परख : हिंदी सराय: अस्त्राखान वाया येरेवान : ओम निश्चल










यात्राएँ इतिहास की हों अगर तो दूर तक जाती हैं, इतिहास के इन सरायों में केवल छूटी हुई स्मृतियां ही नहीं होतीं उनमें बहुत कुछ ऐसा होता है जो वर्तमान को भी प्रभावित करता है. जिस देश में समुद्र पार करने से व्यक्ति धर्मच्युत हो जाता हो, उसी देश के व्यापारी १६ वीं शताब्दी में रूस के अस्त्राखान में अपनी घनी बस्ती बसाते रहे और रूस के शासक के दरबार तक में उनकी पूछ हो, अपने आप में रोचक तो है ही साथ ही कई अवधारणाओं को चुनौती भी देता है. 

आलोचक – विचारक पुरुषोतम अग्रवाल की यात्रा-कृति ‘हिंदी सराय: अस्त्राखान वाया येरेवान’ पर ओम निश्चल की समीक्षा, जो कृति के प्रति उत्सुकता जगाती है.


इतिहास का रोमांच और यायावरी                 
ओम निश्‍चल


हिंदी सराय: अस्‍त्राखान वाया येरेवान/पुरुषोत्‍तम अग्रवाल
राजकमल प्रकाशन प्रा लि/दरियागंज,नई दिल्‍ली
मूल्‍य: 395 रुपये.

ब कुछ कितना रोमांचक है. कभी नेहरू जी की डिस्‍कवरी आफ इंडिया पढ कर या राहुल सांकृत्‍यायन की पुस्‍तक मध्‍य एशिया का इतिहास पढकर रूस के वोल्‍गा के तट पर बसे पुरा भारतीय व्‍यापारियों के नगर अस्‍त्राखान की खोज के लिए निकल जाना आसान नहीं है. पर यायावर चित्‍त हो और इतिहास के तहखानों में भटकने का सलीका तो कुछ भी मुश्‍किल नहीं---और उस पर एक सरकारी आयोजन के सिलसिले में येरेवान जाने का खूबसूरत बहाना भी घुल मिल जाए तो कहना ही क्‍या. पर यह यात्रा महज तफरीह बन कर रह गयी होती यदि इसे एक ऐतिहासिक अवलोकन की तरह पुरुषोत्‍तम अग्रवाल इसे किताब के पन्‍नों में दर्ज नहीं करते. यायावरी की पुस्‍तकें आती जाती रहती हैं, उनमें अपने उठने सोने खाने पीने और घूमने के ही इतने वृत्‍तांत होते हैं कि वहॉं इस तरह की रचनात्‍मकता का स्‍पेस ही नहीं होता. होता तो सरकारी खर्चे से यात्रा सुविधाओं के बावजूद हिंदी में यात्रावृत्‍तांत का टोटा नहीं होता. कभी भारतीय व्‍यापारियों की गुलजार रही बस्‍ती अस्‍त्राखान का यह सफरनामा पुरुषोत्‍तम अग्रवाल की धैर्यलेवा वैचारिक यायावरी का सबूत भी है.

