कथा - गाथा : मन्नत टेलर्स : प्रज्ञा

प्रज्ञा






साहित्य का मूल कार्य यह है कि वह तमाम अच्छे–बुरे बदलावों के बीच और उनके तीक्ष्ण–तिक्त प्रभावों के मध्य आम आदमी के पास  आता-जाता रहता है. उन्हें देखता, परखता, महसूस करता और लिखता रहता है. उनके साथ खड़ा रहता है. जिसे इतिहास बिसरा देता है उसे साहित्य अमर कर देता है.

इस  कथित आर्थिक उदारीकरण के अनुदार दौर में सबसे अधिक प्रभावित अगर कोई हुआ है तो वे कारीगर हैं जो अपने हुनर से अपनी  जीविका सम्मानजनक ढंग से चलाते रहे थे. उनमें से एक वर्ग टेलर मास्टर का है. रेडीमेट कपड़ों की सजावट ने उनकी खुद की सिलाई उधेड़ दी है.  आप अंतिम बार कब किसी टेलर के पास गए थे ? याद कीजिए .   

भूमंडलोत्तर कहानी क्रम में इस बार युवा कथाकार प्रज्ञा की कहानी मन्नत टेलर्सपर कथा आलोचक राकेश बिहारी का यह आलेख आप सबके लिए. राकेश बिहारी ने कथा की गहरी पड़ताल की है,हो रहे बदलावों के बीच ऐसी और भी कहनियाँ लिखी गयीं हैं. उनसे भी तुलना का एक उपक्रम यहाँ है.  




मन्नत टेलर्स                                   

प्रज्ञा




''यार! शिखा कहां हो? ये किस साइज़  की शर्ट ले आई हो? सोचा था आज के खास प्रोग्राम में इसे पहनूंगा पर... अरे! अब क्या करुं?'' सवाल की शक्ल में समीर की सारी झुंझलाहट शिखा के कानों के रास्ते रीढ़ की हड्डी के ऐन नीचे पहुंचकर थर्राहट पैदा करने लगी. उसे लगा अचानक शरीर के पोर-पोर में यह दर्द उठता रहा था और हर बार न वजह पुरानी पड़ती थी न ही तकलीफ. उसे हमेशा लगता ये आखिरी बार है पर नहीं.

इस दर्द को शिखा से लगाव-सा हो गया था. समीर के रास्ते चला आने वाला यह मर्ज था उसके लिए खरीदे गए रेडिमेड  कपड़े. परिवार के अन्य लोगों के लिए यहां कपड़े खरीदना एक शौक या नशे से कम नहीं था वहां शिखा और समीर के लिए यह बवाल-ए-जान था. समीर की नुक्ताचीनीं से दुकानदारों के सब्र का बांध चकनाचूर हो जाता और उनकी बद्तमीजी का ज्वार सारे पाट तोड़कर मनचाही दिशा में भागने लगता. उस ज्वार को भी समीर लगातार चुनौती देता. इसीलिए एक दुकान में उठा ये ज्वार आगे के तमाम रास्ते बंद कर देता. कभी रंग, कभी कपड़े, कभी सिलाई, कभी मार्जिन को लेकर अच्छी-खासी झिकझिक से आजिज आ गई शिखा अब खुद ही यह जोखिम उठाने लगी थी. शर्ट खरीदने की राह तो शिखा की मेहनत से कुछ आसान हो गई थी पर ट्राउज़ र्स का झंझट अजब बन चुका था. समीर को कोई न कोई नुक्स दिखाई दे ही जाता.

समझौता इस बात पर हुआ कि जींस खरीदकर ही काम चलाया जाए. थोड़ी ढीली या टाइट होने पर भी जींस कई ऐब छिपा लेती है ठीक कुर्ते पायजामे की तरह. यहां तक कि शादी-ब्याह में भी समीर जींस ही पहनता. यों शहर में दर्जी भी थे पर दर्जियों के मानदंड समीर के लिए जरा ऊंचे थे. अच्छे दर्जी की खोज, समय की कमी और कोफ्त का बढ़ता चला जाता ग्राफ-सबने धीरे-धीरे उसे रेडिमेड कपड़ों की ओर धकेल दिया. आज तक का रिकार्ड था कि वह कभी अपने लिए लाए गए कपड़ों से खुश न हुआ और जबसे शिखा ने जोखिम उठाना शुरु किया तबसे उसके हिस्से में दर्द के अतिरिक्त कुछ नहीं आया.

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मैंने कहा था ट्राई कर लो. कहीं कुछ गड़बड़ न हो, पर कोई सुने तब न?'' जिस दिन शर्ट आई समीर को आसमानी रंग और सेल्फ में हल्की सफेद लकीरों का डिज़ाइन भा गया. ऐसा भाया कि पैकिंग खोलकर वो कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था मानो अंदेशा हो कि खोलते ही कोई धमाका होकर रहेगा. उस वक्त समीर ने शिखा की बात पर कोई ध्यान दिया ही कहां था. शर्ट पर बयालीस साइज़  देखकर ट्राई करने के झंझट से मुक्ति पा ली थी. वैसे उसकी देह में पेट का घेरा चालीस से अधिक और बयालीस से कुछ कम साईज की शर्ट में राहत महसूस करता था पर आज शर्ट की पड़ताल करते हुए उसने पाया बयालीस साइज़  के नीचे छोटे अक्षरों में लिखा था - स्लिम फिट.

अब शिखा पर भड़कने का कारण और पुख्ता हो गया.

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उस समय नहीं देख सकती थीं तुम?'' शिखा भी चुप न रहीं - ''रेगुलर फिट अब नहीं चलता, ट्रेंड बदल रहा है... खुद ही ले आया करो तुम.'' अपने ऊपर आफत आती देख गुस्से को विस्तार और विकराल रूप देते हुए वह शिखा की बजाय शर्ट विक्रेताओं और निर्माण कंपनियों की खाल खींचने लगा- ''हर रोज़  नया फैशन बाज़ार में उतारने का पैंतरा है ये - स्लिम फिट. अरे! फिट ही होते तो अड़तीस पहनते न? अच्छी शोशेबाज़ी है... चालीस के आस-पास यहां कितने परसेंट आदमी हैं स्लिम फिट को पहनने वाले? इस भागदौड़ की जिंदगी में टी.वी. चैनल्स और फिल्मों में ही सब फिट दिखते हैं और मैं उनमें नहीं हूं जो ये मान लें कि शरीर कुछ नहीं कपड़ा ही सब कुछ है. शरीर के लिए कपड़ा है न कि कपड़े के लिए शरीर.''

शर्ट कंपनियों की खाल का कुछ नहीं बिगड़ना था उसे तो हर दिन नया धमाका करके सेल को बढ़ाना था. उन्हें क्या परवाह कि कोई समीर उनसे इक कदर खफा है. वैसे भी हज़ारों तरह के ब्रेंड उतरे हुए हैं बाज़ार में उनमें भी देसी कंपनियों पर विदेशी भारी. फास्ट लाइफ ने बाज़ार के पुराने चलन 'इंतज़ार' को कबका तोड़मरोड़ कर फेंक दिया था. अब कौन जाएं सिलवाने? ग्राहक की बेसब्री ने जहां अपनी आंखों पर खुद ही पट्टी बांध ली वहीं कंटम्प्रेरी डिज़ाइन ने उनकी आंखें चुंधिया दीं फिर ठप्पा ज़रा विदेशी वजन का हो तो गलती कंपनियों की कैसे हो सकती हैं? उस पर पुराने बाज़ार का एक और चलन कबका खत्म हुआ जहां दुकानदार ग्राहक को भगवान मानता था. ग्राहक के अधिकार और दुकानदार के कत्र्तव्य के छोर को थामे थी स्नेह और विश्वास की डोर.  पर नये की चकाचौंध में पुराने के लिए कोई जगह नहीं थी. नए बनते बाज़ार ने सबसे पहले पुराने उसूलों को उखाड़ फेंका और कूड़े के ढेर के सुपुर्द किया. रही-सही कसर ऑनलाइन शॉपिंग ने पूरी कर दी. ग्राहक का रुतबा तो खत्म हो ही चला था अब उसकी शक्लोसूरत भी मिटा दी गई. दृश्य अब अदृश्य हो गया.

न मालिक, न सेल्समेन, न मोल-भाव बस एक क्लिक और दुनिया भर का बाज़ार आपके घर. ऊपर से लगे कि ग्राहकों की सुविधा के मद्देनज़र सब किया जा रहा है पर उसकी आड़ में खरीदारी के लिए ज़ माने को बेसब्र बनाया जा रहा था. खरीददारी की खुजली के तुरंत समाधान के लिए दिन-रात के किसी भी लम्हे में बस एक क्लिक. फैशन की अंधी दौड़ ने कपड़ों का अंबार लगा दिया था घरों में. किसी समय घर भर के कपड़ों के लिए एक अलमारी हुआ करती थी. आज एक आदमी को एक अलमारी कम पड़ती है. इसका एक ही उपाय है अलमारी में जगह बनाने के लिए पुराने को जल्द फेंको और नए को उसमें भरो. मर्ज़ी और ज़रुरत दोनों के मायने बदल गए.

