स्त्री -चेतना : अज्ञात हिंदू महिला: रोहिणी अग्रवाल

पेंटिग : अमृता शेरगिल











भारतेंदु काल में लेखिका ‘एक अज्ञात हिन्दू महिला’  'सीमंतनी उपदेश' (1882) लिखती हैं जो उस समय की सोच से आगे की रचना थी. यह किताब एक सदी तक विलुप्त रही. डॉ. धर्मवीर के प्रयास से 1984 में यह प्रकाशित हुई. इस तरह की कई और लेखिकाएं हैं.

जिसे हम नवजागरण कहते हैं उसमें इन लेखिकाओं की कैसी भागीदारी थी और उनका क्या योगदान है ? इसपर अभी और अन्वेषण- विश्लेषण की जरूरत बनी हुई है.

आलोचक रोहिणी अग्रवाल के स्तम्भ ‘स्त्री –चेतना’ की शुरुआत अज्ञात हिंदू महिला से की जा रही है.




अज्ञात हिंदू महिला 
तीखे आक्रामक  तेवरों  में कड़वी  सच्ची बात


रोहिणी अग्रवाल



बेशक नवजागरण आंदोलन की पीठिका पर ही हिंदी साहित्य का आधुनिक काल टिका हुआ है, लेकिन यह भी तय है कि समाजसुधार के इस वैचारिक आंदोलन में उदारतावादी दृष्टिकोण और सामंती सोच की जड़ताओं का घालमेल अवश्य हुआ है. स्त्री की स्थिति में सुधार की कामना के स्त्री-पुरुष संबंधों और पारिवारिक ढांचे को ज्यों का त्यों बनाए रखने की ललक इस दौर के चिंतकों-लेखकों में दिखाई देती है. इसका प्रमाण है कि स्त्री-शिक्षा के पाठ्यक्रम से लेकर स्त्री के विवाह की न्यूनतक आयु के निर्धारण को लेकर चली लंबी-लंबी बहसें. यह दौर बहुविवाह, बालविवाह जैसी कुरीतियों के विरोध और स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह जैसी अग्रगामी सोच के समर्थन में अपनी उपस्थिति तर्ज कराना चाहता है, लेकिन कानूनी तौर पर और पारिवारिक स्तर पर स्त्रियों को ज्यादा अधिकार देने का हिमायती नहीं है. स्त्री शिक्षा के मुद्दे पर ही यदि भारतेंदु, स्वामी दयानंद सरस्वती और लाला लाजपत राय की टिप्पणियों को सामने रख कर तद्युगीन सामाजिक-साहित्यिक परिदृश्य का आकलन करना चाहें तो स्थितियां कुछ ज्यादा उत्साहजनक नहीं हैं. मसलन, भारतेंदु 'भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है' में अपने मंतव्य का खुलासा करते हैं - ''लड़कियों को भी पढ़ाइए किंतु उस चाल से नहीं जैसे आजकल पढ़ाई जाती हैं जिससे उपकार के बदले बुराई होती है. ऐसी चाल से उनको शिक्षा दीजिए कि वह अपना देश और कुल धर्म सीखें. पति की भक्ति करें और लड़कों को सहज में शिक्षा दें.''


ठीक इसी आशय की पुनरावृत्ति हुई है स्वामी दयानंद सरस्वती की टिप्पणी में कि ''लड़कियों की शिक्षा का चरित्र लड़कों की शिक्षा से भिन्न होना चाहिए.  . . . हिंदू लड़की को हिंदू लड़कों से भिन्न प्रकृति के कार्य करने होते हैं. अतः मैं उस व्यवस्था को प्रोत्साहित नहीं करूंगा जो उन्हें उनके राष्ट्रीय चारित्रिक गुणों से वंचित कर दे. हम अपनी लड़कियों को ऐसी शिक्षा नहीं देंगे जो उनकी सोच को बदल दे.''

लाला लाजपत राय की मान्यता भी इनसे कुछ भिन्न नहीं - ''अतीत से लेकर वर्तमान तक मेरी यह दृढ़ मान्यता रही है कि पुरुषों में शिक्षा प्रसार की सख्त तथा महत्वपूर्ण जरूरत है परंतु स्त्रियों की शिक्षा उन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कोई सहयोग दे, यह आवश्यक नहीं.''

