सहजि सहजि गुन रमैं : शंकरानंद



























(Photo by Portia Hensley : Two homeless boys in Kathmandu) 


शंकरानंद के दो कविता संग्रह ‘दूसरे दिन के लिए’ और ‘पदचाप के साथ’ प्रकाशित हैं.  बेघर लोगों पर आकर में छोटी ये आठ कविताएँ सहजता से मार्मिक हैं, कम शब्दों में, शब्दों पर बिना वजन डाले वह अर्थात तक सीधे पहुँचती हैं.


शंकरानंद की कविताएं                               





ll बेघर लोगों के बारे में कुछ कविताएं ll 





एक
वे बेघर लोग हैं
उनकी सुबह उन्हें धोखा देती है
उनकी रात उन्हें जीने नहीं देती
उनकी नींद उन्हें काटती है

उन्हें कोई नहीं रखता अपने घर में
उनका कोई सहारा नहीं इस विशाल पृथ्वी पर

इसलिए कि वे बेघर हैं.



दो
उनकी इच्छा है कि घर हो अपना सुंदर सा
जहां रोज धूप आती हो और
रोज चमकती हो चांदनी

वे अपने हिस्से का अन्न सिझाना चाहते हैं
ऐसे चूल्हे की आग में जो
रोज एक ही जगह हो
लेकिन ऐसा होता नहीं

उनके चूल्हे टूटते हैं बार-बार.



तीन
वे जहां बसते हैं
नहीं सोचते कि इस बार फिर बेघर होंगे 
बड़ी मुश्किल से बसते हैं वे इस तरह उजड़ उजड़ कर
जी तोड़ मेहनत से बनाते है वीराने को रहने लायक

उनकी थकान भी नहीं मिटती कि
फिर उजाड़ दिये जाते हैं वे.



चार
यह धरती सब की है लेकिन उनकी नहीं
उनके हिस्से की ईंट कहीं नहीं पकती
उनके हिस्से का लोहा कहीं नहीं गलता
तभी तो वे बेघर हैं
                  
बारिश में भींगते हैं वे
रोते हैं तो आंसू पानी के साथ बहता है
उनके हिस्से की हवा भी भटकती है.



पांच
सूरज उनके लिए कुछ नहीं कर सकता
वह तो धूप ही दे सकता है

चांद उनके लिए कुछ नहीं कर सकता
वह तो चांदनी ही दे सकता है

हवा उनके लिए लड़ नहीं सकती
पानी उनके लिए हथियार नहीं उठा सकता.



छः
जब भी गोली चलेगी
वे बच नहीं पाएंगे
जब भी बम गिरेगा
उड़ेंगे उनके चिथड़े

कभी उन्हें छिपने की जगह नहीं मिलेगी
कोई उन्हें अपने घर नहीं बुलाएगा

आंधी में वे पत्तों की तरह उड़ा करते हैं.



सात               
वे शायद सपने नहीं देख पाते

जरा सी आंख लगती है कि
आने लगते हैं बुरे ख्याल और डर जाते हैं

वे दुःस्वप्न ही देखते हैं अधिक
वह भी खुली आंख से.



आठ
उनके पास कुछ नहीं रहता
जो भी पसीना बहा कर जमा करते हैं
वह या तो सड़-गल जाता है
या लूट कर ले जाते हैं लुटेरे

वे कुछ नहीं बचा पाते तब
अपनी जान के सिवा!

हजारों साल से यही हो रहा है.
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शंकरानंद (8 अक्टूबर 1983) 
पहला कविता संग्रह दूसरे दिन के लिए भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता से प्रथम कृति प्रकाशन मालाके अंतर्गत चयनित एवं प्रकाशित.
दूसरा कविता संग्रह पदचाप के साथ हाल ही में बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित.
कुछ कहानियाँ भी प्रकाशित. 
सम्प्रति- अध्यापन एवं स्वतंत्र लेखन.
सम्पर्क- क्रांति भवन,कृष्णा नगर,खगड़िया-851204/मो.08986933049

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  1. जब भी गोली चलेगी
    वे बच नहीं पाएंगे
    जब भी बम गिरेगा
    उड़ेंगे उनके चिथड़े

    कभी उन्हें छिपने की जगह नहीं मिलेगी
    कोई उन्हें अपने घर नहीं बुलाएगा

    आंधी में वे पत्तों की तरह उड़ा करते हैं... मारक कविताएं

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  2. बेहतरीन कवितायेँ। एकदम सटीक,सार्थक।

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  3. छोटी किंतु धारदार कवितायें..

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  4. तुम्हारी कविताओं का 'काव्यात्मक एप्रोच' बहुत सघन है ...गुरु !

    क़िब्ला यह कि इन कविताओं से गुजरते हुए...नवीन सागर याद आते हैं ...!

    यह मेरी निजी अनुभूति है...

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  5. छोटी,पर बड़े अर्थ की कविताएँ ।

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  6. सरल-सहज और बहुत मार्मिक कविताएं।
    वाकई जानदार-शानदार कविताएं !!!
    सभी कविताएं बेहद मर्मस्पर्शी हैं।
    पर यह कविता तो बहुत ज़ोर से झकझोर देती है-

    "यह धरती सब की है लेकिन उनकी नहीं
    उनके हिस्से की ईंट कहीं नहीं पकती
    उनके हिस्से का लोहा कहीं नहीं गलता
    तभी तो वे बेघर हैं

    बारिश में भींगते हैं वे
    रोते हैं तो आंसू पानी के साथ बहता है
    उनके हिस्से की हवा भी भटकती है."

    बधाई शंकरानंद जी।

    -राहुल राजेश, कोलकाता।

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