मंगलाचार : अखिल ईश की कविताएँ

courtesy : tumblr
































चित्रकार-लेखक 'अखिलेश' और कथाकार–संपादक 'अखिलेश' से हम सब परिचित हैं. जब एक तीसरे 'अखिलेश' नें मुझे कविताएँ भेजी तो मैं संशयग्रस्त हो गया. कविताएँ पहली बार पढ़ रहा था. कविताएँ मजबूत हैं, और लगता है कि तैयारी पहले से है.
मैंने अखिलेश को पहले तो 'अखिल ईश' किया. जो उन्हें पसंद भी आया. बाद में पता चला कि उनका सम्बन्ध सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के परिवार से है.

स्वागत है अखिल ईश का और उनकी कविताएँ आपके लिए.





अखिल ईश की कविताएँ                            






कविता

एक वक्रोक्ति ने
टेढ़ी कर दी है सत्ता की जुबान
एक बिम्ब ने नंगा कर दिया है राजा को !

ढ़ोल नगाड़ो और चाक चौबंद
सैनिकों के आगे दर्प से चलते राजदंड़ को
एक हलन्त ने लंगड़ी मार कर
घूल घूसरित कर दिया है !

अलंकार उतार कर फेक दिये गये है
कसे गये है वीणा के तार
तांड़व की तैयारी में 
ये जो दूध की बारिश हुई है सड़कों पर
वो राग भैरवी के कारण है
मल्हार तो पसीना निकाल लेता है
और एक बूंद तक नहीं देता पानी की !

शिल्प ने राजनीति के चेहरे पर कालिख पोत दी है
सामंती आंखो में खून उतर आया है
उससे बहते विकास के परनाले
दरिद्रता का कीचड़ पैदा कर रहे है सड़कों पर
रपट कर गिर रहे है, छटपटा रहे है,
मुक्ति मुक्ति चिल्ला रहे है अन्नदाता
एक सूखे श़जर के नीच अन्नपूर्णा
पांच मीटर लंबा कपास बट रही है !

कई चौधरियों की हड्डियां गड़ रही है
चौराहों पर
खूंटा बनकर
लार टपकाते कूकूर भोज समझ कर
इकट्ठा हो रहे है .

एक रूपक ने रामराज्य के सदरियों को
धोबी कहा हैं
बहुत दिनों के बाद एक कविता
नक्कारखानें में तूती बन गई  है !





कायर

शेरवानी में दमकते सुपुत्र को पिता ने गले लगाया
सेहरा पहने बेटे की माँ ने ली बलैया
घुडचडी के पहले
मंत्रोच्चार के बीच पंडित जी ने
खानदानी तलवार
छोटे ठाकुर के कमर में बाँध दी

एक घर के सामने से गुजरी बारात
तो छत्रपति मिला नहीं पाये
छत पर खड़ी
एक लड़की से आंख

ठाकुर के बेटे को
आज फिर
एक चमार की बिटिया ने
कायर कहा .






वस्त्र

मेरे गांधी बनने मेरे तमाम अडचने हैं
फिर भी चाहता हूँ कि तुम खादी बन जाओ
मैं तुम्हें तमाम उम्र कमर के नीचे
बाँध  कर रखना चाहता हूँ
और इस तरह कर लेता हूँ खुद को स्वतंत्र
घूमता हूँ सभ्यता का पहरूआ बनकर !

जबतक तुम बंधी हो
मैं उन्मुक्त हूँ
गर कभी आजाद हो
झंड़ा बन फहराने लगी
तो मै फिर नंगा हो जाऊँगा !

चरखे का चलना
समय का अतीत हो जाना है
अपनी बुनावट मे अतीत समेटे तुम
टूटे तंतुओ से जुड़ते जुड़ते थान बन जाती हो
सभ्यताओ पर चादर जैसी बिछती हो
और उसे बदल देती हो संस्कृति में
जैसे कोई जादूगर रूमाल से बदल देता है
पत्थर को फूल में !

इस खादी के झिर्री से देखो तो
तो एक बंदर, पुरुष में बदलता दिखता हैं
वस्त्र लेकर भागा है अरगनी से
बंदर के हाथ अदरक है
चखता है और थूक देता है .






घास

पाँवो तले रौदें जाने की आदत यूँ हैं
कि छूटती ही नहीं
किसी फार्म हाऊस के लान में भी उगा दिया जाँऊ
तो मन मचल ही जाता है
मालिक के जूती देख कर !