फिर दर्जियों को आसमान छूती सिलाई से मंहगाई के हर्फ को जोड़ने वालों को पता भी न चला कि दो कमीज़ों के कपड़े और सिलाई की लागत में वे एक कमीज़  खरीदकर आसानी से ठगे जा रहे हैं. सभी बेपरवाह बाय वन गेट फोर के शोर में झूम रहे हैं. सेल का बोर्ड दिखा नहीं कि बांछे खिल जाती हैं जबकि किसी समय दिवालिया होने पर दुकानदार सेल का बोर्ड लगाकर धंधे में लगाई अपनी मूल पूंजी बचा लेता था पर आज क्या सब दिवालिया हो गए हैं?

समीर के परिवार के लोग खासतौर पर उसकी मां कहती थी - ''तू सभी आदतों में बिल्कुल अपने पापा की तरह है. शक्ल तो मिलती ही है सीरत भी उन्हीं पर. उसमें भी सारे गुण एक तरफ और कपड़ों के मामले में तू भी उन्हीं की तरह मीन-मेख निकालने वाला निकला. अंतर केवल यही है वो अडिय़ल किस्म के खब्ती थे तू उनसे थोड़ा कम है. नए ज़ माने के साथ चलना उन्हें कभी रास न आया.'' समीर अच्छी तरह जानता था पापा की आदतों को. जब तक जिए, कपड़ों को लेकर बेहद संजीदा रहे. अच्छे से अच्छे कपड़े सिलवाते पर नए चलन के फैशन पर जान न देते. जो उन्हें भाया उनके लिए जीवन भर वही फैशन रहा. सस्ता और टिकाऊ- कपड़े के बारे में उनके यही दो पैमाने थे. कपड़ा खरीदते समय दोनों हाथों से वह कपड़े को खींचकर देखते फिर ढीला छोड़ते और फिर खींचते.

कपड़ा फट-फट की आवाज़  करता. यह आवाज़  जितनी ज़ोरदार होती पापा की मुस्कान उसी अनुपात में चेहरे पर फैलती जाती. कपड़े की मज़बूती जांचने का यह उनका अपना ही तरीका था. इसके बाद भी वह दुकानदार के कैंची छूने से पहले उसे पर्दे की तरह कपड़ा अपने हाथों की रॉड पर टांगने का आदेश देते ताकि किसी भी कमी को उनकी आंख परख सकें. मजाल है इस सबके चलते कपड़े में कोई मामूली सांट भी उनसे छिपी नहीं रहती. रही बात कपड़े सिलवाने की तो सही साइज़, अच्छा-खासा मार्जिन और मज़ बूत सिलाई ही उनकी शर्तें रहतीं. बरसों बाद जब कपड़ा फटता तो उसके भीतर की सिलाई लोगों को दिखाते - ''देख लो! कपड़ा फट गया पर सिलाई नहीं उधड़ी.'' ऐसा करके उन्हें न जाने कौन सी रुहानी खुशी मिला करती थी.

पापा की मीठी- सी याद के बावजूद सुबह की इस घटना ने समीर का सारा मूड खराब कर दिया. साथ ही शिखा के शर्ट को न बदलवाने के बारे में कहे मुंहफट शब्दों ने उसे और भी अधिक परेशानी में डाल दिया. आने वाली छुट्टी का पूरा दिन उसे शर्ट के झंझट में बर्बाद दिखाई देने लगा. शिखा की जान तो बच गई पर हुआ वही जिसका समीर को अंदेशा था.
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कोई ढंग का डिज़ाइन दिखाओ न?''

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सभी ढंग के हैं पर आपकी पसंद मेरी समझ से बाहर है सर.'' काउंटर पर लगे डिब्बों के ढेर, छुट्टी के दिन कस्टमर्स की आमदरफ्त और सामने से घूरते बॉस की नज़ रों ने सेल्समेन का सारा धैर्य खत्म कर दिया था. माल बिकवाने की सारी कवायद उसने पहले ही कर डाली थी फिर अब शर्ट बदले न बदले उसकी बला से. नए किस्म के आक्रामक बाज़ार की क्रूरताओं का वह भी एक पुर्जा बन चुका था. उसके चेहरे पर उभरती कठोर रेखाएं समीर को बर्दाश्त न कर पाने के ठोस संकेत दे रही थीं बावजूद इसके समीर पूरे साहस के साथ टिका रहा.

''
एक तो गलत चीज़  देते हो और बदले में कुछ अच्छा नहीं दिखाते. इतने बड़े ब्रैंड किस काम के?'' समीर को अपने समय और शर्ट के दो हज़ार रुपए का नुकसान बुरी तरह खटक रहा था. झगड़े और झंझट से बचने के लिए उसने मॉल के दूसरे काउंटर से बिना किसी योजना के एक चादर खरीद ली. बाहर निकलकर उसने देखा कांक्रीट के दूर फैले इस रेगिस्तान में मॉल्स के अनगिन धोरे उठ खड़े हुए हैं. जहां देखो वहीं भव्य इमारतें. भव्य इमारतों में बढ़ते ग्राहक. ग्राहकों की भारी जेबों पर दुकानों की ललचाई नज़ र पर ग्राहक का सुख? वो रेगिस्तान में दफ्न है या बिखरा पड़ा है चिंदी-चिंदी होकर कदमों के नीचे और हवा में उड़ रही हैं देशी जेबें और चिंदी बराबर टैग पर सवार, उड़ते हुए सीमा पार पहुंच रही हैं  भारी भरकम जेबें. समीर मॉल से बाहर आया और उसने स्कूटर स्टार्ट किया पर उसकी निगाह सड़क पर और मन कहीं और था.

अचानक समीर को याद आया पुरानी बस्ती का अपना वह बाज़ार जो घर से कुछ ही दूर था. पर बचपन में वह ज़ रा सी दूरी मीलों की दूरी जान पड़ती थी. नन्हें कदम बाज़ार की उस दूरी को तय करने में ही थकान से भर उठते थे. बाज़ार मतलब ज़ रूरत की पंद्रह-बीस दुकानें जो घरों के नीचे सुविधा से खोल ली गईं थीं. हर मोहल्ले का छोटा-सा बाज़ार. जहां हर घर के बच्चे तक को दुकानदार जानता था और उधारी खाते खूब चला करते थे.

दुकानें जिनमें से कई आकार में आड़ी टेढ़ी थीं जैसे कपड़ें में कोई कान निकल आया हो, जैसे घर की अतिरिक्त जगह को दुकान के लिए निकाल लिया गया हो. न आज सी कोई तड़क-भड़क, न तेज़  रौशनी और दुकानदार भी कैसे- मामूली के कपड़ों को ढीली-ढाली मुद्रा में एकदम निश्चित से. कोई दुकान में तख्त डाले अधलेटा-सा तो कोई बाहर ही अन्य दुकानदारों संग कुर्सी डाले गपिया रहा होता. गप्पों में आकंठ डूबा वह ग्राहक को हाथ के इशारे से समझा देता कि वो खुद ही सामान ले ले और पैसे गल्ले में डाल दे. और कोई-कोई तो ऐसा कि दुकान से घंटों के लिए नदारत.

दुकान अकेली छोड़ अंदर सोने ही चला गया है या कहीं किसी काम से बाहर. वो आज शहर के दुकानदारों से नहीं थे. उन्हें मालूम था छोटे-से मुहल्ले में चंद दुकानें हैं, माल बिकना ही है और जब सब इतने परिचित हैं तो काहे का सजना-संवरना? पर उन्हें कहां मालूम था ज़ माना करवट बदलेगा और मोहल्ले में दुकानें नहीं दुकानें ही मोहल्ला हो जाएंगीं. दुकान से खुद को जबरदस्ती का खरीददार बनाकर, लुटा हुआ महसूस करते ही समीर को बचपन की बातें एक-एक करके याद आने लगीं. उसे लग रहा था ये यादें आज मिले ताज़ा ज़ख्म पर फाये का काम करेंगी इसलिए उसने खुद को यादों की गली में सुपुर्द कर दिया.

उन्हीं गलियों में जो चेहरा नमूदार हुआ वह चेहरा था रशीद भाई का. वे मोहल्ले में ही कहीं रहते थे. गिनती के कुल चार ब्लॉक थे मोहल्ले में पर बचपन में मुझे वह किसी शहर जितना बड़ा ही लगता था. शहर के एक पुराने बाज़ार में मन्नत टेलर्स के नाम से मशहूर उनकी दुकान पर अक्सर आना जाना होता था पिताजी के साथ मेरा. उम्र मेरी अधिक नहीं तो कम भी नहीं थी. समझता सब था और मम्मी-पापा के खास खरीददारी के चक्कर में बाज़ ार के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हो गया था. वहां पूनम टेलर्स और आशियाना टेलर्स के होते हुए भी मन्नत टेलर्स की बात निराली थी. जैंट्स कपड़े सिए जाने की अव्वल नम्बर की दुकान थी मन्नत टेलर्स. पिताजी के लिए वो किसी मन्नत से यों बी कम नहीं थी. दुकान की चौखट पर आकर कपड़ों की सिलाई को लेकर उनकी तमाम शिकायतें खत्म हो गईं थीं और दुकान के अंदर बिखरा था रशीद भाई के व्यवहार का नूर. मुझे उनकी दुकान में आती कपड़ों की खुशबू बहुत पसंद थी.

