G.R Iranna/ RED EARTH
बीसवीं सदी के अंतिम दशक में जो कवि प्रमुखता से सामने आए उनमें अनिल गंगल का नाम महत्वपूर्ण है, उनके चार- कविता संग्रह प्रकाशित हैं.
अनिल की
कविताएँ पूरे वाक्यों की कविताएँ हैं. विवरण
और ब्यौरे के साथ उनकी कविताएँ मन्तव्य की
स्पष्टता के लिए भी जानी जाती हैं. कविताएँ गहरा असर रखती हैं और समय की विद्रूपता
पर चोट करती हैं.
उनकी छह
नई कविताएँ आपके लिए.
अनिल गंगल की
कविताएँ
काला
एक काला अपनी कालिमा
में सदा मगन रहता हुआ
और ज़्यादा काला हो जाने
का सपना देखता है
कहता अपने सौभाग्य को
शुक्रिया
सोचता-
कि अच्छा ही हुआ
इस बदलाव की आँधी में
सफ़ेद न हुआ
एक थोड़ा और ज़्यादा काला
थोड़े उन्नीस काले से
कालेपन में थोड़ा इक्कीस साबित होता
रहता अपनी कथित
श्रेष्ठता के ग़रूर में ग़र्क़
मुँह से हरदम दोमुँही
जीभ लपलपाता
जो सबसे ज़्यादा काला है
कालेपन की इस नुमाइश में
उसे अफ़सोस है
कि पार कर आ चुका है वह
आख़िरी हद तक
अब वह चाहे
तो इससे ज़्यादा और चाहे
जितना कलौंच में लिबड़ जाए
पर इससे ज़्यादा काला
होना
अब असंभव है उसके लिए
फिर भी कुछ काले हैं
जो जितने काले हैं, उसी में आत्मतुष्ट हैं
कि दोनों हाथों से अगर
उलीचें वे ज़माने पर यह कालिख
तो माशा-रत्ती भर भी कम
न होगी यह
करती हुई न जाने और
कितनों को कालेपन से सराबोर.
ईश्वर की मृत्यु
‘ईश्वर मर चुका है‘
अट्ठारहवीं सदी में कभी
कहा था तुमने
ओ नीत्शे !
कैसे मरा ?
कब मरा ?
किस न्यूज़ चैनल पर
चस्पाँ हुई यह ब्रेकिंग न्यूज़
कौन से पत्रकार ने बयान
की
रोमांच में बदलते हुए मृत्यु
की यह ख़बर
किस देश के कौन से शहर
की
किस बस्ती के कौन से
पुलिस स्टेशन में दर्ज़ है
ईश्वर की मृत्यु की
प्राथमिकी
हत्या की गयी
या आत्महत्या की उसने ?
कौन से अख़बार में छपी
है उसकी पोस्टमार्टम रपट
क्या देखी किसी शख़्स ने
झाड़ियों के पीछे
रहस्यमय हालत में पड़ी
ख़ून से लथपथ ईश्वर की
लाश
उसकी मृत्यु से संबंधित
अभी तक कोई सबूत मिला
क्या ?
किसी संदिग्ध पर टेढ़ी
हुई क्या पुलिस की आँखें ?
ईश्वर के आसपास बिखरे
ख़ून के नमूनों की जाँच में
क्या पाया गया ?
क्या हाथ लग सका अभी तक
कोई ऐसा हथियार
जिससे पहुँचाया गया हो
ईश्वर को यमराज के द्वार ?
खोजी दस्तों के शिकारी
कुत्तों की नाक
क्या पा सकी शातिर
अपराधी का कोई सूराग ?
हो सकता है
कि यह ख़बर सिरे से ही
ग़लत हो
हो सकता है कि ख़ुद को
धुंध के परदे में छिपाए रखने के लिए
फैलाई गयी हो ख़ुद ईश्वर
के द्वारा ही
अपनी मौत की ख़बर
कुछ भी हो सकता है
कि ईश्वर मरा हो ख़ुद
अपनी ही स्वाभाविक मौत
मगर ज़्यादा संभावना यही
है
कि उसकी हत्या की गयी
हो
किन्तु असल सवाल यह है
कि जो अजन्मा, अमर और अविनाशी है
उसे मारने में प्रयुक्त
हथियार में काम आया लोहा
गलाया गया होगा दुनिया
की किस धमनभट्टी में.
