परख : आगे जो पीछे था (मनीष पुष्कले) : प्रभात त्रिपाठी









पिछले वर्ष  भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित चित्रकार मनीष पुष्कले के उपन्यास आगे जो पीछे थाको पढ़ते हुए प्रभात त्रिपाठी ने  अपनी डायरी में उसे कुछ इस तरह से दर्ज़ किया है. 


कृति से संवाद का यह आत्मीय ढंग भी एक ज़रिया है कृति तक पहुचने  का.



मनीष पुष्कले चित्रकार है और दिल्ली में, हौज़ खास में रहते हैं. जन्म १९७३ म.प्र. के भोपाल में हुआ. मनीष कभी-कभी अपने रंगों से बिदक कर अपनी कलम से शब्दों को तराशते हैं. अपनी शिक्षा से मनीष भूगर्भ शास्त्री हैं.


प्रख्यात चित्रकार रज़ा के प्रिय शिष्य रहे और और उन्ही के द्वारा स्थापित रजा न्यास के आप न्यासी भी हैं. मनीष ने यशस्वी कथा-शिल्पी कृष्ण बलदेव वैद को समर्पित वैद सम्मान की स्थापना की है जिसके अंतर्गत अभी तक ५ लेखकों को समानित किया जा चुका है ! मनीष ने इसके अलावा 'सफ़ेद-साखी' (पियूष दईया के साथ चित्र-तत्व चिंतन), "को देखता रहा' (विभिन्न विषयों पर लिखे लेखों का संकलन), ‘अकथ' (अशोक वाजपेयी को लिखे पत्रों का संपादन ) और हाल ही में "आगे जो पीछे था " नाम का एक उपन्यास भी लिखा है



आगे जो पीछे था : डायरी में नोट्स                    
प्रभात त्रिपाठी



2 मई 2017
आज इस डायरी में अकस्मात आया.

आने के पहले बिना किसी योजना के बिलकुल ही अचानक, मैंने मनीष पुष्कले के उपन्यास, ’आगे जो पीछे था,’ का पहला अध्याय पढ़ा.

मुझे अच्छा लगा. जैसे अपने को, संसार को, जानने की, कहीं आत्मबोध के स्तर पर उसके शब्दों की अमूर्त्तता और सगुणता और निर्गुणता और निराकारता में पाने की, उन्हें देखते हुए कितना कुछ और देखने की, उसी देखे में अदेखे को शामिल करने की, एक सिहरन सी देह के भीतर सरसरायी, वहीं भीतरके आसमान से चमकती गिरी कुछ भीतर ही, बाहर भी कुछ था, जो रोजमर्रे के कबाड़ के अन्दर आत्मसा ही चमक रहा था. मुझे लगा, कि उसके चित्रों को देखने का अवसर चाहे मुझे न मिल पाया हो,उसके शब्दों को 'देखने’ का अवसर भी कम सर्जनात्मक नहीं है, क्योंकि अन्ततः यह भी आत्मान्वेषण की गझिन दुनिया के असंख्य रस्तों पर ले जाता है.



4 मई 2017
आज भी मनीष पुष्कले की कथा कृति के शुरुआती दो तीन अध्याय पढ़े.

एक बिलकुल ही अलग अनुभव देते हैं शब्द, कृति को देखने या पढ़ने से कहीं अधिक तीव्रता से खुद को देखने की दिशा सुझाते. बल्कि दिशा सुझाते ही नहीं, खोजने को उकसाते उनके शब्द, पता नहींकिन या कैसी मानसिक स्थितियों में उन तक आए होंगे, पर मुझ तक आते आते, वे इतने मेरे हो गए हैं,कि मैं उन्हें उनकी किताब में स्थित शब्दों की तरह नहीं देख पा रहा. ना, मैं यह नहीं कह रहा, किउनके अनुभव से उत्कट साझेदारी के चलते यह संभव हुआ है, बल्कि मुझे लगता है, कि इन शब्दों ने मुझे आत्म के बीहड़ों में धकेल दिया है. निश्चय ही हर कलाकार, लेखक के जीवन में ऐसे क्षण आते हैं, जब वह 'आत्म’ को सर्वात्म या विश्वात्म के व्यापक सन्दर्भ या समय और समयातीत से मिला हुआ देखने को बेचैन सा होने लगता है, लेकिन शब्द कर्म में तो यह महज अभिव्यक्ति का कौशल नहीं, बल्कि शब्द की प्रकृति को भेदने की भी अपेक्षा रखता है. सो मामला निरा तकनीकी नहीं लगता. दूसरे मुझे यह भी लगता है, कि एक तरफ भाषा में मूर्तिमंत अहिंसा का संयम है, तो दूसरी तरफ खोजने की ऐसी बेचैनी,जो पाठक को किताब के पन्नों की व्याख्या में ही नहीं अटकाए रखे. सामान्य वर्णनों में भी एक ऐसी गहराई सृजित होती जाती है, जैसे वह भीतर की गहराई तक उतरने की अनन्त राह हो. "जैसे प्रकृति अपने खालीपन पर यहीं उतरती थी, यहीं उसका खाली खाली, बहुत खुला खुला दीखता था.’’