इस आदत के पार्श्व में एक पूरी यात्रा हैं
पूर्व एशिया से लेकर उत्तर यूरोप तक की
जिसे तय किया है मैने
कुछ चील कौवों के मदद से
मैं चील के चोंच से उतना नहीं डरता
जितना आदम के एक आहट से डरता हूँ
मैंने आजतक बिना दंराती लिये हुये आदमी नहीं देखा !

शेर भले रहते हो खोंहो में
पर बयां, मैना, कबूतर के घर मैंने बनाये हैं
मैंने ही पाला उन सबको
जिनके पास रीढ़ नहीं थी
मसलन सांप,बिच्छू और गोजर !

मैंने कभी नहीं चाहा
कि इतना ऊपर उठूं जितना ऊंचा है चीड़
या जड़े इतनी गहरी जमा लूं
ज्यो जमाता हैं शीशम
धरती को ताप से जितना मैंने बचाया हैं
उतना दावा देवदार के जंगल भी नहीं कर सकते
जिन्होंने छिका रखी हैं चौथाई दुनिया की जमीन !

मैं उन सब का भोजन हूँ
जिनकी गरदन लंबी नहीं हैं !

मैं उग सकता हूँ
साइबेरिया से लेकर अफ्रीका तक
मैं जितनी तेजी से फैल सकता हूँ
उससे कई गुना तेजी से
काटा और उखाड़ा जा रहा हूँ .

मैं सबसे पहला अंत हूँ
किसी भी शुरुआत का !

मैं कटने पर चीखता तक नहीं
जैसे पीपल,सागौन और दूसरे चीखते हैं
मेरे पास प्रतिरोध की वह भाषा नहीं हैं
जिसे आदमी समझता हो
जबकि उसे मालूम हैं कि मुझे बस
सूरज से हाथ मिलाने भर की देर हैं
ऐसा कोई जंगल नहीं
जो राख न कर सकूं !

मुझे काटा जा रहा है चीन में
मैं मिट रहा हूँ रूस में
रौंदा जा रहा हूँ
यूरोप से लेकर अफ्रीका तक
पर मेरे उगने के ताकत
और डटे रहने की जिजीविषा का अंदाजा नहीं है तुमको !

मैं मिलूंगा तुम्हें चांद पर
धब्बा बनकर
और हां
मंगल का रंग भी लाल हैं !




गिल्लू गिलहरी

जब झुरमुट तक नहीं होगा
और पानी वितरित होगा सिर्फ़
पहचान पत्र देखकर
बरगद,पीपल सब मृत घोषित कर दिये जायेगें
प्रकाश-संश्लेषण पर कालिख पोतते हुए
सागर सुखा दिया जायेगा
क्योंकि वो मृदुता से असहमत हैं
तो कविताओं में तुम
नीर भरी दुख की बदली
कहाँ से लाओगी महादेवी ?

जब जल विष बन जायेगा
और हर कंठ शंकर
अनुबंध पर ले लिए जायेगे सभी फेफडे
अमीर चिमनीयो के धुआं संशोधन हेतु
चींटियाँ  अचेत हो जायेंगी कतारों  में
चुटकी भर आटे के लिए
और तुम व्यस्त रहना
निबंधों में खूब अनाज बाँटना महादेवी !

अब मैं एक घूँट पानी नहीं पिऊँगी
न खाऊँगी एक भी काजू
जब तक तुम नदी,जंगल, जमीन
के लिए नीर नही बहाओगी !

फिक्रमंद गिल्लू गिलहरी ने
महादेवी से कहा !
_______________



अखिलेश 
(14•02•1980 गोरखपुर)

केमिकल इंजीनियरिंग में स्नातक
सम्प्रति : मुख्य प्रबंधक
भरूच गुजरात/9687694020
akhil_chem_hbti@yahoo.com

10/Post a Comment/Comments

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  1. बहुत ही अच्छी कवितायेँ है अखिलेश जी की ।अलग ही पहचान हासिल की है बिम्बों के टटकेपन से ।
    शुभकामनाये

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  2. शुभकामनाएं अखिलेश! आज आपने एक महत्वपूर्ण पड़ाव पाया है। कविताएँ अपने में एक कहने की ऊर्जा कहें या कहें ज़िद लिए हैं। इसे संजोइ रखिएगा।

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  3. आशा जगाने वाली कवितायें हैं।भाषा के प्रति सचेत होना होगा।

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  4. बहुत सुंदर कविताएं हैं,कवि !
    हृदय से बधाई।सस्नेह,

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  5. वाह, बहुत बधाई आपको।

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  6. कवि की कविता के लिये बस इतना कहा जा सकता है की हिनदी साहितय का उभरता हुआ नचछतर .