मेरे जाने के बाद
जब मैं पंचमहाभूतों के
रूप में नहीं रहूंगा
तब संभव है
कि तुम्हारे आसपास मैं
एक अदृश्य उपस्थिति के रूप में रहूँ
एक जर्जर फ्रेम के बीच
झाँकता होगा मेरा प्रसन्नमुख चेहरा
हालाँकि सूख कर झरने
लगे बासी फूलों की माला के बीच मैं
दसों दिशाओं में चल रहे
खण्ड खण्ड पाखण्ड पर्वों’ का
मूक साक्षी रहूंगा
यही होगा कि मेरे जाने
के बाद
मेरे मौन को ही आसपास
घट रहे अपराधों के प्रति
मेरी मूक सहमति मान
लिया जाएगा
जो भी सिर झुके होंगे
श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए
संभव है कि व मेरे
सम्मान में नहीं
किसी अज्ञात भय से झुके
हों
संभव है कि नतमस्तक
कंधों में सिर्फ़ एक ही कंधा हो
मेरे आगे झुका हुआ
जिन्हें थपथपा सकती हों
सान्त्वना में
तस्वीर के फ्रेम से
बाहर निकली मेरी मृत हथेलियाँ
दुनिया से जाने के बाद
हो सकता है
पल भर के लिए रुक जाए
मेरे वक़्त की घड़ी
मगर तय है यह
कि बदस्तूर ज़ारी रहेगी
तमाम यह भागमभाग और आपाधापी
इस बीच हो सकता है
कि ख़ूनख़राबे में
आपादमस्तक डूबे ख़ूनालूदा चेहरों को दी जाए
हमारे वक़्त की सबसे
महान ईजाद की संज्ञा
संभव है कि ग़ायब हो
जाएँ सौन्दर्यशास्त्र के पन्नों से
सौन्दर्य की सभी
सुपरिचित परिभाषाएँ
जहाँ-जहाँ धोंकनी की
तरह धड़कता था मेरा हृदय
मेरी साँसों की गर्माहट
से भरे रहते थे घर के जो-जो कोने
जानता हूँ कि मेरे जाने
के बाद
वहाँ-वहाँ चिन दिए
जाएंगे भाँति-भाँति के कबाड़ के अटंबर
फिर-फिर जाना चाहूंगा
इस जीवन की चारदीवारी के बाहर
जब दीवार पर सूख चुके
फूलों से ढँकी मेरी तस्वीर
घर के सौन्दर्य पर
कुरूप धब्बे की तरह लगेगी
और लोहे, प्लास्टिक और पुराने पड़ चुके अख़बारों की मानिंद
कबाड़ में फेंक दी
जाएगी.
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(’स्मृतिशेष कवि मणि मधुकर की एक लंबी कविता का शीर्षक)
कविता-पाठ
वे नाक तक अघाए हुए
विशिष्ट जन हैं
जो गाव-तकियों के सहारे
ख़ुद को किसी तरह संभाले हुए हैं
उनके पाँवों के आसपास
खिसकती जाती है मिट्टी थोड़ी – थोड़ी
मगर वे सब एक ठोस ज़मीन
पर खड़े होने के मुग़ालते में शरीक़ हैं
वे जानते हैं
कि उन्हें कैसे करना है
श्रोताओं के आगे कविता-पाठ
कहाँ-कहाँ किन-किन
जुमलों पर फेंकने हैं हाथ और पाँव
कहाँ करनी है उन्हें
अपनी आवाज़ इतनी मद्धम
सुरों को रहस्यमय
अँधेरों में धकेलते हुए
कि लगे आ रही है धरती
फोड़ किसी पाताल-तोड़ कुएँ से आवाज़
कब पंखों को तौल कर
आसमान में भरना है परवाज़
कब आवाज़ में कड़कदार
बिजलियाँ चमकाते हुए
पड़ौसी देश को देनी हैं
धमकियाँ
कब कविता के ज़ंग लगे
हथियारों से सिखाना है
दुश्मन को नानी-दादी
याद कराने का पाठ