बाज़ार में मन्नत के दिनों-दिन निखरते हुस्न से घबराकर पूनम टेलर ने जैंट्स के साथ लेडीज़  और बच्चों के कपड़े भी सीना शुरू कर दिया था और आशियाना टेलर्स का फिरोज़  तो पूरी मार्किट स्ट्रैटिजी बनाकर लेडीज़  टेलर के रुप में ही बाज़ार में उतरा था. मम्मी उसके अलावा कहीं और न जाती थीं. लच्छेदार बातों की खाता था और काम में परफैक्ट था. पतले-लंबे जिस्म से निकलती उसकी मोटी-सी आवाज़ , रंग-बिरंगी शर्ट के कुछ खुले बटन और बालों पर हर समय अटका धूप का चश्मा उसके स्टाइल की मिसाल बना इतराता. उस समय में भी बाज़ार होड़ के नियम पर चलते थे. पर होड़ लाभ-फायदे कमाने संग बेहतर काम करने की भी थी, भरोसे और गारंटी को सुनिश्चित किए जाने की भी थी.

पापा बताते थे- ''कोई कुछ भी करे रशीद भाई बेपरवाह हैं. उनके ग्राहक को तोड़ना नामुमकिन है.'' रशीद भाई कारीगर आदमी थे. हाथ किसी कपड़े को छू भर ले एक जादू-सा हो जाता. कुर्ते-पायजामे में वो सलीका उतार देते कि आदमी की चाल ही बदल जाती और साधारण से कपड़े को नये चलन की बढिय़ा पेंट-शर्ट में बदल देते. कोट-पेंट तो कोई क्या खाकर उनके जैसा सिल पाता. एक नहीं हज़ार जनम भी ले कोई तो रशीद भाई का हुनर कॉपी न कर सके. किसी को छोटे पायंचे की पेंट पसंद है तो किसी को बेलबॉटम. किसी को हवा में झूलते बड़े-बड़े कॉलर की कमीज़  चाहिए तो किसी को गर्दन से चिपटा बंद गला. किसी को एकदम चुस्त कपड़ा चाहिए तो किसी को ढीला-ढाला-रशीद भाई सारी सेवाओं के लिए हाजिर. उनके हाथ का सिला कपड़ा ग्राहक के शरीर से लगता तो संतोष और खुशी के मिलेजुले रंग माहौल में घुल-से जाते.

उस समय आज की तरह बच्चे, जवान और बूढ़े आदमी के लिए एक-सा फैशन नहीं था. पहनने वाले की पसंद पहले हुआ करती थी न कि किसी कंपनी की जबरन थोपी गई पसंद को अपनाने की मजबूरी. रसीद भाई की छोटी-सी दुकान में दीवार से लगी अलमारियों के कांच के पल्लों के भीतर अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र आदि की दिलकश पोशाकों वाली तस्वीर पर बस रसीद भाई के हाथ रखने की देर थी और ग्राहक के स्वीकृति में सिर हिलाने की हरकत, चमत्कार अलमारी से निकलकर नौजवानों के बदन पर फब जाता. जिसको जैसा रुचता. रशीद भाई ने 'खाओ मनभाता पहनो जगभाता' वाली कहावत को बदल दिया था, उनके शब्द थे - 'खाओ भी मनभाता, पहनो भी भनभाता.' बस इन्हीं शब्दों पर पापा का मन उनसे और मिल गया था.

जगभाते को पापा उतनी तवज्जों देते जिसमें जगहंसाई न हो. पापा के हरेक शब्द पर मेरे कान रहते थे और उन अनेक शब्दों में रशीद भाई के मामले में दोहराए-तिहराए गए शब्द मेरे दिमाग में डेरा बना चुके थे. हर दोहराव-तिहराव में वही प्रशंसा और हुनरमंदी की तारीफ. वरना उस बाज़ार में यू.पी. के दूर-दराज इलाके से आए कितने ही रशीद घूम रहे थे.

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आज शाम तैयार रहना समीर. रशीद के यहां जाना है कपड़े डालने.''

उस दिन पापा के कहे शब्द मन में कितना उत्साह भर गए थे. बात उस समय की है जब बाज़ार जाना और नए कपड़े सिलवाना किसी नवाबी शान से कम न था. पर मम्मी ने कपड़ा तो दिखाया नहीं? ''मम्मी! वो कपड़े तो दिखाना जो आज शाम मेरे लिए डलवाने हैं. कब गईं बाज़ार, कब लाई कपड़ा?'' ज़माना किफायत का था जिसे आज की भाषा में कंजूसी नहीं समझा जाता था और मेरा घर ज़ माने की किफायत के नक्शेकदम पर था. ''तेरे भइया की एक और पापा की दो पैंटें निकाली हैं. सिलवाने डाल आ.'' मेरे सवाल का जवाब मिल गया था और मैं खेल में मगन हो गया. शाम को पापा के साथ जाते हुए मैंने तीनों पैंटों पर गौर किया. पिताजी की पैंटों से मेरी पैंट निकल जाने में मुझे संदेह न था पर भाई की पैंट? खुले-खुले पांयचे की नीचे से घिस गई पेंट से कैसे बनेगी मेरी पैंट? मैं बड़ा हो रहा था कोई बच्चा नहीं था अब. पर किससे बांटता अपनी चिंता को?

मुझे याद है उस दिन बाज़ार में पहुंचकर मेरी चिंता उन गलियों में कुछ देर को न जाने कहां गायब हो गयी. कितने दृश्यों से भरा था वो संसार. हमेशा की तरह मैं उसमें खो जाने को बेताब था. कितने तरह के काम एक साथ चल रहे थे. रशीद भाई की दुकान जिस गली में थी क्या रौनक थी उसकी. सड़क से कुछ पहले की दुकानें भी देखने लायक थीं. कितनी तरह की कढ़ाई के काम वहां चलते थे. सड़क की शुरुआत से ही दोनों तरफ कहीं हाथ की कढ़ाई का भारी काम, कहीं गोटा, कांच और सलमा-सितारे का काम, कहीं काज-बटन का काम,कहीं मकैश की कढ़ाई और ज़ री का बारीक काम. मैं बहुत देर तक उन कामों को देखता रहता. गली में घुसने पर इन कामों का हुस्न जगमगाने लगता.

कोई पक्का कारीगर सुई में सितारे पिरोकर आकाश सजा रहा होता तो कोई कपड़े पर उभरी लकीरों की बेल बनाता हुआ पूरा बागीचा उस पर उतार देता. ये काम मुझे बहुत भाता. गली के शोर की धुन पर कारीगर के हाथ धीरे-धीरे अपनी मंज़िल तक पहुंचने को उठते. मेरी नज़र कभी भरवां कढ़ाई पर जाती तो कभी पैडल मशीन पर मैं दर्जियों के पैरों की गति देखता. इतना ही क्यों कपड़े के रंग में मिलती रील निकालते ही कारीगर का शटल में धागा भरना मुझे बड़ा अच्छा लगता. धारदार कैंची से कपड़े पर लगी नीली स्याही पर फिरते हुए लंबाई या गोलाई में फटाफट काट देना मुझे हैरत में डाल देता. कटे हुए नापों को कतरनों की सुतली से बांधकर दुकान के आलों में ठूंस देना मुझे परेशान करता. कैसे पहचान होती होगी कि कौनसा कपड़ा किसका है? सारी गली भरी पड़ी थी इन्हीं सब कामों से. छोटे-छोटे से दिखने वाले कामों की दुकानें मुझे कभी खाली न दिखती. कितना काम था वहां, सिर उठाने की फुर्सत नहीं. हर किसी की इच्छा को कपड़ों में उतारने का काम जोरों पर था.

एक काम से जुड़ा दूसरा काम और उससे जुड़ी थीं कितनों की रोजी-रोटी. हाथ कम पड़ सकते थे पर काम नहीं. कारण कुछ मैं जान पाता था और कुछ पापा के जरिए जान लेता था. शहरों में इन हुनरमंदों की बढ़ती मांग के चलते गांव-देहात में बसे इनके रिश्तेदारों को भी एक ही जगह काम मिल जाता था. यहां काम भी था और दाम भी. कितनी ही दुकानों में नाते-रिश्तेदारें का पूरा कुनबा जुटा था. खानदान के खानदान और खानदानी काम. इन दुकानों के साथ ही साथ रील, गोटा, बटन, कतरनों, बुकरम, तमाम तरह के धागों, इंचीटेप, कढ़ाई ठीक होने आती रहीं. उनके बड़े छोटे कलपुर्जों से भरी थी वो दुकान. किसी की मशीन बिगड़ जाती थी तो कहीं और भागना पड़ता. बाज़ार छोटे-छोटे उद्योगों में सिलाई के बड़े उद्योग को समर्पित था.

