – बिहार की राजनीति में कायस्थ,
भूमिहार और ब्राहमण वर्चस्व का यह छोटा रूपक है, जो कम से कम 90 तक चला. 90 के
बाद बिहार में यादवो और अन्य पिछड़ी जातियों का सत्ता में बना वर्चस्व मैला आँचल के
खेलावन यादव के सपनों का साकार होने जैसा है, जो प्रांतीय
स्तर पर कितने ही खेलावनों का सपना रहा है , पिछली शताब्दी
के प्रारम्भ से, इसके लिए कितने ही कालीचरणों की बली चढी है.
उपन्यास में चलितर कर्मकार के बहाने भी तत्कालीन समय का एक बड़ा सत्य
उद्घाटित हुआ है. कई जगहों पर भूख और हक़ की लडाई लड़ते हुए पिछड़ी –दलित जनता खेत–खलिहान लूट रही
थी. कागज़ और पहुँच के धनी लोग जमीनों पर अपना कब्जा जमा रहे थे, तो अपने हक़ से मरहूम आम जन उसका प्रतिरोध सामूहिक रूप से मालिकों के खेत –खलिहानों में धावा बोलकर कर रहे थे. चरितर कर्मकार जैसे रोबिन हुड इसी
परिवेश की पैदाइश है, जबकि संथालों द्वारा तहसीलदार विश्वनाथ
प्रसाद की खेत में लूट तत्कालीन सामूहिक प्रतिरोध का प्रतीक. ‘मैला आँचल का चलित्तर असल में नक्षत्र मालाकार है. अंग्रेजी और देसी राज्य
की फाइलों में ‘ ए नोटोरियस कम्युनिस्ट डकैत’ अथवा ‘ रोबिनहुड’ के रूप में
चर्चित मालाकार प्रायः 50 से हजार के दल में जमींदारों की
कचहरी पर धावा बोलते और उनकी संपत्ति जब्त कर उसे गरीब रैयतों में बाँट देते. 28 मई (50), को नक्षत्र मालाकार और लक्ष्मण ततवा के
नेतृत्व में करीब 300 लोगों के दल ने ‘धोबा’,
‘रुपौली’ गाँव के मेदनी कुमार की कामत लूट ली,
जिसमे एक सौ मन अनाज भी शामिल था. २९ मई को उसने एक हजार ग्रामीणों
को संगठित किया, घोड़े पर सवार होकर ढोल बज्जा बाजा , थाना नौगछिया की तीन अनाज की दुकानों को लूटा. अनाज की कीमत करीब ५० हजार
रूपये थी. (एक्टिविटीज ऑफ़ दी कम्यूनिस्ट पार्टी इन बिहार पेज १४ ) अलग –अलग जिलों में ग्रामीणों के द्वारा संगठित लूट की घटनाएं घट रही थीं. उस
दौर में अकेले गया जिले में फसल काटने के 291 मामले दर्ज हुए
थे.
मैला आँचल न सिर्फ तत्कालीन राजनीतिक और जातीय सत्य को सामने रखता है
बल्कि आगत भविष्य का खूनी संघर्ष भी मैला आंचल के
रचनाकाल में ही दिखता है, जो संथालों से होकर गांव के भीतर
भी प्रवेश कर जाता है, और जिसके मिथकीय रहनुमा हैं चलितर
कर्मकार या कालीचरण. परन्तु जातीय सत्य और सत्यता की तिकड़में इनसे एक-एक कर निपटती
हैं- पहले संगठित समुदाय संथालों से और फिर उनके नेता कालीचरण और वासुदेव से.
निपटने की प्रक्रिया में साथ देता है राज्य और उसकी मिशनरियां. एक-एक कर संथाल जेल
में डाल दिये जाते हैं तथा बाद में कालीचरण जैसे नेता डकैती के आरोप में. गिरफ्तार
तो डाक्टर प्रशान्त भी होते हैं, कम्युनिस्ट होने के शक में,
परन्तु उनकी आजादी उपन्यासकार की (यद्यपि स्वनिर्मित) नैतिक मजबूरी
भी है तथा वर्गीय सत्य भी.