मजे की बात यह है कि उसी दौर की अलक्षित कर दी गई स्त्री-रचनाकार एक नई दृष्टि, स्फूर्ति और दृढ़ता के साथ इन मुद्दों पर बात करती हैं. इनमें प्रमुख हैं मराठीभाषी रमाबाई और ताराबाई शिंदे के अतिरिक्त मल्ल्किा देवी, अज्ञात हिंदू महिला, दुखिनीबाला, और बंग महिला. उल्लेखनीय है कि इस दौर का पुरुषरचित साहित्य थोड़ा-बहुत हाथ-पैर मारने के बाद शोधार्थी को सुलभ हो जाता है, लेकिन स्त्री-रचनाकारों की पुस्तकों को जुटाना टेढ़ी खीर है. यही नहीं, नवजागरणकालीन अधिकांश लेखिकाओं से हमारी पूर्ववर्ती पीढ़ी ने न केवल उनका नाम और निजी पहचान छीनी है, बल्कि उनकी रचनाओं को जमींदोज करके साहित्येतिहास लेखन के उस उर्वर दौर में उन्हें जानबूझ कर परिदृश्य से बाहर कर दिया गया है. पितृसत्ता के गहरे दबावों तले स्त्री को दोयम दर्जे का मानने की जड़ मानसिकता के अतिरिक्त इसका भला क्या अन्य कारण रहा होगा? यहां तक कि आचार्य शुक्ल भी बंगमहिला के अतिरिक्त अन्य किसी स्त्री रचनाकार को अपने इतिहास में स्थान नहीं देते. 

क्या इसलिए कि अज्ञात हिंदू महिला का विलोम रचते हुए बंगमहिला पितृसत्ता से अनुकूलित सोच के साथ साहित्य सृजन करके पुरुष-मंतव्यों को पुष्ट करती हैं?

बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में वैश्वीकरण के दौर में यदि अस्मिता विमर्श ने जोर न मारा होता, और अपने इतिहास और धरोहर को जानने की व्यग्रता में विख्चारकों ने समय का उत्खनन करने की चेष्टा न की होती, तो शायद हम जानबूझ कर अलक्षित कर दी गई स्त्री-रचनाकारों की कृतियों से आज भी महरूम होते.

यहां इस तथ्य का उल्लेख करना बेहद जरूरी है कि 1882 में रचे जाने के बावजूद 'सीमंतनी उपदेश' डॉ. धर्मवीर के प्रयास से 1984 में प्रकाश में आई, और जुलाई 1915 से मार्च 1916 तक 'स्त्री दर्पण' में धारावाहिक रूप से प्रकाशित पुस्तक 'सरला: एक विधवा की आत्मजीवनी' (दुखिनीबाला) को प्रज्ञा पाठक ने 2005 में 'कथादेश' में प्रकाशित कराया.





''जैसे गन्ने का रस निकाल लेने से छिलका रह जाता है, वैसे ही हमारी हालत है'  बनाम ''अब हमको खुद इस जेलखाने से निकलने की तदबीर करनी चाहिए''

29 छोटे-बड़े अध्यायों में विभक्त सीमंतनी उपदेश' सौ से भी कम पृष्ठों की एक 'बड़ी' किताब है. उग्र और तिलमिला देने वानी शैली में रचित यह पुस्तक न केवल अपने समय में प्रचलित सभी विवादास्पद और ज्वलंत स्त्री-सरोकारों को उठाती है, बल्कि अपने समय की जड़ताओं का सृजन करती कट्टरताओं से उतने ही बेबाक ढंग से गरियाती और लोहा लेती है. शायद इस किताब को अलक्षित कर देने का कारण भी यही रहा कयोंकि स्त्री की स्वतंत्रता को बाधित करने वाली सामाजिक संस्थाओं और धर्मशास्त्रों को सबसे पहले यहीं चुनौती मिली जो यथास्थितिवाद की चूलें हिला देने के लिए काफी थी.