कहने का मन होता है
, कि सिर्फ प्रारब्ध कुमार या मनुष्यों के अनुभव में नहीं, अपनी मासंल ऐन्द्रिक और प्रायवेट निजता में भी कई बार यह अनुभव होता है, कि हम अपने खालीपन को बहुत खुला खुला देख रहे हैं, सड़क के उसी किनारे पर, जहाँ मनुष्य निर्मित जगह से थोड़ी रिक्त सी जगह पर उतरती आयी है प्रकृति ? क्या ऐसे रस्तों पर आदिम काल से नहीं चलता आया है आदमी, जहाँ वह अपने प्रकृत तक जा सके या उसको पा सके ?
क्या पता प्रारब्ध उसे कहाँ ले जाता है ?



6 मई 2017
सुबह से ही मेरे मन में लिखने का खयाल कुलबुलाता रहता है.

अभी फिर मनीष के तथाकथित उपन्यास पर सोचने लगा था. पर सोच वहीं नहीं टिकी थी. इधर पढ़ना काफी कम हो गया है. तीन दिन में उसकी कृति के तीन चार छोटे छोटे अध्याय ही पढ़े हैं. बेशक थोड़े रैण्डमली बीच के कुछ हिस्से भी पढ़े हैं. उसकी नजर आती वैचारिकता से झाँकती कुछ बातों से असहमति भी हुई है. लगा है, कि एक तरह से यह सुदूर के अतीत को कल्पना से महिमा मण्डित करना भी हो सकता है? पर कई जगहों पर भाषा वास्तविक आत्मान्वेषण की दिशाओं में बढ़ती नजर आती है. राजनीति, भूगोल, इतिहास से परे, जैसे सचमुच उस 'भाषा’ को देखती हुई, जिसकी विविध और विचित्रवर्णाढ्यता 'आत्म’ को तरह तरह के रूपाकारों में दिखाती हुई, बुनियादी अभेदत्व की ओर संकेत करती रहती है.





15 मई 2017
शायद हर कलाकार, लेखक या सृजनधर्मी व्यक्ति के मन में अपने होने के रहस्यों को और संभव हो तो पूरी सृष्टि में व्याप्त रहस्यों को जानने की एक जिज्ञासा रहती ही है. वह अभी और यहाँ के रोजमर्रे में रहता हुआ, समय और सभ्यता के दंश सहता हुआ भी, होने की आस्तित्विक जटिलता और रहस्यमयता से निरंतर टकराता रहता है. इस टकराहट की, इस अतिसूक्ष्म अनुभूति की, अभिव्यक्ति के रस्ते खोजता रहता है. उसके लिए ये प्रश्न महज अकादमिक अर्थ में ’दर्शन’ के सवाल भर नहीं होते. मनीष की यह कथा भी आत्मान्वेषण की प्रक्रिया को ’कथा’ के एक ऐसे रूप में रचना चाहती है, जहाँ वह सामान्य सामाजिक, व्याकरणिक विन्यास में बंधी हुई भाषा को, अपनी खाजे के अनुभव के एक नये रूप में रचसके. शायद स्वभावतः ऐसा कोई रूप पाठक को कथा के किसी रैखिक प्रयोजन की ओर बढ़ने का निर्देश देता नहीं लगता.