और अंत में
मैला आँचल का क्रूर यथार्थ यद्यपि एक कालखंड और एक कथा परिवेश का
यथार्थ है, तथा उपन्यासकार की
अपनी पक्षधरता भी पिछड़ों –दलितों, वंचितों
के साथ है, वह एक समाजशास्त्री और एक लेखक दोनो की दृष्टि से
संपन्न रचनाकार हैं, फिर भी पिछड़ों के राजनीतिक दर्शन की कोई
उपस्थिति यहाँ क्यों नहीं है? पिछड़ों की सारी सक्रियता अंत
में बिखर क्यों जाती है मैला आँचल में ? क्यों मैला आँचल
गांधीवादी ‘ह्रदय परिवर्तन’ और परती
परिकथा नेहरू के विकास – संकल्प के दर्शन के साथ ख़त्म होते
हैं ? रेणु स्वयं एक पिछड़ी जाति (धानुक) के परिवार में पैदा
हुए थे, लेकिन पिछड़ों की पूरी –की पूरी
सत्ता, उनका स्वप्न मैला आँचल में बिखर जाता है – खेलावन यादव फिर से भैंस चराने लगते हैं, अपनी १००
बीघे की जमीन गँवाकर, बालदेव भटक जाते हैं, कालीचरण अपनी नियति को प्राप्त होता है, वासुदेव आदि
का नैतिक, चारित्रिक पतन हो जाता है – शेष
बचता है, जातिहीन प्रशांत का प्रक्रम और तिकड़मी विश्वनाथ
प्रसाद का ह्रदय परिवर्तन. परती परिकथा में यही पिछड़ा समाज घोर कूपमंडूकता में
ग्रस्त है, स्वपनजीवी पराक्रमी (पञ्चवर्षीय योजना के मार्ग
में) नायक के चरित्र के आगे बौना है, उसके नेतृत्वकर्ता मुखर
लोग तिकड़मी हैं.
उस दौर में लोहिया सक्रिय थे, डा. आम्बेडकर की ब्राह्मणवाद विरोधी राजनीति अपनी धार के साथ उपस्थित थी,
लेकिन रेणु के यहाँ इनके दर्शन से संचालित कोई समाधान नहीं है. तो
क्या रेणु बिहार में पिछड़ों के अपने संघर्ष से इतने अनभिज्ञ या निर्लिप्त थे,
या उन्हें कोई आशा नहीं थी इस संघर्ष से ? ये
कुछ सवाल हैं तो मैला आंचल के पिछडे पात्रों पर विचार करते हुए उभरते हैं.
क्या आम्बेडकर, लोहिया रेणु के लिए अनजानी
परिघटना थे या पिछड़ों की समस्याओं का समाधान उन्हें उनमें नहीं दिखता था? ऐसे कुछ सवाल जरूर बनते हैं
उपन्यास के इस पाठ के साथ.
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संजीव चन्दन
सम्पादक: स्त्रीकाल, स्त्री का समय और सच
कथादेश, साक्षात्कार , समवेद, पाखी सहित कई पत्र - पत्रिकाओं में कहानियां, आलोचनात्मक निबंध और समसामयिक टिप्पणियाँ प्रकाशित
संपर्क : themarginalised@gmail/ 8130284314
कितनी तो लघुसंस्कृतियाँ-कहीं पूरकता निभाती, कहीं विपर्ययों में विलीन होती,पार्श्व में लोक धुन और नए जीवन के दबाब में नयी गति पाता मेरीगंज लेकिन अंत? संजीव जी आपका प्रश्न वाज़िब है कि वह एक समाजशास्त्री और एक लेखक दोनो की दृष्टि से संपन्न रचनाकार हैं, (वे खुद धनुक हैं) फिर भी पिछड़ों के राजनीतिक दर्शन की कोई उपस्थिति यहाँ क्यों नहीं है? ऐसा क्यों है कि नायकत्व में ही इस उपन्यास की आंचलिकता प्राणवान लगती है?
जवाब देंहटाएंनेमीचन्द्र जैन ने भी कुछ इसी तरह का प्रश्न अपनी समीक्षा में उठाया है.
शुक्रिया समालोचन और संजीव जी .
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