लेखिका अज्ञात हिंदू महिला स्वयं बाल विधवा हैं और आर्य समाज के प्रभावस्वरूप स्त्रियों को शिक्षित करने का एजेण्डा लेकर चल रही हैं. इसलिए कहीं उद्बोधनात्मक शैली में समूची स्त्री जाति का आह्वान करते हुए उसे अपनी स्थिति के प्रति चेताने का आग्रह करती हैं तो कहीं शास्त्रार्थ मुद्रा में धर्मशास्त्र को चुनौती देती हैं. शास्त्रसम्मत नैतिकता के दोहरे मानदंडों से अलग अज्ञात हिंदू महिला स्त्री-पुरुष दोनों के लिए समान प्रतिमान और आचार-संहिता बनाना चाहती हैं.  वे शास्त्रसम्मत मान्यता का उद्धरण देते हुए तक करती हैं कि यदि स्त्री-पुरुष दोनों की उत्पत्ति ब्रह्म से हुई है तो यह कैसा इन्साफ कि ''आधा जिस्म मर्द का औरत के मरने से दूसरी शादी कर सके और आधा जिस्म औरत का शादी बगैर जेलखाने में मार दिया जावे.'' (सीमंतनी उपदेश, पृ0 76)

बेशक याज्ञवल्क्य मुनि असाध्य रोग से ग्रस्त पति की पत्नी को दूसरे विवाह की अनुमति देते हैं, किंतु अज्ञात हिंदू महिला इसे घोर अनैतिक एवं स्वार्थी कृत्य मानती हैं - ''जब तक औरत-मर्द तंदरुस्त रहें, साथ रहें, और जब किसी तरह की आफत आवे या एक को बीमारी हो तब एक दूसरे को छोड़ दें. नहीं, हरगिज ऐसा न करना चाहिए. जब तक हर दो में हर एक का दम बाकी है, साथ रहें, जब परमेश्वर जुदा करे, अखत्यार है दोनों को चाहे शादी करें चाहे न करें.'' (पृ0 78) 

व्यक्तिगत तौर पर अज्ञात हिंदू महिला विधवा पुनर्विववाह से सहमत नहीं. 'पुरुष की हर रोज की मार खाने से रांड रहना अच्छा है' शीर्षक निबंध में वे संतानवती विधवाओं को तो पुनर्विववाह के लिए हतोत्साह करती ही हैं, पति की हिंसा से बचने के लिए भी अकेले रहने को बेहतर विकल्प मानती हैं. सैद्धांतिक तौर पर वे विधवाओं पर ढाए जाने वाले अत्याचारों के खिलाफ खड़ी हैं. वे जन सामान्य/ब्रिटिश सरकार को बता देना चाहती हैं कि भले ही सती प्रथा देश में समाप्त हो गई है, लेकिन हिंदू घरों में विधवाओं को तिल-तिल जला कर सती करते रहने की प्रक्रिया बदस्तूर जारी है. (पृ0 97) 

रांडों पर सितम' शीर्षक निबंध में वे बताती हैं कि पंजाब में विधवा को इतनी अमानुषिक यातनाएं दी जाती हैं कि वह स्वयं ही तड़प-तड़प कर मर जाए. (पृ0 89-97) पति की मृत्यु होते ही नाखून द्वारा नाक, कान, गले, पांव और बांह के सारे जेवर उतारे जाते हैं; कांच की चूड़ियों को पत्थर से फोड़ा जाता है चाहे इस प्रयास में कलाई लहूलुहान ही क्यों न हो जाए; अर्थी उठने पर दो नाइनों के साथ उसे मुंह-सिर लपेट कर दरिया नहलाने ले जाया जाता है. एक नाइन आगे रास्ता प्रशस्त करती चलती है ताकि सधवा इसका मुंह न देख सके. दरिया या तालाब में उसे कपड़ों समेत धक्का दे दिया जाता है और जब तक सब स्त्रिायां नहाने-मुंह हाथ धोने का दस्तूर पूरा कर वहां से रवाना नहीं हो जातीं, उसे उसी तरह पानी में पड़े रहने को मजबूर किया जाता है. नहाने के बाद उन्हीं गीले कपड़ों में घर की ओर रवानगी होती है - माघ का महीना हो तो भी ठंड से बचाने की कोई जुगत नहीं. घर पहुंच कर उन्हीं गीले कपड़ों में अलग एक कोने में बैठा दी जाती है. खाना और पानी जैसी जरूरतों की ओर ध्यान देने का तो सवाल ही नहीं. दुनिया भर की बदरहमियों में सिकुड़ी यह विधवा सात बरस की हो या सत्तर की, अगर मरती नहीं तो जिंदों में भी नहीं रहती. 


