कवि
दो अलग भाषाओँ में कविताएँ लिख रहा हो तो दोनों तरह की कविताओं में संवेदनात्मक,
वैचारिक और शिल्पगत अंतर होंगे. क्या ये अंतर भाषा के हैं, भाषा के पाठकों को
ध्यान में रखने से क्या कविता का चेहरा बदल जाता है ? क्या शब्द ही अर्थ गढ़ते हैं
?
मोनिका
कुमार समकालीन ‘हिंदी’ कविता की एक पहचानी जाने वाली कवयित्री हैं. हिंदी के अलावा
पंजाबी में भी कविताएँ लिखती हैं. समालोचन पर आपने उनकी हिंदी कविताएँ पढ़ी हैं, आज
उनकी कुछ पंजाबी कविताओं का उन्हीं के द्वारा किया गया अनुवाद प्रस्तुत है.
मोनिका कुमार की कविताएँ
काला कैन्टीन वाला
लंबे लंबे क़दम
रखता
किसी आदमी से बात
कर रहा
काले को उस दिन
मैनें बस अड्डे से निकलते हुए देखा
काला बस अड्डे
पर !
काले को वहां
देखकर मैं हैरान रह गई
काले को मैनें
हमेशा कैन्टीन में देखा है
समोसे, ब्रैड पकौड़े,
चाय और राजमांह चावल परोसते हुए
काला राशन के
बढ़ते हुए दाम की चिंता और शिकायत करता रहता है
लेकिन किसी
कार्यक्रम में खाने वालों की गिनती बढ़ जाए
तो खींच तान कर मौक़ा
संभाल लेता है
प्रोफ़ेसरों की
तीस पच्चीस साल की नौकरी की विदाई पार्टी की क़ीमत
काला दस मिनट
में निकाल देता है
चौकन्ना और
चिंतित
ठेकेदारी के
झमेले में विवश
कैन्टीन में काम
करने वाले प्रवासी लड़कों से काला हिंदी में बात करता है
काला हास्यस्पद
पर सुघड़ व्यापारी है
उसे पता है कौन
चाय में कितनी शक्कर डालता है
वह मतलब और
बेमतलब की चाय का मतलब अच्छी तरह समझता है
पर इन सब तथ्यों
का हिसाब मन में रखकर वह अपना समय नहीं ख़राब करता
काले के पास
इतनी सूचनाएं हैं
कि वह लेखक बनने
के बारे में सोच सकता है
पर काला सुघड़
सयाना है
वह सिर नीचे
करके चुपचाप तेल की महक वाली अपनी गुच्छा मुछा कॉपी में
रोज़ की देनदारी
और उधारी लिखता है
यह सब तो ठीक है
पर काला बस अड्डे
पर !
काला उस आदमी से
क्या बात कर रहा था ?
बेशक काला बस अड्डे
जा सकता है
बल्कि शहर में
कहीं भी आ जा सकता है
कोई भ्रम टूट
गया है
और काला मेरे
लिए एक अजनबी बन गया है.
ईंटों की चिनाई
छत पर पड़े सामान
का कोई वली ना वारिस है
ये गिरता लुढ़कता
कई सालों तक यहीं पड़ा रहेगा
चमड़े का टूटा
हुआ अटैची, कांच के कप प्लेट
लोहे की कुर्सी,
प्लास्टिक की बाल्टी
और छोटा मोटा
बहुत कुछ
कबाड़ी के पास इसे
बेचने की बात बनते बनते ढह जाती है
छत पर रखे गमलों
में कोई पानी नहीं डालता
फिर भी इस में उग
आई घास हरी रहती है
इस छत को कोई
नहीं बुहारता
पर यह साफ़ रहती
है
हालाँकि सुंदर
नहीं दिखती
यहाँ पड़ा सामान पड़ा
पड़ा और भुरभुराता रहता है
बाल्टी का गुलाबी
रंग उड़ गया है
पर बाल्टी के
कोने में कटोरे जितनी जगह है
जिस में बारिश
का पानी जमा हो जाता है
लोहे की कुर्सी
की बाँह टूटी पड़ी है
पर एक दुबला
बच्चा इस पर बैठ सकता है
अटैची का एक बटन
अभी भी लग रहा है
जैसे रीझ से रीत
गए शरीर में
बहुत धीरे पर
दिल धड़कता रहता है
घर के अंदर इन
चीज़ों की अब ज़रूरत नहीं है
फिर भी ये चीज़ें
तुरंत नहीं मर जातीं
दम दम ख़त्म होकर
अपना जीवन पूरा करती हैं
छत की ईंटों की
चिनाई में राग बजता रहता है
इंतज़ार का मद्धम
राग
इसके पास जा कर
सुनो
तो लगता है
शरारती बच्चे छत
पर ज़ोर ज़ोर से कूद रहे हैं.
दोपहर होने तक
दोपहर होने तक
चेत की हवा के
टोने से
मुझे झपकी आने
लगी थी
झूलते हुए सिर
को हाथ से टेक जो दी
तो अचानक मेरे
हाथों से लहसुन की गंध आई
हाथ की गर्मी से
यह गंध और गहरी हो गई
लेकिन लहसुन की
गंध ने मुझे होश लौटा दी
मुझे धीरे धीरे
सब याद आ गया
छतों की दीवारें
छोटी थीं
मेरे जैसे क़द का
मनुष्य भी आसानी से दीवारें टाप सकता था
हमारे पड़ोसी दिन
के समय मिलनसार थे
लेकिन संध्या का
टोना सभी को बदल देता था
माएँ बच्चों को
गलियों से घसीट कर घरों के अंदर ले जाती थीं
मुझे याद गया
ड्योढ़ी में शाम
को साईकल निष्प्राण होकर गिर जाते थे
और पिता
पिता लौट कर घर
को मेहमान की तरह देखते थे
बच्चे सुबह से
कुछ बड़े हो गए थे
लहसुन की बघार
से सीझ रही दाल की महक छत तक पहुँच जाती थी
और हम बरामदे
में बैठ कर रोटी खाने लगते.