उनकी पृष्ठभूमि में
सोने और चाँदी की चम्मचें हैं
गहन अंधकार के बीच
मोमबत्तियों के झीने-झीने प्रकाश में होते डिनर
और देशी दारू की गंध
सुड़पती हुई लंबी नाकें हैं
जिनके बीच खरपतवार की
तरह उगी हुई कविताएँ हैं
विशिष्ट जनों की पंक्ति
में से एक कवि उठता है
कवियों जैसा दिखाई देने
के लिए
किसी मसखरे जैसी टोपी
सिर पर धरे हुए
जिससे बाहर निकले
सुनहरी आभा बिखेरते बाल लहराते हैं
उसने गले में डाला हुआ
है मफ़लर
जिसमें जानबूझ कर लापरवाह
दिखने की कोशिश है
किसी चोरबाज़ार से ख़रीदी
गयी जैकेट पहने हुए
वह लगता है ज़्बेगेन्यू
हेबेर्त्ते की कोटि का कोई विदेशी कवि जैसा
उसकी आवाज़ जैसे किसी
खाली घड़े से लौट कर आती दिखती है
अद्भुत है उसका शब्दजाल, वाक्य-विन्यास, लय और तुक
जो श्रोताओं को किसी अद्भुत
ध्वनि-लोक के अंतरिक्ष में
उतराते छोड़ देती हैं
जहाँ साँस लेने के लिए
न हवा है,
न ऑक्सीजन
एक लंबे अंतराल के बाद
समाप्त होती है ज्यों ही कविता
एक कविता के पीछे चलती
बहुत सी कविताएँ
आ खड़ी होती हैं मंच पर
कसते हुए श्रोताओं के
चारों ओर बाँहों का शिकंजा
कि अँधेरा छँटने के
बजाय गहरा
और गहरा होता जाता है
एक सनाका खिंचा रहता है
श्रोताओं के चेहरों पर
निष्प्रभ और उदास
जैसे लौटे हों वे
अभी-अभी श्मशान में किसी प्रियजन को मिट्टी देकर.
ब्लैक-होल
जो दौड़े जा रहे हैं
बगटुट किसी अज्ञात अनंत की ओर
नहीं पढ़ी हो उन्होंने
शायद बचपन में
आसमान के धरती पर गिरने
की कथा
फिर भी भागे जा रहे हैं
वे
पता नहीं किसे पीछे
छोड़ते हुए
और किससे आगे निकलने के
लिए
क़यास है उनका
कि बस गिरने ही वाला है
आसमान उनके सिरों पर
हालाँकि उनके मत से
हो चुका है सृष्टि के
कोनों-अंतरों में पसरे विचारों का अंत
फिर भी भयभीत हैं वे
कि दिमाग़ की भूलभुलैयों
में वयस्क हो रहे
ईर्ष्या, द्वेश ,हिंसा, प्रतिहिंसा और रक्तपात पर
बस गिरने ही वाला है
आसमान
डर है उन्हें
कि बचा रहेगा पृथ्वी पर
अगर एक भी सकारात्मक विचार
तो कैसे चल पाएगी उनकी
अपराधों से अँटी दुकान
उन्हें देख
भागे जा रहे हैं दुनिया
की आपाधापी में फँसे जन
अपने घर-मढ़ैयों, ज़मीनों, दुकानों को पीछे छोड़ते
और आखिर में कहीं
अंतरिक्ष में खोए
किसी सुदूर ग्रह से
सुनाई देती एक मासूम पुकार को
आसमान के तले दबी चीख़
के नीचे
दफ़्न होने से बचाने के
वास्ते
बहुतेरे अजनबी चेहरे
हैं इस भागमभाग में
जो नहीं जानते
कि क्यों दौड़े जा रहे
हैं वे दुनिया के निर्वात में निरुद्देश्य
बस, दौड़े जा रहे हैं वे एक ही और अंतिम लक्ष्य के साथ
कहीं भी न पहुँचने के
लिए
ठीक वैसे ही
जैसे इस दौड़ में अपनी
धुरी पर घूम रहे हैं धरती और ग्रह-नक्षत्र
ब्लैक-होल की तरफ़
लुढ़कते हुए.
