सैराट : संवाद (३): कैलाश वानखेड़े





मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ पर विष्णु खरे के आलेख से प्रारम्भ ‘वाद/विवाद/संवाद’ की अगली कड़ी में कथाकार कैलाश वानखेड़े का आलेख प्रस्तुत है. इससे पहले आपने मराठी/अंग्रेजी के फ़िल्म- आलोचक आर. बी. तायडे का अंग्रेजी में लिखा आलेख पढ़ा.  
पूर्व के दोनों आलेखों की प्रकृति वैचारिक–विवेचनात्मक थी. 

कैलाश वानखेड़े ने इस फ़िल्म को एक कथाकार की तरह देखा है और इस संवेदनशील लिखत में खुद उनके अपने अनुभव भी शामिल हैं.

जिस समाज में प्रेमियों की हत्याएं ‘आनर’ (honour) के नाम पर होती हों वहां सोचना होगा ‘आनर’ है क्या ?. इसे 'कस्टोडियन' (custodian) किलिंग कहना चाहिए. यह फ़िल्म भारतीय समाज की संरचना पर जलता हुआ सवाल है.  



प्रेम पानी से तरबतर सैराट                                
 कैलाश वानखेड़े



मेरे पास शुरूआती शब्द नही है. सैराट के अंत के बाद निशब्द हो गया था. सबकुछ इतना अचानक हो गया था कि नन्हा आकाश घर से बाहर निकलते हुए रो रहा था. तब तक भीतर का बहुत कुछ टूटकर बहने की बजाय अटक गया था. अबोध बालक के पैर के निशान सड़क पर नही समाज के थोबड़े पर दिख रहे थे. लाल रक्तिम. वह चलता जा रहा था. वह रो रहा था. गली सुनसान थी. मल्टीप्लेक्स में अँधेरा सन्नाटे के साथ मरा पड़ा था, मुर्दा शांति से भरा हुआ. फिर लोग उठने लगे. मै बैठा रहा.  चुप था. लोग जा रहे थे. बैठा रहा मै. जैसे भूल गया था अपने आपको. अपने घर को. शहर को. नौकरी को. मन को. और जब गेट बंद करने वाला आया तब लगा अब तो जाना होगा. उठना होगा. दिमाग बंद था. जबान पर ताला जड़ दिया था. बस चुप था कि लगा, वो जो मारे जा रहे है, वे कौन थे?
मनुष्य..?

इस देश में किसी इंसान को किस रूप में पहचानते है. नाम से या शक्ल से. उसके काम से. क्या किसी मनुष्य को जानना इतना पर्याप्त नही है कि वह एक इंसान है? सच बताना नाम के साथ सरनेम जानकर और क्या जानना चाहते है?  उसका धंधा या उसकी हैसियत ? सरनेमविहीन आदमी से स्त्री से आखिर क्या परेशानी है ?

आप सोचियेगा, आपका दिमाग उसके बारे में कौन कौन सी जानकारी इकठ्ठी करना चाहता है?
तो नागराज मुन्जाले बड़े ही खिलदंडे अंदाज से माइक पकडकर परश्या की तलाश में हमें लगा देते है. परश्या एक झलक देखने की हसरत में हैंडपंप चला रहा है. कई बर्तन बिना डिमांड के भरकर दे रहा है. तमन्ना की भरी पूरी नदी से भरा हुआ है कि बस एक बार आर्ची दिख जाए. एक बार दीदार कर लू. ख़्वाब नींद में अब बडबडाने लगे है कि दोस्तों के साथ घरवालों को पता चल गया कि कालेज के पहले साल का यह मासूम किशोर अब इश्क की राह पर निकल गया है. इतना इतना आगे पहुँच गया है कि उसने एक ख़त लिख दिया.



ख़त.
प्रेमपत्र.  जो लिखे नही जाते है, उसने लिख दिया. प्रेम करना और उसे खत में अक्षरों से हकीकत करना, कितना मुश्किल है? वो जानते है जिन्होंने इश्क किया लेकिन लिख नही पाए एक प्रेम पत्र. आपने किसी से प्रेम किया है?



प्रेम.
आर्ची उस ख़त को लिए बिना हर बार एक सवाल भेजती है, उस तुतलानी वाली उम्र के लडके के हाथ जिसके हाथ में परश्या का प्रेमपत्र है. ख़त पढ़ा नही गया और सवालों की लाइन राजमार्ग पर सरपट भागती है कि दर्शक को लगता है, अब क्या? जिज्ञासा, कौतुहल..क्या रिस्पांस होगा?वे सब चुप हो जाते है जिन्होंने प्यार किया लेकिन इजहार नही किया. हिम्मत नही हुई. ताकत नही थी कि लिख दे एक ख़त. चार लाइन अढाई अक्षर के साथ. एक लाइन लिख पाने की हसरत ताउम्र लिए बैठे थे कई, वे जो उम्र के अंतिम पड़ाव में या अधेड़ हो गए कि जिन्दगी से बेदखल हो चुके थे. जो इश्क में थे वे जानते है उस ख़त में क्या होगा, इसलिए वे प्रेम पत्र लिखते नही.

ख़त,  एक अनुरोध, एक निवेदन, एक मन, एक सपना, एक हसरत, एक जिन्दगी, एक विश्व ही तो है. ताउम्र की खुराक है प्रेमपत्र. जवाब मिले न मिले लिखा ही जाना चाहिए. परश्या जिसकी मां मछली बेचती है. खुशियाँ लाती है. बाप अपना घर मछली पकड़ने से चलाता है. मां बाप का सपना. पढ़ेगा तो कुछ बनेगा? अमूमन यही सपना देखा भोगा जाता है. जीवन यही है, यही माना है बापों ने. माओ ने और लड़का है कि लड़की के चक्कर में पड़ जाता है. लड़की प्यार में शिद्दत से डूब जाती है कि सभ्य समाज में पगला जाती है. जो प्रेम करते है वो पागल हो जाते है. पागल न बने अपने बच्चे, इसके लिए तमाम जतन करते है. लड़की अपने मन से जीने न लग जाए. कहाँ जीवन जिया है अपनी मनमर्जी से माओ बापों ने. वे अपनी जीवन का सबसे बड़ा बदला अपनी औलाद से लेते है. इसलिए बचपन से सिखाते है. आज्ञाकारी बनाने के लिए हर संभव हथियार का इस्तेमाल करते है.