जिस प्रतिश्रुति से पुरुषोत्‍तम ने अस्‍त्राखान देखने का कभी इरादा किया था, उसी भावना के साथ सत्रहवीं शताब्‍दी की इस भारतीय व्‍यापारियों के हिंदी सराय में पहुंच कर वे भौंचक रह गए. कहते हैं यदि इस यात्रा में रूस के युवा लेखक अनिल जनविजय साथ न होते तो रूसी न जानने के कारण उनकी हालत वैसी ही होने वाली थी जैसी कि तिलिस्‍म-ए-होशरुबा में किसी अंग्रेजीदाँ की हो सकती थी. पर सभ्‍यताओं के इतिहास की आवाजें सुनने का अभ्‍यास अकथ कहानी प्रेम की लिखने वाले पुरुषोत्‍तम अग्रवाल को पहले से ही है और चाहे वे कवि रूप में पहचाने न जाते हों पर किताब की शुरुआत वे आरमीनिया की राजधानी येरेवान के कवि योग़िशे चारेंत्‍स के मार्मिक स्‍मरण से करते हैं. ओटोमन शासन के दौरान 1915 में आरमीनिया में हुए नरसंहार की त्रासदी को अपने आंखों से देखने और मर्म से अनुभव करने वाले कवि चारेंत्‍स मुक्‍ति सेना में वालंटियर और सोवियत क्रांति के सिपाही होने के बावजूद स्‍टालिन के अत्‍याचार के दिनों में उन्‍हें तथा उनकी पत्‍नी को जेल में डाल दिया गया जहॉं रहस्‍यात्‍मक परिस्‍थितियों में उनकी मृत्‍यु हो गयी. उनके मित्र मायकोव्‍स्‍की ने भी आत्‍महत्‍या से अपना जीवन खत्‍म किया था. जेल जाने से पहले उनकी तमाम अप्रकाशित कविताएं उनकी मित्र रेगिना द्वारा ज़मीन में गाड़ दी गयीं ताकि कवि के कीमती शब्‍द स्‍टालिन के अत्‍याचार से बच जाऍं. आरारात के धवल शिखरों की छाया में बैठ कर रची उसकी कविता पंक्‍तियों वाकई एक देशप्रेमी कवि की आवाज़ सुनाई देती है.

कवि की शहादत से भीगी आवाज़ में गाइड को सुनकर लेखक को मेक्‍सिको की कलाकार फ्रीडा के उस आखिरी कैनवस की याद हो आती है जिसका शीर्षक थास्‍टालिन का पोट्रेट. फ्रीडा की कम्‍युनिस्‍ट-आस्‍था में जड़ जमाते माओ और स्‍टालिन को देख पुरुषोत्‍तम अग्रवाल कहते हैं: जिसकी छवि चित्रकार फ्रीडा के ब्रश और रंग जीवन भर इतने लगाव से उकेरते रहे, जिसकी छवि वे जीवन के अंतिम पलो में भी आस्‍था के कैनवास पर जीवंत कर रही थीं, कवि चारेंत्‍स के शब्‍द उसी लौह पुरुष से भयाक्रांत होकर सदा के लिए समाधि लेने को विवश थे. वे कहते हैं, ‘’पूँजीवाद की अश्‍लीलता और भयावहता से अवसन्‍न मानवीय आत्‍मा को चाहिए इनसानियत में आस्‍था का आधार. सारी अवसन्‍नता के साथ, आपके पास पूँजीवादी व्‍यवस्‍था द्वारा उपलब्‍ध कराए गए इस चुनाव की सुविधा भी बनी रहती है कि आप उसकी आलोचना करते रहें. लेकिन यह सुविधा आपकी संवेदना पर लगातार हो रहे पूंजीवादी अश्‍लीलता के आक्रमणों का उपचार तो फिर भी नहीं है. इस वेदना का क्‍या करें? कहां खोजें इस वेदना की घुटन के बरक्‍स इन्‍सानियत की संभावनाओं का आकाश? ‘’

येरेवान के कवि चारेंत्‍स की चर्चा से शुरू इस ऐतिहासिक यात्रा में लेखक का पहला पड़ाव विक्‍ट्री पार्क था जो पहाड़ी पर है और यहॉं मौजूद मदर आरमीनिया की विशाल प्रतिमा मन मोह लेने वाली है. इतनी ऊंची पहाड़ी पर स्‍थापित यह प्रतिमा जैसे सारे शहर पर निगाह रखती है. सरकारी सेमिनार से फुर्सत के पलों में आरमीनियाई भाषा के इतिहास से गुजरना, हाइएरिन लिपि के आविष्‍कर्ता मेसरोप माश्‍तोज के नाम की सड़क से गुजरना उनके प्रति कृतज्ञता का परिचायक है.

यही नहीं यहां अनेक सड़कें लेखकों बौद्धिकों के नाम पर हैं. जबकि पुरुषोत्‍तम जी के शब्‍दों में दिल्‍ली में प्रेमचंद जैसे लेखक के नाम पर कोई सड़क नहीं है. प्रेमचंद ही क्‍यों, हिंदी के सम्‍मानित कोशकार डॉ रघुवीर के नाम पर ही कौन सी सड़क या सरकारी संस्‍थान का नाम है जिनके किए धरे पर हिंदी संस्‍थाऍं ऐश कर रही हैं.