हक़
मुझे हक़ दो कि अपने हक़
माँग सकूँ
मुझे मेरे हक़ चाहिए
मुझे अपने और सिर्फ़
अपने हक़ चाहिए
इतने बरस सोता रहा मैं
कुंभकर्णी नींद
उम्र के इतने बरस मैं
भूला रहा अपने हक़
अब जागा हूँ
तो मुझे मेरे हक़ चाहिए
आपने मुझे गालियाँ दीं
मैं सोता रहा
आपने मुझे ठोकरें मारीं
मैं चुप रहा
आपने मुझे बेघर किया
मैं कुछ नहीं बोला
आपने मेरी लंगोटी छीन
कर मुझे नंगा कर दिया
मैं और गाढ़ी नींद की
सुरंग में गुम हो गया
अच्छा किया
जो आपने मुझे दशाश्वमेध
की दिशा में ले जाने वाली
युगों लंबी नींद से जगा
दिया
अब पूरी तरह जाग चुका
हूँ मैं
और माँगता हूँ आपसे
अपने हक़
मगर मैं नहीं चाहता
कि मेरे पड़ौसी को भी
उसका हक़ मिले
मैं नहीं चाहता
कि मेरी देखादेखी पड़ौसी
भी हक़ के मामले में ख़ुदमुख़्तार हो
किसी भी हक़ से नहीं
बनता पड़ौसी का कोई हक़
कि वह भी अपने हक़ की
माँग करे
दावे से कह सकता हूँ
मैं
कि मेरा लोकतंत्र
सिर्फ़ मेरे लिए है
जिसमें पड़ौसी की हक़ की
माँग एकदम नाजायज़ है
आसाराम, राम-रहीम, फलाहारी
आप जिसकी चाहें उसकी
क़सम मुझसे ले लें
कि सिर्फ़ मेरा अपने हक़
की माँग करना ही
इस नाजायज़ दुनिया में
जायज़ है
भले ही पड़ौसी का हक़ न आता
हो मेरे हक़ के रास्ते में
फिर भी यही सही है
कि मैं पूरी शिद्दत के
साथ पड़ौसी का विरोध करूँ
वैसे पड़ौसी से मेरा कोई
ज़ाती बैर नहीं
मगर विरोध के लिए विरोध
करना तो
मुझे मिले लोकतंत्र का
तक़ाज़ा है
गंगापुत्र की तरह दोनों
हाथ आकाश की ओर उठा कर
ऐलान करता हूँ मैं-
अपने लिए हक़ को छीन
लेना
मगर दूसरों के द्वारा
उसी हक़ की माँग पर उंगूठा दिखा देना ही
सच्चा लोकतंत्र है.
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अनिल गंगल (November 2,
1954 खुर्जा –बुलंदशहर, उ0प्र0)
1989 में पहला कविता-संग्रह ‘भविष्य के लिए‘ प्रकाशित. 2000 में दूसरे कविता-संकलन ‘स्वाद’ पर राजस्थान साहित्य अकादमी का ‘सुधीन्द्र पुरस्कार’ तथा राजस्थान जनवादी लेखक संघ का ‘अंतरीप सम्मान’ प्राप्त. 2001 में तीसरा
संकलन ‘एक टिटिहरी की चीख़’ प्रकाशित. 2008 में चौथा संकलन ‘घट-अघट‘ प्रकाशित.
कुछ कहानियाँ भी इधर-उधर प्रकाशित.
कुछ विदेशी कवियों और कथाकारों की रचनाओं के अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद
प्रकाशित.
कविता-संग्रह ‘कोई क्षमा नहीं’, ‘बैंड का आखिरी वादक’ प्रकाशनाधीन.