सैराट में गाने बजते है. स्वप्नदृश्य के मनोहारी संसार में गीत के बोल किसी अनाम फूल के झाड से इस तरह झरते है कि पुरे सिनेमा हाल में बिखर जाते है. फूल, पेड़ आसमान और सूखे दरख्त पर परश्या और आर्ची की बजाय दर्शक खुद बैठ जाते है. वे जो प्यार करते है/करना चाहते थे वे. वे सब जो मनुष्य है. वे सब कैमरे के भीतर उस जगह पहुँच जाते है जहाँ से खुद को खुद की खबर नही मिलती. शब्द मिलते है जो इतने धीमे से दिमाग के अंदर दाखिल हो जाते है कि दिल की धडकन के सिवा कुछ सुनाई नही देता.

और तभी दलित कविता, नामदेव ढसाल से लेकर केशव सुत पढ़ाने में डूबा हुआ प्रोफेसर लोखंडे को एक लड़का दिखता है. जो सबसे बेखबर होकर मोबाइल पर बात कर रहा है. वे उससे पूछते है कौन हो तुम? वह लड़का जवाबी शब्दों के लिए जबान चलाने की बजाय अपना हाथ चलाता है. सटाक...गाल पर थप्पड़...लडके को यह बेहद अपमानजनक लगता है कि कोई उससे पूछे, तुम कौन हो? और लड़का चला जाता है. नाम है प्रिंस. उसी कक्षा में बैठी है आर्ची. बैठा है परश्या. और कई छात्र छात्राए. कोई आवाज नही आती. शाम ढले प्रिंस के पिता बुलाते है प्राचार्य,प्रोफेसरों को कि सब पहचान ले प्रिंस को ताकि इस तरह का गुस्सा दिलाने वाला सवाल कोई प्रोफ़ेसर न कर सके. अन्यथा प्रिंस का गुस्सा न जाने क्या कर बैठे. गर्वित है पिता, शर्मसार है बहन. कुछ भी कर सकता है की भावना के साथ श्रेष्ठता की ग्रन्थी प्रिंस का स्थाई मुकुट में तब्दील हो जाती है.

जिस घर में प्रिंस भी रहता है, उसका नाम है अर्चना.  अर्चना बोले तो आर्ची. उस घर के कब्जे में है दूर दूर तक पसरा हुआ खेत, जिसमें गन्ने है. केले है और भी बहुत कुछ. गन्ने की खेती मतलब शक्कर कारखाना. शक्कर उत्पादान के साथ है कॉलेज. बड़ी बड़ी शैक्षणिक संस्थाओ का अर्थ है डोनेशन जो पढने और पढ़ाने वालों से लिया जाता है. शैक्षणिक संस्थाओं के निजीकरण का दूर तक पसरा हुआ खेत. जो जीवन में एक बार बोया जाता है और जब चाहा तब काटी जाती है फसल. इन सबका कुल जमा है सत्ता. अर्थतंत्र का गठजोड़ के साथ यहाँ की गरीबी का असली कारण सामाजिक असमानता का स्वर जो लोगों को सुनाई नही देता है.

सोलापुर का अर्थ मेरे लिए पंढरपुर के दर्शनाभिलाशी रमाबाई और अम्बेडकर का संवाद, कवि संत चोखामेला, लेखक योगिराज वाघमारे जी से मुलाक़ात और मेरे पिता द्वारा लाई जाने वाली सोलापुरी चादरे है. सोलापुर की सीमा कर्नाटक से लगी है. ये सारी बाते और इनका असर. सोलापुर जिले की इसी पृष्ठभूमि के साथ फिल्म मुखर होती है. गाँव क़स्बा और लोग...यही के है. इन्हीं बातों से बने बिगड़े है. सैराट का वातावरण. वेशभूषा में जो मेहनत है वो सोलापुर के मन को उतार देती है रुपहले पर्दे पर. फिल्म में वेशभूषा आर्थिक स्थिति, सामाजिक जीवन का बयान है. सोलापुर का शहर है, करमाळा. उसी तहसील के एक गाँव में नागराज का जन्म हुआ है. इसी कस्बे में फिल्म जवान होती है. इसी परिवेश में फेंड्ररी का कैशौर्य विकसित हुआ था. बार्शी सोलापुर उस्मानाबाद की सडक और कस्बे के भीतर जाकर पता चलता है अर्थतंत्र मुट्ठीभर लोगों के कब्जे में है और ढेर सारे मजूर. कम मजदूरी. ढेर सारा काम. तभी तो तीखी सब्जी का है वर्हाड़. वर्हाडी सब्जी मतलब पानी मांगने के लिए बेबस हो जाये. पानी पानी करती है जबान.




पानी.
पानी, किसके घर का पीना चाहिए. जाति व्यवस्था में खानपान दुसरे पायदान पर है. पानी जिसके घर पीना है, वह कौन है?जो पी रहा है वो कौन?

आर्ची जब परश्या के मां से पिने के लिए पानी मांगती है. तब मां बेटी की शक्ल पर जाति का इतिहास पढने को मिलता है. अमीर बाप की लड़की पानी नही मांगती है. जाति मांगती है पानी. वही आर्ची के मौसेरे भाई को पानी पिलाने के लिए दादी कहती है, तब कहता है कि वो पाटिल है. तब बुढिया कहती है, पाटिल को प्यास नही लगती?