लेखिका कुछ अंतर्विरोधों की ओर इशारा भी करती हैं कि मां अपनी विधवा लड़की को जेवर जरूर पहनाती है क्योंकि नंगी-बुच्ची बेटी को देख कर उसका कलेजा फटता है; लेकिन मन में अंगड़ाई लेती कामनाओं को पहचान कर उसके पुनर्विवाह का उद्योग नहीं करती क्योंकि वह धर्मपरायणा है. अज्ञात हिंदू महिला इस पाखंड पर जल कर आग-भभूका हो जाती हैं - ''वाह री समझ! कोई पूछे इनसे, जब आप पलंग पर गर्म होती हैं, उस वक्त लड़की के मन का क्या बंदोबस्त करती हो? सच है, जेवर बिना नहीं देखी जाती, खाविंद बगैर देखी जाती है. खाविंद बिना उम्र कट जाएगी, जेवर बिना कटनी बड़ी मुश्किल है.'' (पृ0 95)

लेखिका प्राणपण से जतन करती हैं कि विधवाओं से तमाम लौकिक खुशियां छीन लेने वाली रिवायतों के खिलाफ जन-चेतना पैदा की जाए. वे उन्हें धिक्कारती भी हैं और पुचकारती भी हैं कि ऐ हिंद की विधवाओं को मारने वालियो, क्यों अपने वास्ते कांटों को फूल समझती हो - एक ऐसी वहमी रिवाज के पीछे जिसका न किसी मजहब से ताल्लुक है, न . . . हिंदुओं की किताब में इसका जिक्र है. महाभारत, जिसमें बेशुमार रांड हुईं, कहीं इस रस्म का नामोनिशान नहीं पाया जाता. फिर न मालूम आप कौन से धर्मशास्त्रा की रीत पर किस पंडित के कहने से इन जान लेने वाली बदरस्मों को नहीं छोड़तीं.'' (पृ0 97) वे इस बात पर बार-बार बल देती हैं कि विधवा पुनर्विववाह वैध है. यदि इन्द्रिय संयम रखना कठिन हो तो पथभ्रष्ट होने की अपेक्षा विवाह कर लेने में कोई हानि नहीं.

विधवाओं की स्थिति पर विचार करने के अतिरिक्त अज्ञात हिंदू महिला के स्त्री-प्रश्न पर दो सरोकार खास ध्यान खींचते हैं. एक, विवाह संस्था का पुनरीक्षण, और दूसरे, पति-पत्नी के रूप में स्त्री-पुरुष समानता की अवधारणा पर बल. इसके लिए वे हिंदू शास्त्रों से भी टकराती हैं और मूर्ख स्त्रियों को फटकारने में भी कोताही नहीं करतीं. विचित्र लग सकता है कि अज्ञात हिंदू महिला जिस कड़क आवाज में आंदोलनधर्मी जनून के साथ विधवा पुनर्विववाह की पैरवी करती हैं, उसी उत्साह के साथ विधवाओं को विवाह-मंडप तक ले जाने की अगुवाई करती प्रतीत नहीं होतीं. यह उनकी कथनी-करनी का अंतर नहीं, वरन् हिंदू समाज में विवाह संस्था के अमानुषिक स्वरूप की पड़ताल के बाद उभरा निष्कर्ष है. लेखिका इक्कीसवीं सदी की स्त्रीवादी चिंतक की भांति विवाह संस्था के मौजूदा दमनकारी स्वरूप से क्षुब्ध भर ही नहीं, वरन् उसके खिलाफ अपनी पुरजोर आपत्ति भी दर्ज कराती हैं. ''शादी करने से अपने अखत्यारात दूसरे के अखत्यार में देने पड़ते हैं. जब आपने जिस्मी अखत्यार दूसरे को दिए तब दुनिया में अपनी क्या चीज बाकी रही? अगर इस दुनिया में कुछ खुशी है तो उन्हीं को है जो अपने तईं आजाद रखते हैं. हिंदुस्तानी औरतों को तो आजादी किसी हालत में नहीं हो सकती. बाप, भाई, बेटा, रिश्तेदार - सभी हुकूमत करते हैं. मगर जिस कद्र खाविंद जुल्म करता है, उतना कोई नहीं करता. लौंडी तो यह सारी उम्र सब ही की रहती है, पर शादी करने से बिल्कुल जरखरीद हो जाती है.'' (पृ0 84-85)