इसी क्रम में उन्‍होंने अहुरमज्‍दा और जरथुष्‍ट्र की कहानी बयान की है. कहते हैं, जरथुष्‍ट्र इतिहास के पहले व्‍यक्‍ति हैं जिन्‍होंने लौकिक और पारलौकिक जीवन को शुभ-अशुभ के दोटूक विभाजन में बॉंटा. बताया जाता है कि उन्‍होंने ही प्राफेट या मसीहा की अवधारणा प्रस्‍तुत की जिसे परमात्‍मा का खासुलखास बताते हुए उस पर शुभ की राह से अशुभ की ओर भटक गए लोगों को वापस शुभ की राह पर लाने की ड्यूटी दे रखी है. आवेस्‍ता की गाथाओं में दर्ज अहुरमज्‍दा के प्रति जरथुष्‍ट्र  स्‍तुतियों व अहुरमज्‍दा-जरथुस्‍ट्र संवाद की चर्चा करते हुए पुरुषोत्‍तम जी ने आवेस्‍ता और वेदों के तुलनात्‍मक अध्‍ययन का सारांश यह पाया है कि देवताओं और असुरों के मध्‍य सुपरिचित संघर्ष वास्‍तव में दो विश्‍व दृष्‍टियों के संघर्ष का रूपक है. इन्‍हीं जरथुस्‍त्र को लेकर अनीश्‍वरवादी दार्शनिक नीत्‍से ने दस स्‍पोक जरथुस्‍त्र की रचना की तथा इसे नैतिकतावादी जरथुस्‍त्र का उन जैसे अनैतिकतावादी में रूपांतरण बताया. जरथुस्‍त्र पर बात करते हुए अग्रवाल ने एल्‍फ्रेड नॉफ रचित इन सर्च आफ जरथुस्‍त्र : दि फर्स्‍ट प्राफेट एंड दि आइडियाज दैट चेंज्‍ड दि वर्ल्‍ड पुस्‍तक के एक संदर्भ को उद्धृत किया है जिसमें यह कहा गया है कि मध्‍य एशिया में इस्‍लाम इसलिए मजबूत हुईं क्‍योंकि इसकी जड़ें जरथुस्‍त्रवाद में पैठी हुई हैं.

इस यात्रा में अग्रवाल के सारथी आरमेन जो नौकरी खोने के बाद से गाइड और ड्राइवर के काम से जुड़ गए थे, पुरुषोत्‍तम के लिए एक सजग मार्गदर्शक का काम करते हैं. इरिबुनी म्‍युजियम पहुंच कर पता चलता है, 169 ई.पू. से ही येरेवान में भारतीय व्‍यापारी बसे हुए थे जिनमें से अनेक ईसा की चौथी शती में यहां आई ईसाइयत की चपेट में आ कर या तो ईसाई बने, या मारे गए या कुछ भाग कर भारत वापस आ गए. इरिबुनी एक शरणस्‍थली जैसा है जहां के गेग्‍हार्द मठ आरमीनिया के ही नहीं, दुनिया भर के ईसाइयों की आस्‍था का केंद्र हैं. गारनी में आजाद नदी के किनारे सूर्यमंदिर दिखाते हुए गाइड आरमेन ने कहा था, यहां तो अपको अपने देश की बहुत याद आएगी क्यों कि सूर्यदेव की उपासना की शुरुआत तो भारत से ही हुई थी. गारनी गेग्‍हार्द के आसपास के अनेक मठों में घूमते विचरते हुए उन्‍हें ज्ञान प्रेम और साधना की आवाजें गूँजती सुनाई देती हैं. पहाड़ी से बहता कलकल जल प्रवाह जैसे आसपास प्रार्थना और ध्‍यान का अवकाश रचता महसूस होता था जहॉं अपने परिजनों के साथ आकर लोग मोमबत्‍तियॉं जला कर स्‍वस्‍तिकामना करते हैं. प्रार्थना के इन शांत पलों को धीरज से सहेजा है अग्रवाल ने. इस रोमांचक यायावरी में वे एजमीआजीन चर्च के ठीहे तक पहुंचते हैं जिसके बारे में कहा जाता है यहीं उतरे थे परमात्‍मा के इकलौते पुत्र. आस्‍थावान ईसाइयों के लिए एजमीआजीन एक प्रमुख तीर्थ है जहॉं कहा जाता है कि उस क्रास का एक टुकड़ा आज भी एक रत्‍नजटित स्‍वर्णमंजूषा में सुरक्षित है जिस पर जीसस को यातनाऍं दी गयीं थीं साथ ही नूह की नौका का टुकड़ा और जॉन दि बेपटिस्‍ट के हाथ की हड्डी भी. येरेवान से यह साक्ष्‍य मिला कि आरमीनियाई सौदागर दुनिया भर में व्‍यापार करते थे, कोलकाता में भी, आगरा में भी. लगे हाथ देखी गयी प्रशस्‍त सेवान झील पहुंच कर अग्रवाल का कविताप्रेमी मन जाग उठा और अज्ञेय के अरे यायावर रहेगा याद वाले लहजे में कह उठे: रहेगा, रहेगा याद. आना है पलट कर सेवान/ रहेगा याद यह दिलासा, यह वादा, येरेवान.