प्यास सबको लगती है. सबको पानी चाहिए. सबको पानी मिले इसलिए ही तो हुआ तो महाड़ सत्याग्रह. चवदार तालाब के पानी का मतलब भेदभावरहित समाज की संकल्पना है जो इन दो दृश्यों में निर्देशक कह देता है. इसलिए आर्ची प्यास न होने के बावजूद परश्या के घर का पानी पीकर इस खतरनाक लाइन को तोड़ देती है.

उस समाज में, जो सोलापुर का होने के बाद भी देश के किसी भी जगह का हो सकता है, वहां प्रेम करने लगता है परश्या. आर्ची को उसके बहतर फीसदी अंक होने की बात रोमांचित करती है. उसका अंदाज और मासूमियत के बीच कब ये प्रेम खिलदंडता के साथ अपने उफान पर आ जाता है, पता ही नही चलता क्योंकि वे अपने आसपास के ही प्रेमी है. आसपास के प्रेमी का प्रेम देखना एक सपना है और इसे साकार करते है नागराज. इस समाज में प्रेम को गुनाह माना जाता है और अपनी जाति में हो तो वरदान समझ लेता है. इसलिए सयाने लोगबाग प्रेम सोच समझकर करते है. अपनी बिरादरी की अनिवार्य शर्त के बाद उसकी औकात अगर ठीकठाक है तो इस प्रेम को विद्रोह का नारा बनाने में कोई देर नही लगती. अकस्मात भी नही लगता है कि ऐसे प्रेम नियोजित षड्यंत्र होते है जो आपस में एक दुसरे ही के खिलाफ बुना जाता है. उस माहौल में मछली दूकान पर परश्या की मां को आत्या’(पिता की बहन) बोलते हुए प्रणाम करने के तरीके से तय कर देती है आर्ची की मंजिल.

गाँव में रहते हुए वो रायल इनफील्ड चलाती है. परश्या के घर आकर पानी पीकर कहती है, परश्या की मां बहन को कि वह अकेली जा रही है खेत में ट्रैक्टर चलाते हुए. अकेली..हाँ..अकेली ..कि परश्या को सुनाती है कि वह आ जाए गन्ने के खेत में. प्रेमिका की हिम्मत, इतनी है कि क्लास में या पीटी करते हुए वह जमाने भर को ठेंगा दिखाती है. कालेज में आर्ची से दूर रहने की सलाह देकर भीड़ परश्या की पिटाई करती है तो कहती है, किसी ने भी इसे हाथ लगाया तो उसकी खैर नही. और तमाम जोखिम उठाकर प्रिंस के बर्थ डे पर अपने घर परश्या को बुलाती है. जहाँ झींग झींग झिन्गाट बजता है. यह बिंदास नाच है. बिन्घास्त गाना है, जिस पर झूमझूमकर नाचना ही है, इसी तरह जीना है कि इसी का मतलब सैराट है....इसमें अकेला व्यक्ति अपने साथ अपने समूह के साथ एकाकार होकर खो जाता है, नाच में संगीत में ,गीत में. इसमें मन है, उत्साह है और ढेर सारा आनन्द. अपने हिसाब से अपने मन की सुनने वाली ये बिंदास हवा ही है सैराट. किसी की परवाह किये बिना जीने की उद्दाम लालसा का साकार रूप यहाँ आकर जीने लगती है कि बैठे बैठे पैर थिरकने लगते है. अजय अतुल का संगीत गाने झंझाट से आता है और परश्या की मुहब्बत का परचम लहराते हुए आता है कि दर्शक झूम उठता है. नाचने लगता है कि उसे परश्या की मुहब्बत की कामयाबी का जश्न मनाना है. इसलिए वह खुलकर जश्न में शामिल होता है. नाचता गाता है आल्हादित होता है.

यही से सैराट का दूसरा हिस्सा शुरू होता है. यही से प्रेम का मतलब पता चलता है. यही पर परश्या और दोस्तों की जानलेवा पिटाई होती है. यही से पता चलता है कि परश्या ने बिना सोचे बिना गणित के प्रेम किया है. सजा तो मिलनी चाहिए क्योंकि यह विजातीय प्रेम है. यह अमीर घर की लड़की से गरीब का प्यार नही है. गैर दलित लड़की से प्रेम...इज्जत पर डाका. रक्तशुद्धता के तमाम जकडबंदी को तोड़ने का अपराध है. तमाम परम्परा, संस्कृति को चुनौती देकर बाप की उस मर्दानगी पर सवालिए निशान लगने लगते है, जो अपनी बेटी को अपनी सम्पति मानता है. जब चाहेगा जिससे चाहेगा उससे शादी करवाने का उसे ठेका मिला है, इस ठेके के काम को ध्वस्त करने पर जो तिलमिलाहट है वह कई गुना इसलिए बढ़ जाती है कि परश्या उस जमात का प्रतिनिधित्व करता है जिसे हाशिये पर रखा गया है, जिसे गाँव बाहर सडने के लिए छोड़ दिया. जिसकी बार्डर तय है, वह बार्डर तोड़कर रक्त शुद्धता के महान सिद्धांत की ऐसी की तैसी कर देता है. जाति की बात इस बर्बरता को और बढ़ाती है जब गन्ने के खेत में सलीम कहता है, वो तुझे गाड देंगे...यह पक्का भरोसा है सलीम को.

इस अपराध की सजा में जवखेडा से लेकर ठेठ तमिलनाडु तक टुकड़े टुकड़े करने में कोई हिचक नही होती है, महानता का इतिहास का ढोल पीटने वालों को. यह तब और अपने बर्बरतम रूप में दिखती है कि इस प्रेम की सजा मां बाप को मिलती है., आख़िरकार परश्या के बहन की शादी न होना और परिवार को अपना गाँव छोड़कर जाना ही पड़ता है. परश्या का बाप अपने गाल पर चांटे लगाते हुए अपनी भाषा भूल जाते है. अपनी भाषा को भूलना मतलब अपने आपको खो देना, अपनी जमीं से बेदखल हो जाना है. अब गाँव बाहर भी नही रह सकते. सीमा रेखा पार भी नही. दिखना नही चाहिए. दिखा तो जान ले लेंगे. विदर्भ में मुझे मेरे ममेरे भाई के बेटे का अपराध याद आता है. घर छोडकर उनका रहना दिखता है. सब घटित होता है, मेरे भीतर. वह पिता मेरे ममेरे भाई में बदल जाता है.