उन्हें लगता है कि रंडापा ओढ़ कर दूनी उम्र जीने वाली विधवाओं की निर्लज्जता को लेकर समाज में जो मिथक फैला है, वह सही है. फर्क यह है कि समाज इसे तिरस्करणीय दृष्टि से देखता है और लेखिका एक ठोस और श्लाघनीय सच्चाई के रूप में. वे मानती हैं कि ताकतों का जाया न होना और आजादी के सुख को भोगना - इसी का नाम रंडापा है. इस प्रकार मीराबाई के बाद वे हिंदी की दूसरी स्त्रीविमर्शकार हैं जो पातिव्रत्य धर्म की चुंधियाती रोशनी के पीछे छिपे जानलेवा अंधेरों को साफ-साफ देख सकी हैं. वे मानती हैं कि हजार में दस दम्पत्ति ही सही मायने में सुखी दाम्पत्य जीवन भोगते होंगे. शेष सब ''जूतीबाजी का तमाशा पड़ोसियों को दिखाया करते हैं.'' उनकी दृष्टि में विघटित सम्बन्ध का कारण है पुरुष का व्यभिचारी स्वभाव. 'रंडीबाज, लौंडीबाज, जुआबाज' पुरुष तक नेक चलन पतिव्रता स्त्री की धर्म की पुकारें नहीं पहुंचतीं. 

विवाह का अर्थ यदि पति की लातें खाकर उन चरणों को पूजना है तो अज्ञात हिंदू महिला डट कर इस विवाह संस्था का विरोध करती हैं. वे खुल कर कहती हैं - ''शादी से बड़ी-बड़ी तकलीफें उठानी पड़ती हैं.'' (पृ0 84) फलतः विधवाओं को चेता देना चाहती हैं कि पहले दूसरों के मजबूर करने पर जिस काम में दुख उठाया, अब उसी बला को जानबूझ कर अपने ऊपर लेने में क्या बुद्धिमानी है - '' पुनर्विववाह करने की इच्छा करने वालियों को याद रखना चाहिए कि हमें भी शादी करने के पीछे इन्हीं के मानिंद रोना पड़ेगा. जहां हजार लाख करोड़ को ठोकर खाते देखा, हमको चाहिए कि हम भी अंधों की माफिक अपने तईं गिरावें नहीं बल्कि देख के कदम रख उसको जीत लेवें.. . . हे प्यारी बहनो, वही काम करो जिससे तुम्हें इस दुनिया में सुख मिले. बड़े भारी दुखों की जड़ काम है. पहले काम को रोको. इसको रोकने की यह अच्छी तजवीज है कि जब इसका ख्याल पैदा हो तक इसके दुखों का ख्याल करो.'' (पृ0 88)

चूंकि अज्ञात हिंदू महिला स्त्री को विवाह संस्था की जकड़न से मुक्त एक स्वतंत्रा मनुष्य के रूप में देखने का विवेक अर्जित कर पाई हैं, इसलिए वे सधवाओं की रोजमर्रा की गतिशीलता को बाधित करते भारी-भरकम जेवरों और सुहाग-चिन्हों के विरुद्ध बोलने का साहस बटोर पाई हैं. सिर से पैर तक आभूषणों से लदी स्त्री उनके लिए न सौन्दर्य के मानक गढ़ती है, न पति की सम्पन्नता की मिसाल पेश करती है वरन् वह उन्हें कैदी या ढोर-डंगर की याद दिलाती है जिसे मालिक द्वारा बोझ से लाद दिए जाने पर भी काम करते रहना पड़ता है. तिरस्कारपूर्ण उपहास के साथ वे एक-एक जेवर का परिचय देती चलती हैं. मसलन हाथी के पांव की सांकल सरीखी पांवों की सांकल; कैदी की हथकड़ी जैसे हाथों के कड़े; नकेल सरीखी नाक की जंजीर. सिर में खूंटे के मानिंद गाड़े जाने वाला जेवर 'चौक' और उसके साथ एड़ी तक लटकता परांदा - सोने में कितनी ही तकलीफ क्यों न हो, पति के जीते जी इस सुहाग-चिन्ह को बदन से अलग करना संभव नहीं. पांव की उंगली के मांस को गला डालने वाला 'बिछुवा'. माथे पर बंदी, बैना, तावीज, झूमर, मोरनी, चांद, शीशफूल जिनकी 'कशिश से खून नसों में आने-जाने से रुक जाता है. कानों में चलनी की मानिंद छेद कर पिरोए गए पत्ते, बाली, बूंदे, चांद, मछ, झुमके, कर्णफूल, ठेंठी, ढेडू, डंडी, तदोड़े - कान कट कर पीप-मवाद की नदियां न बहाएं तो क्या करें. गले में गुलूबंद, कंठा, जुगनी, चंपाकली, मालाहार, तिलड़ी, दोलड़ी, पचलड़ी, सतलड़ी, पानहार, हमायल, गुलूबंद, बद्धी  ; पांवों में कड़े, पाजेब, छड़े, बांक, गुजरी, अनोखे, रमझोल, नूपुर - कम से कम पांच-पांच सेर का बोझ एक-एक पांव में. फिर पगापन - एक जेवर जो पांवों के ऊपर जंजीरों से बांध दिया जाता है. पांव उठाना तो दरकिनार, एक बालिश्त भर कदम रखना भी संभव नहीं.