मैं बड़े मजे से सब कामों को निहारता चलता. पापा रशीद भाई के काम निबटवाते या दुनिया-जहान की बतियाते और मैं गली में खोया रहता. उस समय आज की तरह लोगों का बेसब्र रेला बाज़ारों में नहीं भागता था कि किसी को आस-पास के संसार को निहारने की फुर्सत ही न हो. मैं इन सबमें तब तक खोया रहता जब तक पापा की मुझे पुकारती आवाज़  न आती.

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रशीद भाई! दो महीने बाद घर में शादी है. सोच रहा हूं अब लड़कों के सफारी सूट ही सिलवा लूं इस बार. मामला मंहगा होगा पर शादी की बात ठहरी.'' हाथ मेरे नाप पर और ध्यान पिताजी की बात पर दिए वे बोले- ''ऐसा कीजिए मास्साब! अलग-अलग पीस की बजाय एक थान ले लीजिए गुप्ताजी की दुकान से... मेरा नाम लेकर.'' अचकचाकर उन्हें देखते हुए पिताजी बोले - ''यार हंसी उड़वाआगे हमारी? लोग शादी को सिर्फ एक थान के परिवार की वजह से याद रखेंगे.'' पिताजी का मायूस चेहरा देखकर मुझे बड़ी दया आई.

उस वक्त रशीद भाई ने मायूसी के बादल छांटते हुए कहा - ''इत्मीनान रखें आप! एक थान आपको सस्ता पड़ेगा और मैं ऐसा बना दूंगा कि कोई बता न पाएगा कि कपड़ा एक है... और दुकनदार को पैसा देने की जल्दी न कीजिएगा. शादी का मामला ठहरा, सौ खर्च होंगे घर के, मैं बात कर लूंगा.'' अगली बार पिताजी मुझे, थान और भाइयों को लेकर वहां पहुंचे. मेरा दिल धड़क रहा था पिछली बार दी गई भैया की पैंट मेरे पहनने लायक होगी या नहीं? दोस्तों के बीच मज़ाक न बन जाए कहीं और ये क्या उसे देखते ही मेरा मन उस पर आ गया.

वो एकदम नई पैंट लग रही थी. गली से निकलते ही मेन बाज़ार था. वहां कपड़ों की अनगिनत दुकानें थीं. हमारे शहर की मशहूर कपड़ा मिल की चलती दुकान के साथ देश भर की अधिकांश नामी-गिरामी मिलों का कपड़ा बाज़ार में मौजूद था. इन नामी-गिरामी मिलों को मैं रेडियो और टेलीविजन के विज्ञापनों और अखबारों के जरिए खूब पहचानने लगा था. टी.वी. तब नया ही आया था घर में इसलिए कोई सूचना, कोई कार्यक्रम चूक जाना गुनाह-ए-अज़ीम था फिर कपड़ों के विज्ञापन में अपने पसंदीदा क्रिकेट खिलाडिय़ों का होना मेरे लिए काफी था. यों नायिकाओं की देह से आकाश की ओर मीलों उड़ती थान नुमा साड़ी भी मुझे कम रुचिकर नहीं थी. उसका आसमान छूना मेरे लिए कम चमत्कारी नहीं था.

घर की उस शादी में मैंने पहली बार रशीद भाई को परिवार के साथ शामिल होते देखा. उनकी पत्नी तो नहीं पर उनके दोनों लड़के और छोटी-सी लड़की आए थे. इसी के नाम पर ही उनकी दुकान का नाम था- मन्नत. उनके लड़के परवेज़  और असलम तो उसी सरकारी स्कूल में पढ़ते थे जिसमें हम भाई पढ़ा करते थे और रशीद भाई कभी-कभार उन्हें पापा से कुछ पढे-समझने के लिए भेज भी दिया करते थे. उनसे जान-पहचान थी ही. मैंने देखा, उस दिन रशीद भाई की आंखें खुशी के इस पल में अपनी कारीगरी की दाद देती हुई कुछ ज़्यादा ही चमक रही थीं. पापा और हम सब भाईयों से लोगों की नज़ र नहीं हट रही थी. सबकी एकटक आंखों की प्रशंसा रशीद भाई की आंखों में समा गई थी.

सफारी की चुस्त फिटिंग, हर सूट में सिलाई का जुदा ढंग और उसमें निखरते हम सब. पहली बार सफारी सूट पहनकर मैं खुद को बारात का दूल्हा मानकर इतरा रहा था. यों सभी भाईयों ने और पापा ने उसी थान से सफारी बनवाए थे पर मजाल है जो कोई भी इस राज को फाश कर देता. रशीद भाई ने अपने यहां बनने आए सफारी सूट के कपड़ों के बचे हुए छोटे-मोटे पीस से हर सूट में कोई नया रंग खिला दिया था. दो अलग रंगों का मैच बनाकर, कहीं ताना-बाबा बदलकर उन्होंनें सदी का सबसे बड़ा चमत्कार हमारे नाम लिख दिया. उस पर हर बार की तरह पापा को इज्ज़ त बख्शते हुए उन्हों सिलाई भी कम ली थी.

पापा के पढ़े-लिखे होने और शिक्षक होने की कद्र उनकी आंखों में हमेशा दिखाई देती. हमारे मोहल्ले के तिमंजिले मकान वाले मालदार कपूर साहब की वो इतनी इज्ज़ त नहीं करते थे जितनी हमारे पापा की. छुट्टी के दिन या शाम को अक्सर दुकान पर बैठे तुरपाई करते अपने बच्चों से वे हमारे सामने ही कहते - ''पढ़-लिख जाओ ढंग से तो मास्साब की तरह बन जाआगे. इज्ज़ त की रोटी कमाना, इंसान बनना.'' और मुझसे भी कितनी ही दफा उन्होंने कहा - ''बेटा अपने अब्बा जैसे बनना.'' पापा ने बताया था कि कॉलेज में दाखिला मिलने पर भी रशीद भाई अपने अब्बू के गुजरने के बाद पढ़ाई जारी न रख सके थे और जिम्मेदारियों की गिरफ्त में अपना पुश्तैनी कारोबार संभालने लगे. सब कुछ होते हुए भी पढ़ाई के लिए उनकी खलिश न मिट सकी. न जाने उनकी दुआओं का ही असर था कि मैं भी पापा की तरह सरकारी स्कूल में टीचर लग गया. पर इस सच को रशीद भाई कहां जानते थे? उन्हें पता चलता तो कितने खुश होते. उन्नीस-बीस साल बीत गए थे हमें वो मोहल्ला छोड़े.

मैं सोचने लगा रशीद भाई वाकई पढ़ाई-लिखाई को कितनी तरजीह देते थे पर उनके बेटे? आखिर क्या बना होगा उनका? बड़ा परवेज़  तो कहीं क्लर्क-व्लर्क लग भी गया हो शायद पर छोटा असलम? वो तो एकदम निखट्टू था. उसके भविष्य की सूरत भांपकर ही रशीद भाई छुट्टियों में उसे तुरपाई, बखिया से लेकर कटाई का काम सिखाते थे. दूर की आंख थी उनकी. वे अपने हुनर को असलम में उतार देना चाहते थे पर उसका दीदा न पढ़ाई में लगता न सिलाई में. वे कहते थे - ''दो पैसे का काम सीख लेगा, भीख तो नहीं मांगनी पड़ेगी.'' रशीद भाई जैसा काबिल हो पाना सबके बस की बात नहीं? फिर इन लोगों के यहां बच्चे पढ़ते-लिखते हैं ही कहां? इनमें पढ़ा-लिखा तबका है ही बेहद कम इसीलिए तो इतने कट्टर... नहीं रशीद भाई ऐसे नहीं थे.

रशीद भाई तो अपनी तरह के एक ही इंसान थे, निकलता है कोई-कोई इनके यहां भी. इस तरह के एक-आध लोग मुश्किल से पर मिल जाते हैं इनमें. आज मेरा मन बार-बार रशीद भाई की चिंता में घुला जा रहा था. वैसे तो बच्चों का फर्ज़  होता है मां-बाप की सेवा करना पर उन दोनों से क्या बना होगा? फिर रशीद भाई की कमाई पूंजी तो मन्नत के निकाह में लग गई होगी, मैंने अनुमान लगाया मन्नत जवान हो चुकी होगी. शादी के लायक उम्र की. इसीलिए उसकी शादी के बाद जो रकम बाकी बची होगी उससे दो लड़कों औैर रशीद भाई की अपनी गाड़ी घिसट रही होगी जैसे-तैसे. जुड़ा पैसा कोई कुबेर का खजाना तो है नहीं. और मन्नत? अच्छी सूरत और ढंग की पढ़ाई न हो तो लड़की की जल्दी शादी कर देना ही भला. सीरत-वीरत को कौन पूछता है आज के समय में.