जुगनू
गर्मी की एक रात
उड़ते उड़ते एक
जुगनू मेरे कमरे में घुस आया
अँधेरे में जलता
बुझता जुगनू
घुसते ही कमरा
नापने लगा था
हवा के बिना
यह रात काली खोह
थी
पसीने में भीगी
मैं
कमरे में पसरे
सेंक को सूंघ रही थी
इस रात का हासिल
सिर्फ ताप था
क्यूंकि गर्मी
ने कमरे की हर चीज़ कील रखी थी
सेंक के तलिस्म
में
मैं चमत्कार का
इंतज़ार कर रही थी
इतने में कमरे
में जुगनू घुस आया
उसे किताब के
नीचे दबा कर मैनें बत्ती जलाई
जलता बुझता
जुगनू कितना आम कीड़ा था!
मैं हैरान हुई
यह अद्भुत लौ इस
निरीह देह में जल रही थी
डरता, काँपता और
अपने पंख फड़फड़ाता
जुगनू मेरे जैसा
ही स्तब्ध प्राणी था
सेंक के पहरे
में
जुगनू की हाज़िरी
में
रात का चमत्कार
होने लगा था
मैंने जुगनू के
ऊपर से किताब हटा दी
दीप्त कमरे को
छोड़ कर जुगनू बाहर उड़ गया.
शहर का मोह
जिस
दिन शहर छोड़ कर कुछ दिन बाहर जाना होता है
उसी
दिन शहर का मोह जाग जाता है
अचानक
याद आता है
यहाँ
का गुड़ियों का संग्रहालय तो मैनें अभी देखा नहीं
बड़ा डाक
घर नहीं, यहाँ का दशहरा नहीं
इसी
उम्मीद में
कि
आगे चल कर मन ख़ाली और समय खुला होगा
और
शायद शहर भी दूध का भरा हुआ गिलास है
जिसे
घूँट घूँट पीना ठीक रहेगा
घूँट
घूँट पीते हुए भी कई साल बीत गए
डर
भी लगता है
कि
सारा दूध पी लिया
तो
यहाँ से भी अन्न जल उठ जाएगा
कोई
शहर जब अपना बन जाता है
तो
लगता है यहाँ से दूर चले जाने का वक़्त आ गया है
मेरी
रिक्शा स्कूल के बच्चों की बस की बगल से निकली
तो
बस की खिड़की से एक बच्चा दिखा
उसके
हाथ पर पट्टी बंधी हुई थी
खेल
कर चूर हुआ बच्चा मूर्ति बना सीट पर बैठा था
मूर्ति
जो दिखने में भारी और सुंदर लगती है
और जब
हाथों में पकड़ो
तो पता
चलता है यह कितनी हल्की और कीमती है
उसे
देखकर
मेरे
मोह को ममता की राह मिल गई
स्कूल
की बस जल्दी से आगे निकल गई
मेरी
रिक्शा भी बस अड्डे पहुँच गई
यह
सोचते हुए मैं भी अपनी सीट पर बैठ गई
उस बच्चे
को तो ठीक से अभी देखा भी नहीं.
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“ये कविताएँ मैंने पंजाबी में लिखीं थी, इन में से कुछ कविताएँ पंजाब
और पश्चिमी पंजाब के समकालीन लेखन को एक जगह लाने की नियत से शुरू की गई पंजाबी
पत्रिका 'वाहगा' में 2017 में छपी थीं.
कवितायों का हिंदी में अनुवाद मैनें समालोचन के लिए किया है.”
मोनिका कुमार
मोनिका कुमार की कुछ कविताएँ यहाँ भी पढ़ें १ / २. / ३
मोनिका कुमार
अंग्रेज़ी विभाग
रीजनल इंस्टीच्यूट ऑफ इंग्लिश
चंडीगढ़.
09417532822 /turtle.walks@gmail.com
________मोनिका कुमार की कुछ कविताएँ यहाँ भी पढ़ें १ / २. / ३
क्या खूब लिखा है मोनिका जी ने। इन कविताओं में जीवन के वे राग हैं जो अक्सर हमारे मन का हिस्सा होते हुए भी कहीं छत पर उपेक्षित पडे रहते हैं।
जवाब देंहटाएंसदा की तरह बहुत अच्छी कविताएँ
जवाब देंहटाएंBahut acchi kavitayen ...shubhkamnaye
जवाब देंहटाएंमोनिका जी की कविताओं में ताजगी की एक लहर सी है। ये कविताएं हिंदी कविता जैसी ही लग रही हैं। वही बताएंगी कि उन्होंने अनुवाद किया है या पुनर्रचना की है। मैंने पंजाबी कविता ज्यादा नहीं पढ़ी है, फिर भी 'जुगनू' में पंजाबी कविता की मद्धम सी टेर सुनाई पड़ रही है। कोई यह बात सिद्ध करने को कहेगा तो मैं न कर पाऊंगा।
जवाब देंहटाएं'पिता लौट कर घर को मेहमान की तरह देखते थे' पंक्ति पढ़कर मैं सहम सा गया। कठिन पंक्ति है।
दूसरी तरफ 'काले के पास इतनी सूचनाएं हैं
कि वह लेखक बनने के बारे में सोच सकता है' पंक्ति समझ में नहीं आई। शायद इसमें तंज़ हो। मैं यह सोचने लगा, सूचनाओं से कोई लेखक कैसे बनता है!
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