आभूषण-चर्चा के बाद वे स्त्री समाज को सवालों से रू-ब-रू कराना चाहती हैं. एक, जेवरों को सुहाग के साथ जोड़ने की कुरीतियों की निरर्थकता; और दूसरे, अपनी मुक्ति के लिए अकेले लड़ाई लड़ने की नैतिक क्षमता. ताराबाई शिंदे की तरह बेहद कड़वाहट और आक्रामकता के साथ वे धर्मशास्त्रों और पुरुष वर्चस्व के खिलाफ आग उगलती हैं कि सुहागिन स्त्रिायों को यदि ये सब जेवर धारण करने की बाध्यता हे तो 'सुहागे मर्दों' को क्यों नहीं; कि क्या हिंदुस्तानी मर्दों के प्राण स्त्रिायों द्वारा धारण किए गए जेवरों में ही निहित हैं? यदि हां, तो ब्याह होने से पहले तक वह किसके सगुन करने से जीता रहता है और स्त्री की मृत्यु के साथ क्यों नही मर जाता? वे तर्क देती हैं कि सुहाग-चिन्ह धर्मशास्त्रों ने नहीं बनाए हैं - ''फिर मैं पूछती हूं- कौन से धर्मशास्त्रा में इसका पहनना सुहाग में दाखिल है? मनुस्मृति . . . के कौन से अध्याय में इस नाक काटने वाली (नथ) का जिक्र है? और विवाह पद्धति के कौन से श्लोक में लिखा है? . . .  बस, साफ जाहिर हो जाएगा कि यह रस्म पुरखों की बनाई नहीं, यह आप ही की ईजाद है.'' (पृ0 51) 

लेकिन यदि बनाई भी हो तो जड़-जर्जर कुरीतियों को दूर करने में देरी ही क्यों? ''जैसे उन्होंने (हमारे पूर्वजों) अपने बड़ों की अच्छी रस्म तोड़ बुरी रस्में निकालीं क्योंकि यह रस्म पुरानी किसी किताब में नहीं . . . तुमको भी चाहिए जो खराब दुख देने वाली रस्म हैं, उनको तोड़ अच्छी रस्म निकालो . . .तुम उनकी पैरवी न करो. जैसी उसकी अकल थी, वैसी उन्होंने रस्म निकाली. परमेश्वर की कृपा से तुम भी अकल रखती हो . . . खूब याद रखो, जब तक खुद इन बेड़ियों को न उतारोगी . . . जब तक खुद अपने ऊपर रहम न करोगी, मुमकिन नहीं कि हिंदुस्तानी तुम पर रहम करें.'' (पृ0 51-56)

यहां अनायास भारी-भरकम जडाऊ गहनों से लकदक लिबरेटेड वुमैन का मिथ रचती टी .वी . सीरियलों में दिखाई लाने वाली स्त्री याद आ जाती है. सवाल यह नहीं है कि तिकड़म और व्यूह रचती यह स्त्री जिस आत्मनिर्भर मुक्त स्त्री की नई छवि को बनाती है, वह कितनी नकारात्मक-सकारात्मक, तिरस्करणीय-वरेण्य है; वरन् चिंता का विषय यह है कि क्या यह स्त्री वाकई मुक्त, आत्मनिर्भर, 'शिक्षित' और नैतिक रूप से दृढ़ विवेकशील प्राणी है