येरेवान का बखान चारेंत्‍स जैसे कवि के स्‍मरण से होता है तो अस्‍त्राखान का बखान शमशेर की इस पंक्‍ति: एक नीला आईना, बेठोस सी यह चॉंदनी..से. यहाँ पहुंच कर वे जैसे महामौन के ठिठके पलों को महसूस करते हैं. कहते हैं: वोल्‍गा है और है मेरा अकेलापन. मास्‍को एयरपोर्ट उतरते ही भारतीय दूतावास के दुर्गानंद झा के साथ कवि अनिल जनविजय मिले अपने सफरी झोले के साथ. रूस में अनिल हों तो यात्रा के क्‍या कहने. विश्‍वनाथ प्रसाद तिवारी के रुसी यात्रावृत्‍तांत में भी वे जैसे शरीर में सॉंस की तरह समाए हुए हैं. अग्रवाल इस यात्रा में अपनी सभी इंद्रियों से काम लेते जान पड़ते हैं. उनके जेहन में लगतार कुछ सवाल उठते हैं. डिस्‍कवरी आफ इंडिया में अस्‍त्राखान में भारतीय व्‍यापारियों की जड़ों की खोज करते हुए वे नेहरू को भी प्रश्‍नांकित करते हैं और अपने समाज और अपनी परंपरा की इकहरी समझ रखने वाले बौद्धिकों को भी. वे पूछते हैं, ‘’अंग्रेजी तालीम से उपजा बंगाल का पुनर्जागरण तो हमें याद रहता है, पर धार्मिक भ्रष्‍टाचार के विरुद्ध हरियाणा के चरनदास चोर का संघर्ष व स्‍त्री की दशा के प्रति मारवाड़ी दरिया साहब की संवेदनशीलता नहीं.‘’ वे कहते हैं, ‘’भारत में औपनिवेशिक आधुनिकता की सबसे बड़ी कामयाबी यही है कि उदार प्रगतिशील या आधुनिक होने का बपतिस्‍मा कराने के लिए सांस्‍कृतिक आत्‍मघृणा के जल में अभिषिक्‍त होना आवश्‍यक है.‘’ वे अमिताभ घोष की इस खीझ का खुलासा करते हैं कि ब्रिटिश राज से ज्‍यादा आज का भारत कहीं अधिक उपनिवेशीकृत है. लगता है 2011 में ईस्‍ट इंडिया कंपनी का पुनरोदय हो रहा है. अग्रवाल इस बात पर चिंता जाहिर करते हैं कि जिस व्‍यापार और अंतर्राष्‍ट्रीय संपर्कों के चलते यूरोप में सामाजिक परिवर्तन संभव हुए, वहीं भारत में इतने बड़े पैमाने पर अंतर्देशीय व वैदेशिक कारोबार होने के बावजूद भारत न सावन सूखे न भादों हरे वाली शाश्‍वतता में डूबा रहा.