आख़िरकर पकडे जाते है दो दोस्तों के साथ आर्ची परश्या. आर्ची को ममेरा भाई बताता है, बलात्कार, अपहरण का केस परश्या पर लगा दिया है. आर्ची उसी आक्रमकता से थानेदार से लडती है. मैं ले गई थी परश्या को. अपनी मर्जी से गई थी. उसे और साथियों को छोड़ दो. बाप तमाम हैसियत के बाद भी निरीह दिखता है. वे तमाम बाप वो व्यवस्था चाहते है कि परश्या और उसके दोस्त जेल में सड जाए. जेल,  न्यायपालिका, पुलिस...जिन्दगी बर्बाद करने के लिए काफी है. छुड़ाती है सबको. जो साहस है, पहल है, हिम्मत है, वह सारी आर्ची में डाल दी लेखक निर्देशक ने. इस नजरिये से देखेंगे तो फिल्म मराठी की नायिका की छवि को तोडती है. वही दलित नायक के बहाने दलित जीवन की त्रासदी को उकेरती है. दर्द और जिन्दगी एक सी लगती है. वो जीवन उसका दर्शन बेहद संक्षिप्त रूप में दिखाकर उसका कैनवास इतना बड़ा कर दिया कि अपनी मर्जी की भेदभाव रहित जीवन जीने की चाह रखने वाले को यह अपनी फिल्म लगती है. वो लड़की जिसे कोख में मारने के बाद भी अपराधबोध से ग्रसित नही होता है समाज. वो लड़की जिसे पैदा होने के बाद मूलभूत अधिकार से वंचित किया जाता है. जिसे प्राइवेट प्रापर्टी मानकर दान किया जाता है.

जिसे पिता की सम्पति में कोई हिस्सा नही दिया जाता है. क्योंकि लड़की, मनुष्य नही सम्पति है. जिसे एक उम्र के बाद उस घर में नही रहना है. पराया धन है. अब उसकी अर्थी ही आनी है. उस समाज की आँख से सिर्फ आँख मिलाते है नागराज मुन्जाले. वे जो करते आ रहे है तय कथा, पटकथा, दलित व्यक्ति का जीवन, भूमिका,व्यवहार. उनको यह नागवार लगता है कि हीरो के रूप में दलित क्यों? यदि दलित ही रखना था तो फिर कथित ऊची जात की लड़की को प्रेमिका क्यों बनाया...क्यों?

सैराट अपने समय के परिवर्तन को बेहद सहज तरीके से दृश्यांकित करती जाती है. फिर महिला का विधायक होना हो, या आर्ची का पुरुष अधिकार मान लिए गए वाहनों की ड्रायविंग करना या प्रेमी के लिए बंदूक लेना या थानेदार से पिता से भिड़ना.

सैराट एक नायिका प्रधान कमर्शियल फिल्म है. डाक्यूमेंट्री नही है. इसलिए इसमें झिंगाट संगीत और गाने है. लेकिन यह आम फिल्म नही है. आप इसे किस जगह से खड़े होकर देख रहे है? क्या देख रहे है? एक अदना सा दृश्य, दो शब्द, बर्ताव, चेहरे के भाव तय कर देते है पूरी फिल्म के उद्देश्य को. अब दलित को गाली देना उतना सरल नही रहा तो वे अपनी घृणा की अभिव्यक्ति इसी तरह से बदले हुए शब्द, बर्ताव और हाव भाव से कर प्रताड़ित करते है. प्रताड़ित होने वाली की निगाह से सैराट में बहुत कुछ टूटता, बनता है? यह  समझा पाना मुश्किल है क्योंकि जहाँ सर्वज्ञ से भरा हुआ ज्ञान है, वहां अभी तक जिस तरह से जाति आई है फिल्मों में उस तरह से इसमें जाति सामने नही आती. इसमें तो वह बिना बडबोलेपन से, गाली से. भाषण से नही आई. वह चेहरे पर, उसके व्यवहार में परिलक्षित होती है. 

इस तरह से दिखती है कि चुभती है. अपना जीवन और सपने को एक बड़ी खेप फ़िल्म देखने आ रही है कि सैराट मराठी फिल्म इतिहास की सबसे बड़ी सुपर हिट हो गई है.
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लेखक कैलाश वानखेड़े का सत्यापनकहानी संग्रह चर्चित है और वह सम्प्रति म.प्र.राज्य प्रशासनिक सेवा में कार्यरत हैं.
kailashwankhede70@gmail.com
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.विष्णु खरे के  आलेख के लिए यहाँ क्लिक करें

19/Post a Comment/Comments

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  1. गहन प्रभाव छोड़ती है समीक्षा। क्या क्वांटम विज्ञान का अंतिम सत्य है? क्या उसका पोस्ट प्रपोसल सम्भव नहीं?
    सैराट पर फ़रीद जी की टिप्पणी भी महत्त्वपूर्ण है। बहस ने सार्थक रूप लिया।

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  2. बेहद सुलझी हुई और फ़िल्म को गहराई तक खंगालती यह समीक्षा भी कोरी फ़िल्म समीक्षा नहीं है, जैसे सैराट मात्र एक फ़िल्म कि देखा और निकल लिए। यह फ़िल्म की सम्वेदना को पकड़ती है और उसके सहारे के साहित्यिक कृति की भाँति उसकी समाजिक,सांस्कृतिक,आर्थिक और जातीय पड़ताल ही नहीं, क्षेत्रीय रंग तलाशती है। एक कथाकार की सधी हुई आलोचकीय दृष्टि से लिखी यह समीक्षा फ़िल्म समीक्षा के उस चलताऊ रूप को नकारती है जिसमें कला के अन्य अनुशासनों के लिए कोई स्थान नहीं होता। बधाई कैलाश भाई। बधाई समालोचन।

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  3. वाह कैलाश भाई. बहुत अच्छी समीक्षा लिखी है. इस फ़िल्म को देखते हुए मैंने भी वह सब कुछ महसूस किया जो आपने लिखा. आपका आभार.