भारतीय नवजागरण की क्रांतिकारी समाजसुधारक महिलाओं ने जिन रूढ़ियों-संकीर्णताओं, प्रलोभनों और लिप्साओं से उसे मुक्त करने का प्रयास किया था, क्या वे दूने वेग से लौटा कर आज आधुनिकता के अंधड़ में उसकी हस्ती को नेस्तनाबूद कर उड़ाए नहीं जा रही हैं

बीसवीं सदी के साठ-सत्तर और कुछ हद तक अस्सी तक के दशक के भारतीय परिदृश्य में मूल्यों की इतनी आपाधापी और रपटने की होड़ नहीं थी. सादगी और त्याग, आदर्श और वैचारिक क्षमताओं को उन्नततर करने का आग्रह, जियो और जीने दो जैसे आप्तवचनों को रोजमर्रा की जीवन-शैली में उतार कर समाज के पुनरुद्धार करने का संकल्प हाशिए पर पड़ी अस्मिताओं के लिए एक सम्मानजनक स्पेस का विश्वास देता था. आज भले ही केन्द्र और हाशिया गड्डमड्ड हो गया है और अस्मिता विमर्श का स्वर तीव्रतर, लेकिन बदहवासी और लूटखसोट व्यक्ति को 'मनुष्य' रहने ही नहीं देती. ऐसे में परिवर्तन को प्रगति या पतन के पैमाने पर नापने का धीरज और अवकाश किसे है?

'सीमंतनी उपदेश' की रचयिता जड़ताओं से आबद्ध प्रतिगामी माहौल में अपने क्रंदन को ललकार बनाने का हौसला रखती हैं. वे पश्चिमी स्त्रीवादी विचारकों की तरह अपनी आवेगपूर्ण आत्माभिव्यक्ति को सिद्धांत-कथन का रूप नहीं दे पातीं, लेकिन जे .एस .मिल की तरह स्त्री को पराधीन बनाने वाली विवाह संस्था  तथा मेरी वोल्स्टनक्राफ्रट की तरह पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा स्त्रियों के सौन्दर्य एवं आभूषणों के प्रति गर्हित अभिरुचि को  प्रश्रय देने की साजिशों को समझ जाती हैं. 

लोक-व्यवहार से जुड़ कर वे गहनों यानी 'स्त्री धन' के महत्व और अनिवार्यता को स्वीकारना नहीं भूलतीं, लेकिन उस 'धन' को अमूल्य किंतु हल्के-फुल्के गहनों में तब्दील करने के हुनर को अंगीकार करने की पैरवी करती हैं.  दूसरे, वे परम्परागत विधि-निषेधों से ऊपर उठ कर स्त्रियों को पांव में जूती पहनने की सलाह देती हैं. स्वयं स्त्री होने के कारण स्त्री-जीवन के लगभग अलक्षित जिन पहलुओं को वे बारीकी से देख सकी हैं, वे भारतीय नवजागरण के व्यापक एजेंडे में कहीं स्थान नहीं पाते. 'सीमंतनी उपदेश' को छोड़ कर शायद ही किसी रचना में इस तथ्य की ओर उल्लेख किया गया हो कि स्त्रिायों को पांव में जूते आदि पहनने की स्वतंत्राता नहीं थी. दरअसल 'गाय-बैलों के खुर से भी ज्यादा सख्त' पांवों की पीड़ा झेलने वाली स्त्री ही बिवाइयों के दर्द और मरहम की जरूरत सकती है. अलबत्ता एक बात अवश्य खटकती है कि लेखिका ने पूरी पुस्तक में स्त्री शिक्षा और स्त्रियों के आर्थिक स्वावलम्बन की आवश्यकता जैसे आधारभूत मुद्दों को एक बार भी नहीं उठाया.