मुझे अचानक मन्नत का सांवलापन याद हो आया. उसके नैन-नक्श कैसे थे बहुत दिमाग मारने पर भी यादों के रास्ते कुछ जाहिर न हो सका. कहां तक पढ़ी होगी? मदरसे में कुछ पढ़ा हो तो हो उसने. पर वहां कहां पढ़ाई-लिखाई? तालीम के नाम पर कुरान पढ़ना ही सिखाया जाता है बस. दीन के साथ दुनिया की तालीम कहां? यहीं तो उनमें और हममें फर्क आ जाता है. पापा बताते थे उनके घर की औरतों ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा था.

मैं बाज़ार से घर लौट आया पर मेरी चिंता बराबर बनी रही - अब कैसे गुजारा होता होगा रशीद भाई का? क्या आज भी उनके वही ठाठ बरकरार होंगे? अब उतना काम तो नहीं कर पाते होंगे? ढलते शरीर ने काम का दामन कबका छोड़ दिया होगा. नौकरीपेशा आदमी की भी यह उम्र तो रिटायर होकर आराम फरमाने की है.

सरकारी नौकरी के आराम के बीच अचानक रशीद भाई के बच्चों का ध्यान आते ही मैं शंका में पड़ गया कि अब भी बाज़ार में उनकी दुकान का सिक्का चलता होगा? हाथ के कितने काम अब खत्म हो चुके हैं फिर कहां बचीं अब वो कपड़ा मिलें? शहर की जानी-मानी मिल तो कबकी बंद हुई. बरसों शहर की उस मिल की खाली पड़ी जमीन पर अब ग्रुप हाउसिंग सोसायटी खड़ी होने की खबरें आम हैं. अब बाज़ारों में कहां रहीं वे कपड़ों की पुरानी दुकानें. मेरा मन सवाल करता क्या बाज़ार की वो रौनक अब भी बरकरार होगी? लेडीज़  टेलर्स तो फिर भी किसी तरह बचे हुए हैं पर कितने जैंट्स टेलर्स को मैंने खुद बेकार होते देखा है. हमारे नए मोहल्ले में चल रही जेंट्स टेलर्स की दुकानों को मैंने घिसटते और बंद होते अपनी आंखों से देखा.

आस-पास के मोहल्लों के चार-पांच बाज़ारों में एक भी जेंट्स टेलर्स की दुकान नहीं हैं. रशीद भाई का चेहरा फिर से दिमाग में उभरा तो सोचने लगा, बिना पैंशन पाने वाले पिता की रही सही मिट्टी पलीद करती हैं संतानें. बुढ़ापे में कितना बेइज्जत होना पड़ता है अपने ही जायों से. रशीद भाई भी हो रहे होंगे. शुक्र है हम भाई नहीं बहे इस बेदर्द हवा के संग पर हम जैसे हैं ही कितने?
''
मम्मी! रशीद भाई याद हैं?'' उस दिन रशीद भाई मेरे दिलोदिमाग पर हावी हो चले थे.
''
तुझे आज कैसे याद आ गई?'' मां के सवाल के जवाब में 'बस ऐसे ही' के अंदाज में मैं हल्का - सा मुस्कुराया.

''
पुराना घर क्या छोड़ा रशीद भाई ही छूट गए. तेरे पापा बाद तक भी जाया करते थे उनसे मिलने पर काम-धंधे में बरकत वैसी नमी रही थी. धीरे-धीरे आना-जाना छूट गया और फिर तेरे पापा भी...'' मैं उनके शब्दों की मी पर गौर ही कर रहा था कि वे बोलीं - ''पता नहीं ज़िंदा भी हैं या... किस हाल में होंगे ईश्वर जानें?''

मम्मी की बात से अचानक फिर मेरी रुह कांपी. वो तो नहीं पर मैं समझ रहा था ये समय फिर से रशीद भाई जैसों की अग्निपरीक्षा का समय है. धारा उनके अनुकूल कहां? जात के कारीगर, धर्म के मुसलमान ऊपर से गरीब. उन जैसों की किस्मत तो बद से बदतर हो रही है. मन में चरम आवेग के बाद लहरें जब थमतीं तो मैं फिर रशीद भाई के साथ खुद को पाता- ''कितने अलग तरह के इंसान थे. अपने सभी हिंदू ग्राहकों की कितनी इज्जत करते थे. यों ही पापा उनकी प्रशंसा करते थे क्या?'' मेरे अनुमान फिर से एक शक्ल गढ़ते और ज़ माने के चलन में रशीद भाई का चेहरा अधिक दयनीय मुद्रा में साकार होता. अनुमान में तराशे उनके चेहरे पर बेचारेपन के अलावा मुझे कुछ न दिखाई देता. दिल-दिमाग पर हावी होते जा रहे रशीद भाई के ख्याल को मैंने बड़ी मुश्किल से कुछ देर के लिए झटका.

अगले दिन का हाल न ही पूछिए तो बेहतर. मैं रोज़  की तरह स्कूटर पर स्कूल की तरफ जा रहा था. चौराहे पर रेड लाइट ने कुछ पल आस-पास देखने की मोहलत दी. नज़र घुमाई ही थी कि ये क्या? मेरा दिल धक्क रह गया. दिमाग की सारी नसें अचानक ही मुझे बेहद तनी हुई और गर्म महसूस हुई. स्कूटर के हैंडल पर मेरे हाथों का दबाव अचानक पिघलकर गायब-सा होने लगा. मुझे अपने दोनों हाथ सुन्न से महसूस हुए. दाहिनीं ओर कुछ आगे की भीड़ में एक ऑटो के पीछे लिखे शब्दों ने मुझे हिलाकर रख दिया.

''
चले जिंदगी की गाड़ी, इज्ज़त की रोटी
अल्लाह करम हो, तेरे बंदे रशीद पर''

'
इज्ज़त की रोटी और रशीद' इन शब्दों ने मेरी सारी इंद्रियों को सचेत कर दिया. अतीत सामने खड़ा हो गया. रशीद भाई के शब्द स्मृतियों के खाने से सिर उठाने लगे पर ग्रीन लाइट में तीस सेकेंड का बाकी समय, ऑटो की दूरी और अपने स्कूटर को अकेले छोड़कर जाने के ख्याल ने सभी आफतों को एक साथ मुझ पर लाद दिया. मैंने सीट पर ही तिरछा होकर ऑटोरिक्शा वाले को नज़र के दायरे में लाने का भरसक प्रयास किया पर सब व्यर्थ. मन की आंखों से मुझे साफ दिख रहा था कि हो न हो ये रशीद भाई ही हैं. तेजी से चौपट हो रहे सिलाई के धंधे को न संभाल पाने और अपनी गिरती ज़िंदगी को पार लगाने का ये रास्ता चुना उन्होंने. सिग्नल मिलते ही मेरे स्कूटर ने रफ्तार पकड़ ली जैसे मेरे मन में लगातार 'इज्ज़त की रोटी और बंदा रशीद' की धुन दुगुने-तिगुन से बजने लगी.

मैं ऑटो की दिशा में भागने लगा. भागते हुए मेरी आंखें ऑटोवाले की वर्दी के भीतर रशीद भाई को बेचैनी से खोज रही थीं. उसके पीठ, कंधे और बालों का रशीद भाई की काठी और हुलिये से मिलान करता मेरा दिल जोरों से धड़क रहा था. मैली कुचैली वर्दी में ऑटोरिक्शा वाले को जब मैंने नज़ दीक से देखा तब जाना शब्द इसके भी रशीद भाई जैसे हैं पर ये रशीद भाई नहीं. दो घड़ी का समय लगा मन को स्थिर होने में. स्थिर होते ही मन ने कहा शब्द इसके भी कहां होंगे? वो तो किसी पेंटर के ही होंगे. मिलते ज़रूर हैं रशीद भाई के फलसफे से पर कौन जाने पेंटर कौन है? हिंदू भी हो सकता है. पर रशीद भाई? उन्होंने भी तो कहीं कोई ऐसा ही काम?... हो भी सकता है. ज़ रूरी तो नहीं परवेज़  क्लर्क ही लगा हो खरादिया भी तो हो सकता है न? और असलम वो भाग गया होगा पाकिस्तान अपने किसी चाचा-ताऊ के यहां. एक आते तो थे कई बार उनके घर.

अक्सर उन्हीं के साथ घूमता दिखाई देता था असलम. हमारी मकान-मालकिन जिन्हें हम चाची कहते थे कितना डर गईं थीं उन्हें मोहल्ले में देखकर. आज भी उनके शब्द कानों में उस दिन की तरह जिंदा हैं - ''कैसी डरावनी तो आंखें हैं... अभी चेहरे से निकलकर खून कर दें किसी का.'' मुझे याद है पापा कितना नाराज़  हुए थे उनसे. पर उस दिन के बाद जब भी मुझे अफज़ल के चाचा दिखते मैं डर जाता. उनके चेहरे के संग चाची के शब्द किसी चेतावनी से चस्पां हो गए थे. पता नहीं उसके चचा रहते कहां थे? कहीं रशीद भाई शहर छोड़कर चले तो नहीं गए उनके पास? ...आखिर कैसे जी रहे होंगे रशीद भाई? मेरे मन में अचानक रशीद भाई के लिए दया का सैलाब उमड़ने लगा.