संप्रति : केन्द्रीय विद्यालय
संगठन से उप-प्राचार्य के रूप में सेवानिवृत्ति
130, रामकिशन कॉलोनी
काला कुआँ
अलवर-301001(राजस्थान)
मो0 8233809053 /gangalanil@yahoo.co.in
कवि अनिल गंगल की यह खूबी है कि वे कहीं भी अपने शब्दों और काव्य-उपादानों पर अतिरिक्त बल नहीं देते। वे अपनी कविताओं में अमूर्त भावों, दुर्लभ कल्पनाओं और अपनी काव्य-भाषा में भी दूर की कौड़ी लाने का आडम्बर नहीं खड़ा करते, बल्कि आग्रह रखते हैं कि ‘हमें हमारे शब्दों से नही, आचरण से पहचानना’। उन्हें अपने संघर्षपूर्ण अतीत और उलझे हुए वर्तमान का बखूबी अहसास है और यह अहसास वे अपने समय के हर आदमी में मूर्त होता हुआ देखना चाहते हैं, निश्चय ही अनिल हमारे समय के एक महत्वपूर्ण कवि रहे हैं। बधाई।
जवाब देंहटाएंबढ़िया कविताएँ
जवाब देंहटाएंअनिल की कविताएं मुझे पसंद है ।हमारे समय जो कुछ भी घटित हो रहा है , उनकी कविताएं इसका प्रतिरोध करती है । वह सयंमित भाषा के कवि है ।
जवाब देंहटाएंएक साथ उनकी कविताएं पढ़ कर अच्छा लगा । आप दोनों को बधाई ।
’ईश्वर की मृत्यु’ के लिए ज़िम्मेदार था पूँजीवाद। 1881-82 में जर्मन दार्शनिक फ़्रीडरिख़ नीत्शे (1844-1900) ने अपनी पुस्तक ’विनोदी विज्ञान’ में लिखा था — Gott ist tot यानी ईश्वर मर चुका है। जन नीत्शे ने यह बात कही थी, तब तक यूरोप के सभी देशों में सामन्तवाद ख़त्म हो चुका था। दासप्रथा का अन्त हो चुका था और पूँजीवाद अपने पैर फैला रहा था। सामन्तवाद की मौत के साथ ही ’ईश्वर’ की भी मौत हो गई थी क्योंकि ईश्वर सामन्तवादी व्यवस्था में कृषिदासों के लिए ही ज़रूरी था। अपने जीवन की सभी पीड़ाओं, सभी दारुण- दुखों को दूर करने के लिए वे ईश्वर से ही प्रार्थना करते थे। ईश्वर ही उनका सहारा था। लेकिन पूंजीवाद के आने के साथ ही यूरोप के निवासियों में नास्तिकता बढ़ने लगी थी और लगातार बढ़ती जा रही थी। नीत्शे का मानना था -- ईश्वरीय दर्शन का ज़माना अब ख़त्म हो रहा है और अध्यात्म व अध्यात्मवाद का अस्तित्व भी चुक गया है। कभी ईश्वर को पाना ही मानव-जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य था। ईश्वर पृथ्वी पर जीवन से भी और ज़्यादा उच्च सत्ता या सर्वोच्च सत्ता का प्रतीक था। ईश्वर वह सर्वोच्च शक्ति था, जो पृथ्वी पर विकसित होने वाली मानव-सभ्यता से बाहर की चीज़ थी। अब वह समय नहीं रहा। नास्तिकता बढ़ती जा रही है, चूँकि ईश्वर की मौत हो चुकी है।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया पढ़वाने के लिए... सभी कविताएं धारदार हैं... अनिल जी जिस तरह से अपनी कविताओं को समाप्त करते हैं, उससे गहरी रिक्ति पैदा होती है पाठक के भीतर, न सिर्फ उस कविता में उपस्थित विचार/विचारों के लिए, बल्कि हर उस बात के लिए जो पाठक के भीतर पहले से मौजूद है, या आ सकती है... गहन संवेदना की कविताएं... मैं फिर-फिर पढ़ रहा हूँ... पुनश्च आपका आभार अरुण जी ...
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताएं। समय का विद्रूप, क्या पता, अस्तित्व का ही विद्रूप हो। हर समय में रहा हो और आगे भी रहे--महसूस करने-न करने, शब्द देने-न देने से परे। जैसे ईश्वर की मृत्यु की घोषणा। मनुष्य की भूख नहीं मर सकती तो ईश्वर कैसे मर सकता है ? एहसास तो जाता-आता रहता है।
जवाब देंहटाएंACHCHHI KAVITEYEN--BAHUT SARAL AUR ARTHWAN
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