डिसकवरी आफ इंडियामध्‍य एशिया के इतिहास में उल्‍लेख के कारण अग्रवाल के इतिहासप्रेमी मन में अस्‍त्राखान के भारतीय व्‍यापरियों का इतिहास भूगोल जानने की इच्‍छा जगी. पर उन्‍हें स्‍टीफेन फ्रेडरिक डेल  के इंडियन मर्चेंट्स एंड यूरेशियन ट्रेडपढ कर यह दुख हुआ कि सुरेंद्र गोपाल नामक जिस पहले भारतीय और गैर रूसी इतिहासकार ने अस्‍त्राखान के दस्‍तावेज का महत्‍व समझा --- दि इंडियन ट्रेड एट दि एशियन फ्रंटियर संकलन में छपे उसके पेपर ‘’मारवाड़ी बारायेव: ऐन इंडियन ट्रेडर इन रशिया इन दि एटींथ सेंचुरी की इतिहासकारों ने कोई नोटिस ही नहीं ली. ‘’खोज कठिन है’’ शीर्षक से अस्‍त्राखान में भारतीय व्‍यापारियों की सराय का आंखो देखा हाल-सा सुनाते डॉ अग्रवाल हिंदी सराय के चौक में कितने गर्व से खड़े दिखते हैं जैसे सदियों पूर्व के इतिहास और भूगोल के बीच इत्‍मिनान से खड़े हों. सराय कोई रात बिताने वाली जगह नहीं, बल्‍कि महल प्रासाद है जहॉं सुख से रहा जा सके. यहॉं का इतिहास भूगोल बताता है कि ईसापूर्व की छठी सातवीं शती में यहॉं सरमाती कबीले बसे; फिर गुन जाति के लोग व बाद में खजार कगामात आए जो यहूदी थे. इन्‍होंने अपनी राजधानी को ईतिल नाम दिया जो व्‍यापारिक गतिविधियों का एक बड़ा केंद्र हुआ करता था. समृद्धि के कारण ही इस पर14वीं शती में तैमूरलंग ने आक्रमण किया, तातारों मंगोलों के हमले हुए पर जब यहॉं रूसी शासन कायम हुआ तो यहॉं की बसावट अस्‍तरखान कहलाने लगी.

पुरुषोत्‍तम जी अस्‍त्राखान का आशय यह बताते हैं कि जाइचिए पहाड़ी पर पहला लकड़ी का घर अस्‍त्रोक नामक व्‍यक्‍ति का बनने के कारण बाद में यह अस्‍त्राखान नाम से मशहूर हुआ. यहीं एक महत्‍वपूर्ण नगर है हाजी तरखान यानी टैक्‍स हैवेन जिसका जिक्र अपने यात्रा वृत्‍तांत में इब्‍न बतूता ने किया है. वे कहते हैं,17वीं-18वीं शती में अस्‍त्राखान रूस के पूर्वी व्‍यापार का मुख्‍य केंद्र बन चुका था. हर देश के व्‍यापारियों की सराय के क्रम में भारतीय व्‍यापारियों की सराय भी बनी जो बाद में चल कर हिंदी सराय कहलाई. पर अग्रवाल कहते हैं, लोग तातार बाजार ओर हिंदी सराय से भारत के रिश्‍ते को जानते जरूर हैं. बीच बीच में वोल्‍गा के प्रशस्‍त पाट की चर्चा भी वे करते हैं तथा रूस में महत्‍वपूर्ण माने जाने वाले कवियों ओर लेखकों की भी पर तातार बाजार जो हिंदी सराय के हिंदियों की रिहाइश थी, अब उसका कोई नामनिशान शेष नहीं है.