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  4. पूरा पढ़ लिया कैलाश भाई। लगा एक बार और फिल्म देख ले ली। एक बार फिर देखे हुए को जी लिया। फिर से कुछ देर के निस्तबद्ध और निशब्द हो गया। सैराट मराठी समाज के कोख से निकली जिंदा फिल्म है कोई प्रोजेक्ट नहीं जो किसी बड़े स्टार के बोर्ड पर आने से बन जाती है। इसलिए इसमें उस समाज का सच है। कैसा सच?? अवांछित प्यार को पाने की उमंग का। सपने भी तो सच का ही हिस्सा होते हैं! और प्यार करने की सजा का। एक मछुआरे के बेटे का पाटिल की बेटी से प्यार का। जमीनी सचाइयों उतनी खूबसूरत नहीं हैं जितना प्यार था इसलिए उसमें तनाव भी आता है। हाथपाई भी आती है पर एक क्षण को खोने के बाद परश्या और आर्ची दोनों को अपने साथी की अहमियत पता चलती है। फिल्म का पहला हिस्सा विष्णु खरे को 'आती क्या खंडाला' टाइप लगती है तो ये उनका नजर का दोष ही है किशेर जीवन के उमंगे ललक तड़प सपने उन्हें आती क्या खंडाला टाइप लगते हैं तो ये उनकी अपनी दिक्कत है। वे पूछते हैं कि दर्शकों ने फिल्म के किस हिस्से को स्वीकार कर इसपर अपना पैसा न्योछावर किया?? खरे साहब को फिल्म देखते वक्त अपने चारों तरफ आए का्रॅड को देखना चाहिए। उसमें अनगिनत परश्या मिलेंगे उन्हें। परश्या के मां-बाप मिलेगी। परिश्या को अपनाने का साहस करने वाली आर्ची दिखेंगी। इन सबको फिल्म याद रहती है टिकट के पैसे नहंी!

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  5. आप फिल्म देखकर निशब्द हुए और मैं आपको पढ़कर। फिल्म देखना चाहता हूं पर देखने की हिम्मत होगी नहीं अब। रोज बेशर्म सवालों से जूझना पड़ता है कि कहां है अत्याचार, कहां है जातिभेद।

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  6. जहाँ मुझे बेहद ख़ुशी है कि ''सैराट'' पर मेरी टिप्पणी से यहाँ तक बात बढ़ी,वहीं आश्चर्य यह है कि मेरे और तायडे साहेब के उठाए हुए प्रश्नों का कोई उत्तर या तो दे नहीं पा रहा है या देना नहीं चाहता है.वृथाभावुक शब्दावली से कुछ नहीं होने वाला.कैलाश वानखेड़े के पहले पैराग्राफ से लगता है कि वह स्वयं अपनी भावनाओं का कुछ विश्लेषण करेंगे लेकिन उन्हें मधुर-मधुर वाग्जाल में भयावह यथार्थ को फँसा देना ही मुफीद लगता है.वह लिखते हैं कि ''कैराट'' अपने समय के परिवर्तन को बेहद सहज तरीके से दृश्यांकित करती जाती है.कौन सा परिवर्तन ? एक सवर्ण,संपन्न,फ्यूडल माता-पिता-भाई द्वारा पिस्तौलें-जीपें लेकर अपनी ही बेटी का पीछा एक जानवर की तरह किया जाना ? एक दलित मास्टर को एक बार स्कूल में और दूसरी बार मालिक की कोठी में ज़लील किया जाना और उसका अपमान का घूँट पीकर रह जाना ? तीन साल तक प्रतिहिंसा को न भूलना और अंत में विधायिका मा की मिलीभगत से बेटी-दामाद की गर्दनें काट देना ? यदि नन्हा आकाश भी वहाँ होता तो उसे भी इसी तरह हलाल कर दिया जाता - ऐसा खूब हो रहा है - लेकिन स्वयं निदेशक के पास शायद इतनी नृशंसता दिखाने का साहस न बच रहा हो.या शायद उसने उसे ''The Return of Sairat'' के ओपनिंग सीक्वेंस के लिए बचा लिया हो.कैलाश वानखेड़े ने दो विवाहित प्रेमी युवा माता-पिता की लाशों के खून से तरबतर फिल्म को ''प्रेम पानी से तरबतर सैराट'' कहा है.लोकप्रियता की गुलाम भावुक लफ्फाज़ी आदमी को किस बौद्धिक कलावादी फाशिज्म तक ले जा सकती है यह उसका जहालत-भरा लिखित प्रमाण है.