''
इसमें इतना भी क्या परेशान होना? चले जाओ किसी दिन अपने पुराने मोहल्ले या उनकी दुकान पर. यहां बैठे सोचते रहने से क्या हासिल होगा भला?'' शिखा मेरी चिंता भांपते हुए बोली.
''
और मिलने पर क्या कहूंगा... क्यों आया हूं?'' मैंने सवाल दाग दिया.

''
कह देना मिलने और क्या?''

''
इतने सालों में कोई खोज-खबर ली नहीं और अब अचानक...'' शिखा सहज थी पर मैं दुविधा में फंस गया. ''तो कहना कपड़े सिलवाने के लिए और क्या?'' शिखा ने बिना देर लगाए कहा. मैं जितना उलझा हुआ वो उतनी ही सुलझी हुई. उसकी बात से जैसे मुझे सुकून और सही राह दोनों साथ मिल गए. इधर ज़रा-सा इत्मीनान हाथ आया ही था कि एक भारी ग्लानि भी उसी राह चली आई. रशीद भाई की चिंता में शामिल अपना कुसूर भी मुझे साफ दिखाई देने लगा. जब मैं पिताजी के नक्शेकदम पर था और रेडिमेड कपड़े मेरे लिए आफत हो रहे थे तब क्यों मैंने रशीद भाई को अब तक नहीं ढूंढा? क्यों मैंने अपने संतोष की बलि चढने दी.

क्यों नहीं पापा की ही तरह अपनी पसंद को तरजीह दे पाया और क्यों मैंने नए जमाने के नए चलने की तेज़  आंधी में सब उड़ जाने दिया? अचानक मेरी आत्मा पर पिछले कई बरसों में उजड़ गए दर्जियों और ठप्प पड़ गए उनके काम-धंधों में अपना किया कुसूर बहुत नागवार गुजरने लगा. मुझ जैसे कसूरवारों ने ही रशीद भाई जैसों की हालत बदतर बना दी. कल तक मैं भव्य ब्रांड के रेगिस्तानी धोरों को कोस रहा था तो आज उन रेतीली इमारतों की ऊंचाई पर मैंने खुद को खड़ा पाया. उस ऊंचाई से जब मैंने नीचे की ओर देखा तो दर्जियों के बंद होते धंधे और मोहल्ले में सिलाई मशीन लेकर पुराने कपड़ों को दुरुस्त करते एक-आध बेचारे-से कारीगर ही दिखाई दिए. हालत ये हो गई है कि अब घरों में भी सिलाई मशीन रखने का चलन खत्म हो गया. यूज़  एंड थ्रो के चलन ने पुरानी चीज़ों के साथ हर पुराने चलन को भी लात मारकर फेंक दिया. पुराने काम-धंधों और हुनर की ऐसी बेइज्जती से मेरा मन कांप गया.

मैंने प्रण किया चाहे कुछ हो कल मुझे हर हालत में रशीद भाई के बारे में पता करना ही है. मन का एक कोना ये भी समझ रहा था कि पुराने सब कुछ को उड़ाती तेज़  आंधी में मेरे भावुकतापूर्ण विचार कितनी देर टिक पाएंगे? पर मन कहता कि चाहे कुछ हो डर के मारे हर बार शुतुर्मुर्ग बनकर जीने से क्या हासिल? और फिर कौन सोचेगा इनके बारे में? मैं खुद को दिलासा देता तमाम भयों पर फतह पाने के किसी पोशीदा राज में खो गया.

रात भर मैं बाज़ार का पुराना नक्शा दिमाग में बनाता रहा. घूमता रहा उन गलियों में और खोया रहा अपनी चिंताओं में. आज पापा भी बहुत याद आ रहे थे. कितने जीवट वाले इंसान थे. अपने निर्णयों को सम्मान से जीने वाले थे, ये आज गहराई से समझ आ रहा था. जगभाता नहीं मनभाता करने वाले. उनके खब्ती स्वभाव की कद्र आज उसकी नज़र में बढ़ती ही जा रही थी. उस स्वभाव की जिसका उनके बच्चों और पत्नी दोनों ने खूब मज़ाक उड़ाया था. मां कितनी बार कहती- ''क्या तुम हमेशा बाज़ार-बाज़ार करते रहते हो. बाज़ार ऐसा हो गया. बाज़ार ने ये कर दिया.'' खुद मुझे भी तो कितनी ही बार ऐसा ही लगता... पर आज उनके उसूलों का अर्थ कुछ अलग तरह से समझ आ गया है. नए मकान में जब तक जिए घर में राशन रौनक स्टोर्स से ही आया. जीवन भर छोटे दुकानदारों से उनका प्यार-मोहब्बत, भाईचारे का रिश्ता बना रहा.

अगले दिन मैंने अपना स्कूटर उठाया और चल पड़ा अपने रशीद भाई को ढूंढने. कई साल पहले मौसेरी बहन की शादी में जो शर्ट-पैंट का जोड़ा मुझे मिला था उसे एक थैले में डालकर शिखा ने मुझे दे दिया. बरसों  से वो जोड़ा इसी थैले में कैद था. यों भी अब शादी-ब्याह पर हम जैसे लोगों के परिवारों में ही इस तरह के जोड़े भेंट किए जाते थे. पुरानी रस्म की तरह यह भी रस्म अदायगी ही थी. जोड़े के साथ मैंने अपने सारे सवालों और ख्यालों को भी उस थैले में डाला और मंजिल की ओर निकल पड़ा. ज्यों-ज्यों दूरी तय होती जा रही थी मेरी धुन को भी पंख लगते जा रहे थे. नॉस्टैल्जिया दिमाग से मेरी आंखों में उतरकर बाज़ार को साकार कर रहा था और जिंदा हो रहा था दृश्यों का वह संसार जिसकी हरकतों पर मैं जान देता था.

''.एक बार मिल जाएं रशीद भाई फिर अपने सभी दोस्तों, परिचितों को भी उनकी दुकान की राह दिखाऊंगा. बरसों से ठप्प उनका धंधा फिर आबाद होगा. रशीद भाई का सिक्का फिर से जम जाएगा.'' मेरा उत्साह बढ़ता ही जा रहा था. ये उत्साह बरसों की दूरी को पाटता आनंद की लहर में था. अपनी ठीक-ठाक याददाश्त के सहारे मैं बाज़ार में पहुंचा तो उसकी सूरत बिल्कुल बदल चुकी थी. मैंने बचपन में उसे जिस रूप में देखा था उसका कोई निशान आज बाकी न था. अतीत के जादू में घिरे होने के कारण मेरे लिए बाज़ार बिल्कुल वैसा रहा जैसा मेरा बचपन. जैसे वहीं ठहर गई मेरी वो उम्र. पर इस समय वास्तविकता से टकराते ही मुझे दिखाई देने लगा मेरी दोनों उम्रों के बीच का फासला. इस फासले पर ध्यान जाते ही जादू टूटने लगा. ये बाज़ार भी तमाम दूसरे बाज़ारों में बदल गया जो मोहल्लों और मॉल्स के बीच मोहल्लों के बाज़ारों को पीछे छोड़ते मॉल्स की बराबरी करने में लगे थे. मुझे दिखने लगीं चमचमाती भव्य दुकानें, चुस्त सेल्समैन और मोटा ग्राहक. गाडिय़ों से पटे रास्ते और धक्का-मुक्की करता ग्राहकों का रेला. मॉल्स जितनी जगह तो यहां असंभव थी पर उनकी बराबरी की धुन में हर दुकान अपनी भव्यता में निराली दिख रही थी.

मेन सड़क पर कढ़ाई-सिलाई और कपड़ों की उन दुकानों का नामोनिशान तक न था जो मेरे जेहन में आज तक जीतीं थीं. वहां थीं तिमंजिला दुकानें, आलीशान दुकानें, रौनकदार दुकानें और मैं पॉलीथिन बैग में कपड़ा लिए उनसे गुजरता हुआ जा पहुंचा उस गली के द्वार पर जहां से अंदर कुछ चालीस-पचास कदम पर ही थी मन्नत टेलर्स की दुकान. मैंने गौर किया बाज़ार की तरह गली भी बेहद बदल गयी थी. हाथ के कारीगरों के धंधे वहां से उठ चुके थे. कहां चले गए होंगे वो खानदान? क्या हुआ होगा उनके खानदानी हुनर का? कैसे कमा-खा रहे होंगे अब? शहरों में तो उनकी मांग खत्म हुई. शायद धंसे होंगे नमालूम सी कस्बाई गलियों में कहीं. कुछ को बड़े डिज़ायनर्स और कंपनियों ने मामूली वेतन पर रख लिया होगा. कुछ देश के अनेक हिस्सों में सस्ते श्रम और बिना किसी बुनियादी सुविधाओं के विदेशी कंपनियों के टेलर होकर रह गए होंगे. यानी कपड़ा हमारा, मज़ दूर हमारा और मुनाफा टैगधारी कंपनी का. इनके अलावा शहर में जो बाकी बचे भी होंगे वो अपने भीतर के कलाकार को मारकर ऑलट्रेशन जैसे मामूली कामों से पेट पाल रहे होंगे.