अस्‍त्राखान यात्रा के दूसरे दिन की शुरुआत सिटी हिस्‍ट्री म्‍युजियम व क्‍रूप्‍सकाया लाइब्रेरी से होती है तथा लगभग आंखों देखा हाल सा सुनाते हुए अग्रवाल डॉ.पी.एस.पलास लिखित एक ऐसी पुस्‍तक से तमाम उद्धरण प्रस्‍तत करते हैं जिससे हिंदी सराय के रोजमर्रा के जीवन की विशिष्‍टताऍं जीवंत हो उठती हैं.  साथ ही एक फ्रेंच कवयित्री गेल रचित यात्रावृत्‍त स्‍वर्णसदी में दो यात्राएं से भारतीय व्‍यापारियों व हिंदुओं के संस्‍कारों की खासा जानकारी मिलती है. अग्रवाल ने पुस्‍तक में मिखाइल चुल्‍कोव कृत रुसी व्‍यापार का इतिहास-आरंभ से अंत तक व एलेग्‍लेंदर आई.युख्‍त की पुस्‍तक से भी कुछ महत्‍वपूर्ण सूचनाऍं प्रस्‍तुत करते हैं जिससे भारतीय व्‍यापारियों व हिंदी सराय का एक विश्‍वसनीय वृत्‍तांत उद्घाटित होता है. शाम को सिटी सेंटर की रौनक देखते हुए उन्‍हें समान में दो चांद आपस में गुत्‍थमगुत्‍था दिखे जिनका चित्र फेसबुक पर देख कथाकर मनीषा कुलश्रेष्‍ठ के जेहन में चॉंद का मुँह टेढ़ा है प्रतिबिम्‍बित हो उठता है. आखिरी अध्‍याय स्‍पासीबा...दस्वीदानिया में वे सफल व्‍यापारी मारवाड़ी बारायेव की कहानी बयान करते हैं जिसने अस्‍त्राखान के गवर्नर तातिशेव के अत्‍याचारों से बचने के लिए ईसाइयत अपना ली थी.

केवल 6 सितंबर से 13 सितंबर की दोपहर तक की इस संक्षिप्‍त यात्रा में पुरुषोत्‍तम अग्रवाल का रोजनामचा लिखना लगातार जारी रहा. जारी रहे फेसबुक पर भारतीय दोस्‍तों से जीवंत संपर्क संवाद. इतिहासकारों के लिए यह पुस्‍तक चाहे जो मायने रखे, रूस में कभी अस्‍तित्‍व में रहे हिंदी सराय के जरिए भारतीय व्‍यापारियों के जीवन और रहन-सहन को समझने की यह धुन हिंदी को उस विरल यायावरी से संपन्‍न करती है जिसका अभाव आज भी हिंदी में सबसे ज्‍यादा महसूस किया जाता है.
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डॉ.ओम निश्‍चल
जी-1/506 ए, उत्‍तम नगर, नई दिल्‍ली-110059
मेल:omnishchal@gmail.com, /फोन: 08447289976

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  1. रामजी तिवारी3 जून 2015, 5:16:00 pm

    बीते वर्ष इसे पढ़ा था । यह पुस्तक कई हिसाब से एक जरुरी पुस्तक है । एक तो इससे पहले उस पूरे क्षेत्र को लेकर हिंदी में कुछ ख़ास लिखा नहीं गया था। जबकि यह पुस्तक उस पुराने रिश्ते को उद्घाटित करती है, जो सदियों पहले से हमारे और उनके बीच मौजूद रहा है। और दूसरे यह, कि यात्रा वृत्तांत को कैसे निबाहा जाना चाहिए। उसमे की गयी यात्रा, उसमें देखा गया समाज और उसमें जिया गया जीवन किस अनुपात में हो । और साथ ही साथ वह कितने नयेपन को हमारे सामने ले आता हो । जाहिर है कि यह किताब ऐसे सभी तथ्यों को निबाहती है ।

    ओम सर का आभार, जिन्होंने इस समीक्षा के माध्यम से इस महत्वपूर्ण पुस्तक के बारे में हम सबकी बात भी कह दी है ।

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  2. बिभास कुमार3 जून 2015, 5:19:00 pm

    उत्सुकता जगाती समीक्षा। मैंने ऑर्डर दे दिया है।

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