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  7. बेनामी24 मई 2016, 7:09:00 pm

    विष्णु जी क्या चाहते हैं कि नृसंशता को और भी उघाड़ देना चाहिए था। आकाश को पिता के साथ वापस ले आना चाहिए था...और फिर...
    क्या यहाँ उन तमाम ऐसे जाहिलो के मस्तिष्क में सम्मान या सामंती ऐठ को खुरच खुरच कर निकाला जाये?
    क्या दर्शक दीर्घा में बैठे लोग बस आखिरी सीन देखकर फिर वही ढाक के तीन पात हो जाते है?
    विष्णु जी ने एक साथ कई प्रश्न उठाए हैं मुझे वे प्रश्न यक्ष के लगते हैं जिनका उत्तर भी अभी नहीं मिला है युधिस्ठिर को...ये प्रश्न प्रत्येक क्षेत्र के प्रश्न हैं कि जैसे किस नेता को किसने चुना क्यों चुना क्या पसंद था या दलित था या सवर्ण था या सेक्युलर था या साम्प्रदायिक था ये सभी प्रश्न साहित्य के साथ जोड़िये फिर वही मिलेगा आप भारत की तस्वीर के साथ जोड़िये...अभी कोई उत्तर नहीं मिल पायेगा और विष्णु जी एक लेख में ही सारा उत्तर चाहते हैं...अरे 200 300 साल बाद यदि वास्तविक मनुष्य की नैतिकता,वास्तविक शिक्षा,स्वस्थ और स्वच्छ राजनीति, सिनेमाई साहित्य और भाषाई समझ यह सब विकसित हो जाये तब वही इसका उत्तर होगा...
    फ़िल्म तो जो है या जो अब कम हो रहा है उसको दबाकर मवाद की तरह बाहर निकाल कर दिखाती सी लगती है...
    सब कुछ में कहानी पुरानी ही है बस आपके मस्तिष्क में हैप्पी एंडिंग का स्त्राव हो ही रहा था कि ट्रेडजि का सामंती हथौड़ा कुछ दूसरा ही स्त्रावित करवाने लगता है।
    सवर्ण का विरोध एक फैशन भी है वैसे सामन्ती सोच एक वायरस है यह वर्ण देखकर नहीं आती...धन बल वैभव के के साथ जो ऐठ अहंकार आता है वह कुछ भी करवा सकता है
    व्यवस्था परिवर्तन एक लंबे समय की मांग करता है



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  8. सैराटमधल्या अनेक लहान-सहान मुद्द्यांवर देखील मराठीत खूप तपशीलात लिहिलं गेलं आहे. सुरुवातीचा दृश्यहीन कोलाहल आणि शेवटाची आवाजहीन दृश्यमयता यांच्या दरम्यान नागराजने शेकडो गोष्टी खुबीने गुंफल्या आहेत. चांगले पुस्तक अनेकवेळा वाचले जाते आणि दरवेळी त्यातले नवे काही कळते, तसे या चित्रपटाबाबत झाले आहे. हे बारकावे पहिल्या अर्धुकात देखील दिसतात, ज्यांपैकी काहींचा उल्लेख कैलाशजींनी केला आहे. ते जात आणि वर्ग आणि लिंगभेद अशा तिन्ही स्तरांवरचे आहेत. जी माणसं या अनुभवांमधून गेलेली आहेत, त्यांना ते 'दिसतात' आणि ते हे बारकावे 'बघतात' देखील. बाकी अनेकांना दिसत राहिले तरी त्यांच्याकडून ते बघितले जातेच असे नाही.
    आधीचे दोन्ही लेख मी कालच वाचले होते, पण हिंदीत सविस्तर लिहिणे सवयीचे नाही, त्यामुळे भाषेत चुका होण्याच्या धास्तीने लिहिणे टाळले. खरेतर विष्णुजींच्या लेखाचा प्रतिवाद करता येतील असे अनेक मुद्दे आहेत.

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  9. निदेशक को शायद समझ नहीं आया कि भयावह अंतिम दृश्य का निर्वाह कैसे करे.हममें से जो भी माता-पिता हैं जानते हैं कि दो साल के बच्चे सोते हुए (जीवित) माँ-बाप को भी देख कर उन्हें उठाने के लिए उनके पास बैठ कर उनके मुँह पर थपकियाँ देते हैं और थोड़ा शोर मचाने लगते हैं.दृश्य कितना भी भयावह होता,निदेशक को आकाश को माता-पिता के रक्त से सना उन्हीं के बीच में रोते हुए बैठालना ही चाहिए था.वहीं फिल्म ख़त्म होती.निदेशक की शैलीगत सुविधा के लिए अचानक मोहल्ला सुनसान हो जाता है और आकाश अपने अनाथ महाभिनिष्क्रमण पर एक मौन अंत में निकल जाता है.लाशों के बीच दर्जनों सवाल निरुत्तर पड़े हुए हैं.एक तो यही कि हमारे अन्यथा नारीवादी इस नाबालिग माँ की हत्या को किस तरह ले रहे हैं? वानखेड़े स्वयं दलित हैं - उनके ''विश्लेषण'' को लेकर अन्य दलित क्या सोच रहे हैं ?बेनामी कहते हैं कि मैं एक ही लेख में सारा उत्तर चाहता हूँ.मैं उसकी असम्भवता जानता हूँ लेकिन विडंबना है कि ठीक यही माँग मुझसे लगभग मेरी हर 1000 शब्दों की टिपण्णी से की जाती है.वह कह रहे हैं 200-300 साल में सब दुरुस्त हो जाएगा.हाल के बीस वर्षों के विनाशक 'भौतिक विकास' को छोड़ दें तो भारत में पिछले सैकड़ों वर्षों से सिर्फ हर तरह का नैतिक पतन ही हुआ है और रोज़ हो रहा है.आप कस्बाई दैनिक पढ़कर देखिए,''सैराट'' जैसी अनेक घटनाओं सहित वहाँ जो हो रहा है उसे साहित्य आदि में उतार पाना निरंतर असंभव-सा होता जाता है.मैं फिर बहुत स्पष्ट शब्दों में कहना चाहता हूँ,भले ही कितना नाटकीय ही क्यों न लगे, कि सशस्त्र मार्क्सवादी और आम्बेडकरवादी बदलाव के और कुछ भी इस देश और दुनिया को बदल नहीं सकता.बाक़ी सारी बहसें बेकार और जाहिल हैं.200-300 वर्ष मानवता के पास बचे ही नहीं हैं.