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  7. एक बात स्पष्ट कर दूँ कि कविता साहित्य का कोई आलोचक या पाठक अखिलेश भाई की कविताई को किसी खुन्नस-वुन्नस में भले नकार दे लेकिन मन से नहीं नकार सकता। उनकी कविताओं में एक वशीकरण मंत्र छिपा रहता है।

    अखिलेश भाई की कविताएँ पहले से पढ़ता रहता हूँ और कह सकता हूँ कि उनके पास कविता का विषय खोजने की अद्भुत शक्ति है और फिर उस कविता को विकसित करने, माँझने, बनाने के तमाम कौशल और हथियार भी वे रखते हैं। उनके पास मिथकीय परम्परा और आचार-विचार के साथ-साथ लोक परंपरा और आचार-विचार का गहरा ज्ञान है। यद्यपि लोक की भी कई परंपरायें मिथक ही हैं और श्रुत माध्यमों से ही हम तक पहुँचती हैं। उनके पास एक भाषा है जिसके अधिकांश शब्द हमारे परिचित हैं पर एक रचना में उनका सही उपयोग कर पाने की क्षमता बहुत कम लोगों के पास ही होती है। वे सुवरण को खोजते कवि नहीं हैं बल्कि उचित वरण को अपने प्रयोगों द्वारा निखारते कवि हैं।

    उनकी कविताएँ जिन विषयों को लेकर चलती हैं और जिस तरह से उसे निभाती हैं वह कवि की सूक्ष्म दृष्टि और उद्दात संवेदना की परिचायक है।

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  8. अखिलेश भाई की जहिनियत उनके बातों में ही नही उनकी कविताओं में भी झलकती है..अखिलेश भाई को मैं कोई अतिशयोक्तिपूर्ण उपमाओं और अलंकारों से नही नवाज कर सीधा सीधा कहूँ तो आपकी कविताओं को कोई आलोचक नकार नही सकते। अभी जब मैं कविताएँ पढ़ रहा था तो कविताएँ अपने प्रभाव के जद में लिए जा रही थी। मैनें सोचा था कविताओं पर आलोचना लिखूंगा लेकिन यह सत्य कह रहा हूँ कविताएँ अपने पाठकीय तिलिस्म में लपेट ली मुझे। ज्यों ज्यों कविताएँ पढ़ता गया आलोचना के बिंदु तिरोहित होते गए। आज समालोचना में प्रस्तुत की गयी सभी कविताएँ कथ्य और ट्रीटमेंट के आधार पर नवीन है..ऐसी कविताएँ खूब लिखी जा रही है पर अभिव्यक्ति की अपनी अलग भाषा और परिभाषा अखिलेश भाई ने गढ़ी है..हर अभिव्यक्ति की अपनी सीमाएं होती है और अपनी जटिलता। आलोचकीय वितान में कई जगह कुछ शब्द अनावश्यक से जरूर लगते है । लगता है मानों कविताओं को धारदार और भावाभियक्ति के स्तर पर असरदार करने के लिए ऐसे शब्द प्रयोग किये गए है जिनके बिना भी कविताएँ किसी स्तर पर कमज़ोर नही हो रही थी..ड्राफ्ट की गयी कविताएँ कई बार कविता की मौलिकता को कम कर देती है और मूल अर्थवत्ता को भी बदल देती है। मुझे लगता है घास और कविता शीर्षक कविता में ड्राफ्ट के बाद कुछ बदला गया होगा..खैर अखिलेश भाई चीजों को खुद बहुत बारीकियों से पड़ताल करते है और इन बातों को बहुत बेहतरी से समझते भी है..अच्छी कविताओं के लिए मेरी बधाई और सृजनकर्म के लिए शुभकामनाएं।

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  9. कवि ने साहित्य और खास कर के हिंदी साहित्य खूब गहराअई से पढ़ रखा है लगता है । एक पढ-ए लिखे कवि का स्व्वागत!

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