जाने कैसे? मेरे लिए रशीद भाई की खोज आज केवल एक इंसान की खोज नहीं रह गई. आज कई सूरतें उसमें उभकर आने लगीं. वो सवाल सर उठाने लगे जिनके बारे में मैंने कभी इस तरह सोचा ही नहीं था. सब मेरे लिए भी 'चलता है' जैसा ही तो था. अपने सभी सवालों के साथ दिमाग में यहां आने का मकसद एक बार फिर कौंधा. रशीद भाई को तो ढूं्ढना ही था. कदम आगे बढ़े तो मैंने देखा गली के दोनों ओर कुछ गोदाम- से बन गए थे. अंदर के मकान काफी स्टाइल में बने खड़े थे जबकि पहले कोने का खन्ना जी का 'खन्ना निवास' का बोर्ड लगा मकान ही भव्य दिखाई देता था. उसने आज शानदार शोरुम का रूप ले लिया था. पर ये क्या? अतीत की गली को वर्तमान से तौलते जब मैं मन्नत टेलर्स पर पहुंचा वहां चाय की छोटी-सी दुकान थी. मैंने ध्यान से देखा अवशेष के रूप में 'मन्नत टेलर्स' का बोर्ड भी नदारद था. मेरी उम्मीद पल भर में आकाश से धरती पर पटक दी गई जैसे और उम्मीद की पसलियां दर्द से कराहने लगीं.

''
भई! यहां मन्नत टेलर की दुकान थी पहले.'' चायवाले से सवाल पर मैंने पीड़ा से कराहती चित उम्मीद को जैसे-तैसे खड़ा करने की कोशिश की.

''
होती होगी बाऊजी, पर मैं तो तीन-चार साल पहले ही आया हूं. मैं नहीं जानता. सारा इलाका बदल गया है. न पुराने दुकानदार रहे, न मकान मालिक.'' चायवाले के शब्दों से मिली निराशा में मैं जैसे ही पलटा वह बोला - ''कोने की जो दुकान है न बाऊजी वो पुराने दुकानदार हैं. शायद कुछ जानते हों. थोड़ी - बहुत दुकानें मार्किट के सबसे पिछले हिस्से में चली गई हैं. यहां तो बड़ी-बड़ी दुकानें हैं बस. मेन रोड है न.'' मेरे पस्त हौसले ने फीकी-सी हंसी में उसका धन्यवाद दिया, जो दिया न दिया बराबर था.

रशीद भाई को खोजने की मेरी आग पर ठंडा पानी पड़ गया था. पॉलीथिन बैग पर मेरी मजबूत पकड़ भी ढीली पड़ गई. एक आखिरी उम्मीद में, मार्किट के पिछले हिस्से की ओर जाने से पहले मैं उस कोने की दुकान की तरफ बढ़ चला कि कुछ पता चल सके रशीद भाई का. इनफिनिटी नाम की तिमंजिली दुकान के हर फ्लोर पर रंग-बिरंगे कपड़े जगमगा रहे थे. बाहर से मेरे संग आया गर्मी का पारा एसी की ठंडक में उतरने लगा. कानों में किसी तेज़  गाने की धुन समाने लगी, उसके संग चला आ रहा था ग्राहकों का तेज़  शोर. दुकान में दाखिल होकर मैंने मालिक को पूछा तो बेहद व्यस्त सेल्समेन ने एस्केलेटर की दिशा में तीसरी मंजिल की ओर इशारा किया. मेरा मन भले ही उदास था पर नज़र हर फ्लोर पर बच्चों, औरतों और आदमियों के कपड़ों, ग्राहकों की भीड़ और व्यस्त काउंटर्स की अनदेखी न कर सका. तीसरी मंजिल के दो हिस्सों में एक तरफ शानदार ऑफिस था तो दूसरी ओर कपड़ों का सेक्शन. ऑफिस की शान था दीवार में जड़ा शीशे का बड़ा-सा पैनल जिससे नीचे के बाज़ार की रौनक भीतर दाखिल होती जान पड़ती थी.

''
जी?'' डेस्कटॉप पर हिसाब में उलझे मालिक ने मुझे एक झलक देखकर अपनी आंखों को दुबारा डेस्कटॉप पर केंद्रित किया. उसका 'जी' काफी वजनी महसूस हुआ मुझे. उसकी ठसक और स्टाइल से भरी उपेक्षा के बावजूद मैंने अपनी बात कही –

''
कुछ जानना था आपसे.''

मेरी बात को कोई महत्व नहीं दिया गया है, ये जानकार भी मैंने पूरी बेशर्मी के साथ कुछ रुककर कहा - ''यहां मन्नत टेलर्स की एक दुकान हुआ करती थी. रशीद भाई की... उन्हीं के बारे में पता करना है... किसी ने बताया आप काफी पुराने बसे हैं इस जगह''.  अचानक मालिक ने खुद को डेस्कटाप से मुक्त किया और मेरे चेहरे की ओर एकटक देखने लगा. मुझे बड़ा अजीब-सा महसूस हो रहा था... पता नहीं यह क्यों घूर रहा है? एक जानकारी के बदले में उसका इस तरह घूरना मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. शायद मेरे आने से उसके काम में कोई भारी रुकावट आ गई थी.

''
आप समीर हैं न? मास्साब के बेटे?'' उसके इन दो सवालों से थैला मेरे हाथों में जकड़ा रह गया और मेरी आंखें अचरज की आखिरी सीमा तक फैल गईं.

इससे पहले कि मैं कुछ कहता मालिक बोला - ''आज कैसे रास्ता भूल गए आप? इतने सालों बाद?'' मेरा दिमाग सौ गुना रफ्तार से अतीत को खंगालकर इस आदमी को पहचानने की कोशिश करने लगा. मेरी पेशानी पर पड़ी सिलवटों के साथ ही मेरी आंखें पहले फैलीं और अब सिकुड़कर दूरबीन बन गईं. मैं उसके लैंस को घुमाता मालिक के चेहरे को अपने एकदम करीब ले आया. क्लोज़  अप में चहरे की रेखाएं और नसें सब उभरने लगीं.

कहां देखा है इसे? कौन है ये? - के सवालों से मैं जूझ ही रहा था कि वो अपनी कुर्सी से उठकर मेरे पास आया.

''
मेरा हुलिया काफी बदल गया है पर आपका चेहरा बिल्कुल वही है... मैं असलम... समीर भाई! पहचाना?'' असलम के शब्द गर्मजोशी से मुझे छू रहे थे. उसे अचानक पास आया देख मैं कुछ कहता कि उसने मुझे अपनी बाहों में ले लिया. उसके हाथों की पकड़ किसी गहरी दोस्ती- सी मुझे सहला रही थी और मैं खुद को उसके हवाले किए दे रहा था. अगले क्षण उसने मुझे थामकर अपने सामने वाली कुर्सी पर बिठाया.

''
अब्बा आज तलक याद करते हैं आप लोगों को. मास्साब का जिक्र चलता रहता है घर में. यकीन जानिए वो दौर कबका बीता पर आप जैसे कितने लोग हमारे दिलों में बसे रहे. देखते-देखते पुराना काम बंद हुआ. बाज़ार इतना तेजरफ्तार हुआ कि हाथ से काम करने वाले बुरी तरह पिछड़ गए. एक-एक करके कई दुकानें बंद हुईं फिर बिक गईं और कुछ सिमट गईं बाज़ार में एकदम पीछे. अब्बू कई साल संभालते रहे जैसे-तैसे. लडख़ड़ाते हुए गिरे भी कई बार. बड़ा बुरा दौर था हमारा. अब्बा के लाख चाहने पर भी हम दोनों भाईयों में सिलाई का खानदानी हुनर न उतर सका पर भाईजान और मैं आपके वालिद की समझाइश पर बढ़ते रहे. मेरी हालत तो आप जानते ही थे... पर मैंने पढ़ाई नहीं छोड़ी.

भाईजान तो शुरू से ही अच्छे थे पढ़ाई में अब बाहर ही सेटल हो गए और मैं एम.बी.ए. के बाद अब्बू के साथ. कपड़े का कारोबार अब्बू की जान है. उन्होंने अपने वालिद का साथ दिया और मैंने उनके साथ खड़े होना मुनासिब समझा. आखिर औलाद का वालदेन का भी हक है ? भाईजान भी पूरी मदद करते हैं हमारी. बस अब्बू और उनकी मदद से ही धीरे-धीरे इस इनफिनिटी ने शक्ल पाई. बाकी जो है सो आप देख ही रहे हैं. हम दोनों ने अब्बू को काम से एकदम फारिंग कर दिया है पर त्यौहार पर शौक से आज भी कैंची उठा लेते हैं.'' उसकी मुस्कुराहट मुझसे छिपी न रह सकी. अतीत से आज तक का पुल बनाते असलम के शब्दों की ताज़ गी मेरी मुर्दनी पर भारी थी.