'सीमंतनी उपदेश' के लेखों से ज्ञात होता है कि अज्ञात हिंदू महिला न केवल सुशिक्षित थीं, अपितु स्त्री मुद्दों के साथ संजीदगी से जुड़े समाजसुधारकों के निरंतर साहचर्य में भी थीं. वैचारिक दृष्टि से वे आर्यसमाजी हैं और जहां भी अवसर मिला है, उन्होंने पुस्तक में ब्राह्मणों को 'श्री शृगाल वृत्ति शर्मा', 'श्री वराहवृत्ति शर्मा', 'श्री काक वृत्ति शर्मा', श्री कूर्म वृत्ति शर्मा' सरीखे तिरस्करणीय सम्बोधनों से सम्बोधित किया है. वे स्वामी दयानंद सरस्वती से बेहद प्रभावित हैं और आश्वस्त हैं कि आर्यसमाज की स्थापना से हिंदुस्तान से जहालत का पर्दा उठाने और स्त्रिायों को 'अविद्या के घोर सागर से निकालने' का मिशन वे अवश्य पूरा कर लेंगे. स्वामी दयानंद सरस्वती के अतिरिक्त वे तीन अन्य समाजसुधारकों  - मुंशी कन्हैयालाल अलखधारी, पं. शिवनारायण अग्निहोत्री, एडिटर 'बरादर हिंद' और राय नोवीन चंद - की सक्रियता का प्रशंसापूर्वक उल्लेख करती हैं. लेकिन साथ ही वे दो तथ्यों की ओर भी संकेत करती हैं. एक, ''तमाम हिंदुस्तान से तलाश करने से शायद सौ-पचास ही निकलेंगे जो स्त्रियों को भी इंसान जानते हैं.'' (पृ0 43) दूसरे, स्त्री-मुक्ति के लिए स्वयं स्त्रिायों को आगे आने का आह्वान करती हैं - ''अब हमको खुद इस जेलखाने से निकलने की तदबीर करनी चाहिए . . . बेशक, पहले हमारी हिंदी बहनों को बुरा मालूम होगा, मगर जरा गौर को दिल में जगह देंगी तब खुद मालूम कर लेंगी कि हम पर किस कद्र मुसीबत है.'' (पृ0 45)

आश्चर्य होता है कि स्त्री की पीड़ा और आरोपित नियति के कारणों को तफसील से जानते हुए भी लेखिका ने स्वयं सावित्रीबाई फुले या रमाबाई की तरह घूम-घूम कर स्त्रिायों को जाग्रत करने का प्रयास क्यों नहीं किया? पंजाब में उस समय आर्यसमाज से दीक्षित उपदेशिकाएं स्त्री-जागृति प्रसार में योगदान दे रही थीं. भगवती माई का नाम इस दिशा में विशेष रूप से लिया जाता है.  या हो सकता हे पुस्तक की तरह उनके सक्रिय योगदान को भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था की दीर्घायु और कुलवधुओं के स्वास्थ्य के लिए नजरअंदाज कर दिया गया हो क्योंकि पुस्तक में संग्रहीत निबंधों की शैली मेे भावना, आक्रोश, उद्बोधन का जो अतिरेक है, वह एकांत में बैठ कर लिखे गए निबंधों की शैली से मेल नहीं खाता. 


ये निबंध भाषण और प्रचार की शैली मे रचे गए हैं जहां भावनाओं को उभार कर अपने संदेश को आरोपित करना प्रमुख लक्ष्य रहता है, स्थिति का समग्र एवं गहन विश्लेषण कर पूरी समाजशास्त्रीय व्यवस्था की पड़ताल करना नहीं. बहरहाल, भडकाऊ अंदाज में कड़वा सच बोल-लिख कर स्त्रिायों को उकसाने (चेतन करने) के अपराध में अज्ञात हिंदू महिला ने एक लम्बे अरसे तक हिंदी साहित्य से निर्वासन का दंड तो भोगा ही.
___________________
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
हिंदी विभागमहर्षि दयानंद विश्व विद्यालयरोहतकहरियाणा

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  1. जरूरी आलेख। रोहिणी जी का शुक्रिया।
    अपर्णा

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  2. बेहद जरूरी पुस्तक।बढिया विश्लेषण।

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  3. समाज के कई विरोधावासों पर नपी-तुली सोच है। यूँ कहें कि क्रांतिकारी सोच है तो बेहतर। बहुत सारे पुतले बहुत पहले गिर गए होते। शायद यही कारण रहा हो कि ऐसा लेखन दबा दिया गया।

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  4. उत्तम आलेख।आदरणीया रोहिणी जी का शुक्रिया

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  5. 'हिंदी साहित्य का आधा इतिहास' लिखकर सुमन राजे ने महिला लेखन को महत्त्व देने की जो परंपरा शुरू की रोहिणी जी उसे आगे बढा रही हैं| उनका हर आलेख, हिंदी आलोचना के संसार को समृद्ध कर रहा है| इस खोजपरक और जरूरी आलेख के लिए शुक्रिया|

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