अभी मैंने इस उपन्यास के सात आठ अध्यायों को थोड़े सरसरी तौर पर ही पढ़ा है और उसी सेमुझे लग रहा है, कि सामान्य वाक्य विन्यासों, या वर्णनों के बावजूद, वहाँ एक बहुलार्थी व्यंजकता है. उनके बहाव में, हम उनके आपसी रिश्तों को, उस मुक्तता में जानते हैं, जहाँ शब्द निरे वर्णन या कथन भर नहीं रह जाते.




17 मई 2017
आज लगभग महीने भर बाद भी मैं इस ’उपन्यास’ को पूरा नहीं पढ़ पाया हूँ.

पर इसी अति धीमे पाठ के दौरान मुझे लगता रहा है, कि यह कथा एक गहरे व्यापक अर्थ में आज की भयावह आध्यात्मिक रिक्तता की कथा है. यह आध्यात्मिक रिक्तता, एक ओर तो परिप्रेक्ष्य के बतौर ऐतिहासिक और साभ्यतिक संदर्भों  को लिए है, पर इसकी संवदेनात्मक और ज्ञानात्मक कल्पनाशीलता में व्यक्ति का अन्तर्मन ही, अपनी पूरी व्यापकता और गहराई में विन्यस्त हुआ महसूस होता है. शब्द वाक्य,वर्णन, जगहें और कितनी सारी शाब्दिक उपस्थितयों की व्यंजक वाचकता को आत्मसात करना ही इस उपन्यास के पाठ के सार्थक रस्ते हो सकते हैं, लेकिन फिर भी इसमें एक तरह का कथा कौशल है, जो निरी चतुराई या स्किल का द्योतक नहीं है. 

अभी जब मैं इस कथा के’ ना सुनी आवाज के फासले’ सेलेकर, निसर्ग के निषेध वाले अध्यायों से गुजरा हूँ, तो एक बात मुझे यह भी महसूस हो रही है, कि यह निरी ऐकांतिक साधना, या ऐतिहासिक आलोचना से जुड़ी आध्यात्मिक रिक्तता की अनुभूति से ही रचितनहीं है. दुपहर की सूनी सड़क पर, एक लड़की से हुई मुलाकात के बाद, अपने शीश महल के तलघर की खिड़कियों के रस्ते झरते टुकड़ों से बाहर के अपने भीतर को, देखने और रचने की कोशिश करता यह चित्रकार वाचक नायक, मानव संबंध की गहन अन्तरंगता में भी आत्मान्वेषण की प्रक्रिया को जारी रखे है.रात्रि’ से मुलाकात के बाद के काव्यात्मक आशयों, अभिप्रायों से दीप्त अध्याय, जैसे कथा विन्यास के सारपर संबंधों में सतत उपस्थित संभाव्य आध्यात्मिकता के संकेतों से भरे लगते हैं.



23 मई 2017
पिछले दिनों मैंने रात्रि और प्रारब्ध कुमार के मिलने और परिचय के हिस्से को पढ़ते हुए महसूस किया, कि मामला किसी तलाश में निकले व्यक्ति का, किसी अत्यन्त सुन्दर स्त्री से आकस्मिक मुलाकातकी ऐसी ’घटना’ भर नहीं है, जिसे हम सम्बन्ध के एक पारम्परिक सामाजिक अर्थ में ही पढ़ कर संतुष्ट हो सकें. दरअस्ल इस पूरी अन्तर्यात्रा में शब्द, स्वयँ अपना अर्थ खोजते नजर आते हैं और लगभग ’ध्वनि’ की तरह पाठक के भीतर आते यह भी महसूस कराते हैं, कि इस तलाश और अचानक के संयोग से होनेवाले मिलन को, किसी तरह की जड़ निर्दिष्टता में पढ़ पाना मुश्किल ही नहीं, असंभव है. उन दोनों के भीतर की सोच की प्रक्रिया में उमड़ते शब्द हमें बार बार सुझाते हैं, कि उनसे उभरनेवाले सामान्यीकरणों को किसी स्थिर दार्शनिक सिद्धान्त की तरह पढ़ना संभव नहीं है. 