''
और आप सुनाओ? क्या चल रहा है?''


''
स्कूल में पढ़ाता हूं.'' चार शब्दों को बेहद ठहर-ठहरकर मैं बोल पाया. न मालूम वो किस गहरी खोह से निकल रहे थे.

''
आप भी मास्साब...'' असलम के शब्द सहज थे पर वजनी हथौड़े से मेरे सीने पर पड़े. मुझे महसूस हुआ उसकी कुर्सी और मेरी कुर्सी के बीच कोई टेबल नहीं विशालकाय समुद्र लहरा रहा था. कुछ भी न कर पाने की हालत में मैं पॉलीथिन बैग को छिपाने की दिलो-जान से कोशिश करने लगा. मैं उसे जितना छिपाता वो अपनी चर्रमचूं से उतना अधिक उजागर हो रहा था.

''
थैला मेज पर रख दीजिए न...इत्मीनान से बैठिए आप.''

उसके शब्दों से फिर मेरी जान सूखने लगी. मेज पर रखते ही थैला कपड़ों सहित सारा राज़  फाश कर देगा और जाहिर ये होगा कि मैं आज उनकी अपने मुताबिक सोची 'गिरती हालत' पर रहम करने आया हूं. धड़कते दिल से मैं दुआएं मांगने लगा ये धरती फट जाए और थैला उसमें समा जाए या फिर ऐसा अंधड़ चले कि असलम की आंखें धूल से भर जाएं. ये थैला उड़कर मुझसे मीलों दूर चला जाए और वो उसे देख न पाए. मुझे खुद पर और थैले पर बेहद तरस आ रहा था. मैंने अपनी गोद में हाथों की ओट बनाकर छिपा लिया. बाकी की कसर असलम और मेरे बीच की मेज ने पूरी कर दी. ओट और आड़ दोनों ने थैले को काफी ढांप दिया. हाथों को बिना हिलाए मैंने उसकी चर्रम-चूं का रास्ता भी बंद कर दिया.
''
अभी कुछ देर में अब्बा भी आते होंगे. कभी-कभार आते हैं दुकान पर. मन नहीं लगता न घर पर और फिर इस जगह से पुराना याराना जो ठहरा उनका.''

असलम की इस बात से मुझे और धक्का पहुंचा. उससे मिलकर जितना मैंने जाना था उतने भर से ही मैं वहां से भागने का रास्ता खोज रहा था पर अब सारी दिशाएं मुझ पर बंद थीं. सुबह तक जिन रशीद भाई से मिलने के लिए मैं मरा जा रहा था अब उनसे बचने का मौका तलाशने लगा. पर मौका मिलना नामुमकिन था. इससे पहले की मेरा दिमाग कोई बहाना गढ़ता या वक्त मुझे संभलने की मोहलत देता, असलम बोला
''देखिए अब्बू आ गए.''

असलम के शब्दों और इशारे की दिशा में जब मैंने शीशे के पैनल से नीचे झांका तो एक गाड़ी दिखाई दी. ड्राइवर ने दरवाज़ा खोला और बड़े अदब से रशीद भाई को उतारा. रशीद भाई जितने इत्मीनान से ऊपर आ रहे थे उनकी धज की हल्की-सी झलक मिलने से मैं उससे चौगुनी गति से किसी तूफान से घिरता जा रहा था. मन किया मैं भी किसी अदृश्य शक्ति से अपने थैले में छिप जाऊं, कहीं गायब हो जाऊं. उन्हें सामने जो देखा, देखता ही रह गया. उनकी उम्र ज़रूर बढ़ी थी पर उससे ज़्यादा बढ़े थे उनके ठाठ. बालों को उन्होंने किसी खिजाब का रंग नहीं दिया था. अपनी सफेदी में उनके बाल सुंदर लग रहे थे. चेहरा एकदम सफाचट और उस पर गजब की लाली और तेज़ . शरीर पहले से अधिक भारी हो गया था और उसी अनुपात में चेहरा भी भरा-भरा लग रहा था. उनके जिस्म के कपड़ों और हर चीज़  से नफासत बह रही थी और मैं उस ठाठ की बाढ़ में डूबता चला जा रहा था. परिचय के बाद माहौल में एक बुजुर्ग का अपनापन दाखिल हो गया. मुझसे मिलते ही उनके चेहरे से बयां होती खुशी और उत्तेजना की कंपकपी को मैंने महसूस किया. पापा की मौत का उन्हें बेहद अफसोस था. कुछ देर की चुप्पी के बाद ऑफिस में फैले दुख की चादर को उन्होंने अपने शब्दों से समेटा - ''बेटा! ये तो उम्र भर का दुख है. जाने वाले की यादें रह जाती हैं बस.'' बाद में उन्होंने मेरे काम-धाम के बारे में पूछा तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा –

''
मैं जानता था तुम भी अपने वालिद जैसे ही बनोगे. दिखते भी उन्हीं की तरह हो. चाहते तो हम भी थे बेटा! कि हमारा कोई बच्चा भी पढ़ाए... पढ़े तो तीनों खूब पर पढ़ाने वाल कोई न निकला.'' उनके भरोसे की मोहर के नीचे मैं अब भी अपनी तमाम अटकलों में एक अदना-सा इंसान लग रहा था. कहां वे और कहा मैं? उनकी खुशी का जवाब मैंने एक फीकी-सी हंसी से दिया. अगले ही क्षण मेरे अंदर के वहम एक बार फिर मज़ बूती से उठ खड़े हुए.

''
मन्नत कैसी है अंकल? अब तो वो भी घर-गृहस्थी वाली हो गई होगी?'' मेरे सवाल पर रशीद भाई मुस्कुराए.

''
अरे! याद है तुमको उसकी? भई! मन की मालिक है वो. हमारी आन और शान. बानो डॉक्टर हो गईं हैं. हार्ट स्पेशलिस्ट. पहले कहती थीं निकाह अपनी पसंद से करेंगी. हम भी इंतज़ ार करते रहे. अब कहती हैं निकाह के लिए अभी वक्त मुफीद नहीं. बरखुरदार आजकल तुम्हारे जैसे होनहार बच्चे खूब जानते हैं अपना भला-बुरा. हमने तो सब उन पर छोड़ रखा है.''

रशीद भाई ने मेरे वहम को ज़रा सी मोहलत न दी. उन्हें ज़रा तरस न आया मुझ पर... मन्नत भी?

मेरे लाख मना करने पर भी रशीद भाई ने चाय-नाश्ता मंगाकर घर के आदमी जैसी इज्जत मुझे दी. पूरे आग्रह से मुझे खिलाया. पापा के ज़िक्र ने उस माहौल में पुराने दिनों को लौटा दिया. उनके पास पापा से जुड़े कई किस्से थे. उनकी बातचीत और मेरे परिवार के प्रति उनके स्नेह ने मुझे हर तरह की शर्मिंदगी से उबार लिया.

''
आपके वालिद के इंतकाल के समय मैं बाहर था... परवेज के पास. बेटा! आज उन्हीं के फज़ल से मेरे तीनों बच्चे अपने पैरों पर खड़े हैं.'' मेरे मन में रशीद भाई के लिए आदर और गहरा हुआ. चलते समय जब मैं उनके पैर छूने को झुका तो आगे बढ़कर उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया और नम आवाज़  में कहा –

''
भाभी को मेरा सलाम कहना और आते रहना बेटा! आज तुमसे मिलकर दिली खुशी मिली है मुझे.''


रशीद भाई का प्यार लिए मेरे कदम दुकान से निकल रहे थे. चेहरे पर असलम की हंसी के जवाब में एक मुस्कुराहट थी. मैं खुश था कि रशीद भाई खुश हैं, उनका परिवार खुशहाल है पर दिमाग के दूसरे कोने में जारी हलचलें मुझे अशांत कर रही थीं - क्या सब रशीद इतने खुशकिस्मत हैं? अचानक मेरे हाथ में दबा हुआ थैला मुझे बहुत भारी लगने लगा.
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प्रज्ञा
जन्म : 28 अप्रैल 1971, दिल्ली
तक़्सीम (कहानी संग्रह), जनता के बीच जनता की बात (नुक्कड़ नाटक-संग्रह), नुक्कड़ नाटक, रचना और प्रस्तुति, नाटक से संवाद (नाट्यालोचना), तारा की अलवर यात्रा (बाल साहित्य), आईने के सामने आदि
pragya3k@gmail.com
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आलेख : यहाँ पढ़ें बाज़ार की जरूरत और उसके साइड इफ़ेक्ट्स

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