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  10. प्रिय कैलाश वानखेड़े जी, गजब का लिखा आपने। शब्द दर शब्द फिल्म चली आँखों के सामने(हालाकि अभी फिल्म नहीं देखी मैंने)। हर बार सामाजिक हकीकत से रूबरू कराती आपकी कलम ने इस बार भी वही किया जिसके लिए आप जाने जाते है। बेहतरीन समीक्षा।

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  11. आपने सैराट का संक्षिप्त अर्थ ''पलायन'' चुना. दुर्गेशसिंह, कमलेश पाण्डेय के बताये जाने पर भी आप पलायन पर टिके रहे.सैराट का अर्थ किसी भी दृष्टी से,शब्दकोष से पलायन नही है. जो मराठी जानते है वे किसी भी सूरत में पलायन को स्वीकार नही कर सकते है.२/ आपने लिखा 'सेक्स' उतना नहीहै?'' सैराट में
    कितना है? सेक्स है ही नही.नागराज चाहते तो सेक्स डाल सकते थे.सेक्स वर्जित नही है.सहज है.सामान्य क्रिया है मनुष्य की.इसलिए इसका उपहास क्यों?३/ आपने लिखाहै,''यहाँ ध्यान रखना होगा कि विजातीय प्रेम/विवाह तथा दलित-स्वीकृति के मामले में मराठी संस्कृति तब भी कुछ पीढ़ियों से अपेक्षाकृत शायद कुछ कम असहिष्णु हुई प्रतीत होती है. ''मराठी संस्कृति क्या होती है? मराठी संस्कृति नाम की कोई संस्कृति नही है.यह बड़ा भारी भ्रम है कि कथित मराठी संस्कृति अपेक्षाकृत कम असहिष्णु है. जवखेडा में दलित लड़के के टुकड़े टुकड़े कर दिए थे.शेगांव में लडके की हत्या कर जला दिया और नदी में राख बहा दी.ये दो साल पुराने उदाहरण है.और बहुत से उदाहरण दिए जा सकते है.४/ निमाड़ पृष्टभूमि पर भालचंद जी की ''चरसा'' पढ़ना जरुरी है संयोग से दस साल मै निमाड़ में रहा हु..संयोग से इंदौर और विदर्भ से हूँ५/ आपने लिखा है,''विचित्र तथ्य है कि फिल्म की नायिका वास्तविक जीवन में अब भी नाबालिग़ है और शायद नायक भी'' क्या विचित्र लगा सर आपको?
    ६/मराठी प्रेस की एखाद खबर दिखांएंगे?आपको एक भी प्रतिक्रिया देखने को नही मिली जबकि मराठी में ढेर सारा लिखा गया है.विवाद हुआ है.अनावश्यक सवाल उठे है.वोआपको नही दिखे,तो इस बारे में कुछ नही कहा जा सकता. ७/ आठ मई को लिखने के बाद अपने मित्र को मेल किया.उन्होंने लिखा कि हिंदी में तब तक(१२मई ) तीन टिपण्णी पढ़ी है,अर्थात लिखा गया है.इसके बाद इसे( फिल्म पर पहली बार लिखा है,इसलिए इसे कह रहा हु.) संपादित किया.इसलिए यह आपकी समीक्षा का जवाब नही है. यह पहले ही लिखा जा चूका था.बहस के मुद्दे पर लिखना था लेकिन लिख नही पाया.
    ८/विदर्भ में मेरे ममेरे भाई, सगे साले का प्रेम विवाह हुआ है. दोनों लडकियां आर्ची के समाज की है.उनके विवाह की घटनाएं बहुत है.वह कभी और हाँ यह अनावश्यक जानकारी कि सैराट जैसा गाँव जिया है.सैराट की तंगी बस्ती जैसी बस्ती में ही जन्मा,पला बढ़ा हु.शायद इसीलिए आपके लिखे हुए,''जहालत-भरा लिखित प्रमाण'' मुझे खटका.खैर आप बुजुर्ग है.

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  12. विष्णु जी आप अपने आपको मराठी मानुष मानते है तो कविता महाजन की टिप्पणी पढ़ समझ गए होंगे

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  13. बेनामी24 मई 2016, 11:30:00 pm

    विष्णु जी नेहरुवियन युग से इतने प्रभावित हैं (ये विष्णु जी का पूर्वाग्रह है और विष्णु जी पर मेरा) कि आने वाली पीढ़ी से नाउम्मीदी की गाँठ को कसते जा रहे हैं। कोई बदलाव नहीं हो सकता की मुद्रा में घर के अनुभवी झल्लाए पीड़ित बुज़ुर्ग की भाँति उपदेश पर उपदेश दे रहे हैं जबकि आने वाली पीढ़ी आपको ससम्मान वक़्त के साथ यथार्थ भी बया करना चाहती है। मैंने कहा था 200 300 वर्ष में अगर हो गया तब यानी उम्मीद की डोर पर ये नैतिकता की पतंग उड़ रही है।
    पूरे समाज में सब अच्छा ही या सब बुरा ही नहीं है ग्रे भी है या कहें ग्रे ही है।... यहाँ एक लेख के भीतर आप सब नहीं कह सकते पर एक ही सिनेमा या साहित्य की किसी एक विधा में आपको सब कुछ चाहिए होता है।
    अरे गुरुदेव किसी एक पार्ट में नहीं ज़िन्दगी अपनी सम्पूर्णता में भी टुकड़ो टुकड़ो से मिलकर बनती है यह आप हम सभी से बेहतर और व्यवस्थित रूप से जानते हैं।
    भावी पीढ़ी को यदि आप अखबार और trp न्यूज़ के बाहर खोजेंगे तो हो सकता है हमारे जैसे आपको चाहने वाले जो आपकी बातो का ज़वाब भी दे सकें मिल सकते हैं पर आप को सुनने को तैयार रहना चाहिए।
    पर हमारी पुरानी पीढ़ी की एक ग्रन्थी है वो ज़वाब को बेज़्ज़ती या असम्मान समझ लेती है। कृपया ऐसा एकदम न समझें।मैं फ़िल्म से इतर हो गया आप सभी क्षमा करेंगे...