'रात्रि’ नाम सुनने के बाद, परिचय के स्वरूप’ को दैहिक मूर्तता में देखने के बजाय, शायद बेहतर यही है, कि इन शब्दों में अन्तर्निहित सोच को, अपनी कल्पना की व्यंजकता में पढ़ने की कोशिश करें. तब शायद हम यह महसूस करते हैं, किजगह जगह पर सूक्ति की दार्शनिकता सुझाते ये शब्द भी, प्रसंग सीमित नहीं है और स्थिर सांकेतिकता इनमें कहीं नहीं है. अभी तक जो पढ़ा है, उससे तो लगता है, कि किस्सा या कथ्य या कथा, किसी भी पाठक को एकाग्रता के साथ सँरचना में मौजूद शब्दों और वाक्यों को अपने ’अर्थ’ से नहीं, अपनी ध्वनि से जोड़ती है, ध्वनि सिर्फ आवाज के अर्थ में नहीं, व्यंजकता के अर्थ में भी.



25 मई 2017
अभी मैंने मनीष के उपन्यास के कुछ पृष्ठ दुबारा पढ़े हैं. पर मुझे लगता है, कि इसे विचार सार, या कथा सारांश की तरह प्रस्तुत कर सकना मेरे लिए कतई मुमकिन नहीं है. भाषा, यहाँ उनके प्रयोजन की केन्द्रीयता की ओर किसी तरह का संकेत नहीं करती, बल्कि अपने भीतर उतरने के लिए उकसाती, उद्बुद्ध करती है. ’ सैर की दूसरी संभावनाएँ से लेकर ’ हम अचूक संभावनाओं से बने हुए हैं,’ तक का पाठ, यह अनुभव जरूर देता है, कि एक तरफ आत्म की खाजे और रात्रि के साथ संपर्क और परिचय में, एक तरह की कलात्मक जिज्ञासा का कंपन है, तो अपने पुरखों के पौराणिक ऐतिहासिक निजी स्मृति केआलेखन में एक तरह की आधुनिक बौद्धिकता का संयमित संस्पर्श है. 

खासकर प्रारब्ध और रात्रि की बातचीत को पढ़ते हुए, स्त्री पुरुष सम्बन्ध के अन्तरंग की जो लय हमें घेरती है, उसमें एक तरह का आत्मीय खिलंदड़ापन ही नहीं, बल्कि एक अबूझ और रहस्यपूर्ण गहराई भी है, जो किसी ’दिशा ज्ञान’ से ज्यादा,  'दिशा खोज’ के अथाह में भटकाती है. रोचक यह है, कि दोनों की बातचीत के भाषिक विन्यास में एक तरह की संप्रेष्य साधारणता है, जो चिन्तनशीलता और अनुभूतिदोनों ही स्तरों पर, एक आत्मीय असाधारणता में रूपान्तरित होती दिखाई देती है.

इसके विपरीत अपनी सदाशयता और अपनी आदर्शोन्मुख परम्पराप्रियता में ठीक उसके बाद केअध्यायों में, ’शायद’ के केन्द्रीय मुहावरे के बावजूद, एक तरह की निश्चयात्मकता है, जो पाठ को थोड़ाविश्लेषणात्मक और आलोचनात्मक ही नहीं बनाती, बल्कि एक तरह की प्रयोजन सीमित रैखिकता की ओरले जाती दिखती है. बेशक पुरखों के साथ पश्चिम की टकराहट को,वे निरे विरोध के भाव से नहीं रचतेऔर इस तथ्य से भी थोड़ी सहमति हो सकती है, कि पश्चिम के टकराव के बाद, भारतीय व्यक्ति केआत्मबोध की प्रक्रिया को एक गहरा झटका लगा, पर इस तथ्य को उस तरह की सर्जनात्मक कल्पना कीभाषा में शायद मनीष व्यक्त नहीं कर पाए हैं, जैसी भाषा के अन्तरंग में, अपनी जिज्ञासा और अपनीसर्जनात्मकता को आनुभूतिक स्तर पर महसूस करते हुए हम विचरते रहे हैं. यह अंश आलोचनात्मकअधिक और कम सर्जनात्मक लगता है. एक सामान्य पाठक के रूप में प्राचीन इतिहास के इस विवरणको, मैंने थोड़े आधुनिक स्केप्टिक की तरह ही पढ़ा है.