    फ़िल्म एक विराट ब्रह्माण्ड के विराट जीवन के किसी एक छोटे से हिस्से को प्रस्तुत कर पाती है। पहल पार्ट खंडाला न होकर मोछिया उठान का प्रेम है जिसने दर्शकों की भीड़ ज़रूर बढ़ाई होगी।
    छोटे कस्बे में जिसे भी उस उम्र में प्रेम हुआ होगा ऐसा ही मिलता जुलता होगा।
    हाँ ऐसी लड़की(प्रेमिका)मिलना थोडा दुःसाध्य है।
    पर ऐसे परिवारों की कमी नहीं है।
    यदि बिना प्रेम के कहानी कही जाये और विषय यही हो तब क्या कॉमर्शियल हिट होगी।
    धर्मवीर भारती जी उपन्यास प्रेम के चलते आज भी हिट है।
    और अंधायुग केवल एकेडमिक रंगमंच या क्लासरूम ताज सीमित हो गया है। इसी विषय पर नाच्यो बहुत गोपाल भी जिसमे प्रेम का एक नया व्यवहार है।
    खुरदुरे पुराने और कस्बाई जीवन के बीच चटख रंग आपको अंत तक दिखलाई पड़ते हैं जो आपकी आँखों का सुकून बने रहते हैं(पहला पार्ट)
    एकदम रूखे चेहरे संगीत भी रुखा दृश्यविधान भी रूखे पर अंतिम दृश्य एकदम चटख खूनी लाल(सन्नाटे का संगीत या कहें रुदन)

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  14. हिंदी के प्रारम्भिक लेखक हिंदी के साथ साथ मराठी भी जानते थे. भारतेंदु ने अपने नाटकों में मराठी का प्रयोग किया है. सरस्वती के महान संपादक महावीरप्रसाद द्विवेदी ने तो मराठी से हिंदी में पर्याप्त अनुवाद किये हैं.

    ‘सैराट’ संवाद भाषाओँ की सीमा से परे जा चुका है. समालोचन में यह चौथा आलेख न केवल ‘मराठी मानुष’ का है बल्कि मराठी में है. इससे पहले इस पर विष्णु खरे का हिंदी में लिखा, आर. बी. तायडे का अंग्रेजी में तथा कैलाश वानखेड़े का हिंदी में लिखा आलेख पढ़ चुके हैं. समालोचन इस तरह से हिंदी-मराठी सहयोग का भी मंच बन चुका है.

    प्रेक्षक का ''सैराट'' झाले असावेत?
    (क्या दर्शक ''सैराट'' हो जाएँ ?)
    ____________________
    जयंत पवार
    http://samalochan.blogspot.in/2016/05/blog-post_25.html

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  15. http://chhammakchhallokahis.blogspot.in/2016/05/302.html?m=0
    सैराट पर मेरी टिपण्णी यहाँ पढ़ी जा सकती है। फ़िल्म को फ़िल्म की तरह भी देखे जाने की कोशिश हो। भावना की चाशनी इतनी गाढ़ी ना हो कि फ़िल्म और उसका क्राफ्ट उसमें दबकर रह जाए। ...कैलाश जी से क्षमा याचना सहित।

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  16. समालोचन पर आप सबको पढ़कर अच्छा लगा। आप एक फिल्म ‘सैराट’ के बहाने कितने बहस-मुबाहिसे संग पेश आ रहे हैं। भाषा की इस पेशगी में आपके मत, तर्क, विचार आदि प्रत्यक्ष हैं। आप सब की यह प्रस्तुति ‘सिनेमा’ को ज़िदा आदमी की तरह देखने का तमीज़ सिखलाती है। आपके अपने सिर्फ चिन्तन और विचार ही नहीं, अपितु पूर्वग्रह और दुराग्रह हो सकते हैं; लेकिन यह तो आपका निजी व्यक्तित्व है जिसे आपने बड़े जतन से गढ़ा और बनाया है। उस पर हमारी कोई टीका-टिप्पणी उचित नहीं।

    मुझे आश्चर्य संग प्रसन्नता है कि आपका लेखकीय/पाठकीय-वैविध्य यानी कैनवास कितना बड़ा है। आप अपनी पढ़न्तु/लिखन्तु दुनिया में अंग्रेजी, मराठी, हिंदी (हो सकता है अन्य भाषाओं) में पँवरते हैं। मुझ जैसे शिक्षित लड़के के लिए यह बड़ी सीख है। शिक्षाप्रद है यह देखना कि वैचारिकी कैसे अन्तरसांस्कृतिक सेतु बन जाने का काम करती है। वाद-विवाद-संवाद का मुहावरा गढ़ती है। वह भलमनसाहतपूर्ण हो, तो सामज, समुदाय, समूह, वर्ग, वय आदि के असंगत तथा अमानुषिक सामाजिक स्तरीकरण के विरूद्ध अपना हस्तक्षेप निर्मित करती है। आप सब संचार की भाषा में ‘ओपेनियन लिडर’ की भूमिका में हैं; आपको पढ़कर आपके विचारों के बारे में ही नहीं आपके बारे में भी हम बहुत कुछ जान लेते हैं। मेरी समझ से शब्द और शब्दावली के बीच उगे अर्थ को पाठक सबसे संवेदनशील तरीके से पकड़ता है; जो चलताऊ आलोचक चाहकर भी नहीं पा सकता।

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  17. कुलदीप झाला3 जून 2017, 9:15:00 am

    क्या बोलें समझ नहीं आ रहा। ना फिल्म देखी है और ना ही कोई साहित्यिक जानकारी और ना ही कभी यहाँ उपस्थित विभूतियों को पढा है।
    बस ईतना ही समझ पा रहा हूं हर नजरिये में तटस्थता मौन है।

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