30 मई 2017
अचूक संभावनाः’ और ’आगे जो पीछे है’ जैसे दो अध्यायों को पढ़ते हुए अभी फिर लगा कि, यह कथा या कि इसमें शामिल अलग अलग किये गये अध्याय, किस्से की शैली के बावजूद, शब्द चिन्तन, अस्तित्व और समय को एक अलग तरह की कविता में पकड़ने का प्रयास है. इसके ’पाठ’ में गहरी एकाग्रता की जरूरत है. निष्कर्षात्मक ढंग से, थोड़ी मुखरता के साथ व्यक्त किए गए, इसके इस इरादे में, कि यह ’जड़ समाज’ की जड़ता को आत्मान्वेषण के स्तर पर पहचानने की कथा है, इसे पढ़ना, निश्चय ही इसकी बहुलार्थी व्यंजकता को सीमित कर देना और शायद इसकी जटिलता और गहराई दोनों को सरलीकृत करना होगा. ऊपर उद्धृत दोनों ही अध्यायों में बातचीत, मानवीय अस्तित्व के गहरे प्रश्नों से ही संबंधित और संदर्भित लगती है, इतिहास में हुए न्याय अन्याय से नहीं. 

बेशक सर्जक के इतिहासबोध और उसकी कल्पनाशीलता के संबंध को रेखांकित करने के लिए, श्रुति परंपरा से विच्छिन्नता के सन्दर्भ को एक जरूरी, बल्कि शायद उपयोगी सन्दर्भ की तरह याद रखा जा सकता है, पर मामला इतिहास की छानबीन का नहीं, आत्म की खोज और भाषिक सर्जनात्मकता का ही है, जिसे बहुलार्थी और व्यंजक पाठ की तरह ही पढ़ा जाना उचित है. शायद मेरी बातों में काफी दुहराव है.



 7 जून 2017
मनीष के उपन्यास के अन्त तक आते आते मुझे लग रहा है, कि अब तक पाठ प्रक्रिया के दौरान जो कुछ भी पाठकीय जैसा कुछ, मैं लिखता रहा हूँ , वह उपन्यास की गहराई जटिलता और नानार्थता की समझ के लिए कतई नाकाफी है. रात्रि तथा प्रारब्ध और चेतन के एक दूसरे की विपरीत दिशाओं में यात्रा की शुरुआत के बाद तो, सलीब’ वाले प्रसंग तक आते आते, उसमें कई ऐसे नये अर्थ संबोधि के स्तर पर फूटते हैं, कि उसे अन्त के निष्कर्षात्मक अध्यायों की तरह पढ़ना उचित नहीं लगा. सच तो यह है, कि उचित यह भी नहीं लगता, कि मात्र एक बार के त्वरित पाठ’ के आधार पर, इस कृति के बारे में कुछ भी कहा जाए, लेकिन यह कृति इतनी ज्यादा अलग और थोड़ी विचित्र भी है, कि इसे पढ़ते हुए, इसे अपने भीतर लाते हुए, आत्मचिन्तन ना सही, आत्मालाप को रोक पाना थोड़ा कठिन लगने लगता है. 

मनीष की यह कृति हिन्दी कथा लेखन के क्षेत्र में एक अद्वितीय कृति की तरह ही याद की जा सकती है. वे इसमें भारतीय समाज के आत्मान्वेषण की प्रक्रिया को, आत्मानुभव और आत्मचिन्तन की कल्पनाशील और परंपरापोषित भाषा में लिखते हैं. मुझ जैसे अल्पज्ञ पाठक के लिए तो इस पूरी कथा में अन्तः सलिल कविता और उसकी अशेष व्यंजकता ही, इसके प्रति आकर्षण का मूल कारण है.

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प्रभात त्रिपाठी
14/09/1941, रायगढ़ (छत्‍तीसगढ़)

कविता संग्रह- खिड़की से बरसात, नहीं लिख सका मैं, आवाज, जग से ओझल, सड़क पर चुपचाप, साकार समय में, लिखा मुझे वृक्षों ने
आलोचना- प्रतिबध्दता और मुक्तिबोध का काव्‍य, रचना के साथ
उपन्यास- सपना शुरू, अनात्मकथा आदि

सम्मान
वागीश्वरी पुरस्कार, माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार,उ.प्र. द्वारा सौहार्द्र पुरस्‍कार
pktripathi180@gmail.com

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  1. पढ़ने की उत्सुकता जगाती समीक्षा है

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  2. एक सर्वथा क्लिष्ट कृति की उसी क्लिष्टता से समीक्षा,,,,, आनंद आया पढ़कर।
    प्रभात जी और मनीष दोनों को साधुवाद।।।

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