कथा- गाथा : खिरनी : मनीष वैद्य

(कृति : Miguel Guía)


साहित्य कुलमिलाकर आनंदजाल है, प्रसाद के शब्दों में कहूँ तो ‘इंद्रजाल’. इसका दिलचस्प होना पहली शर्त है. आप तमाम ज्ञान-विज्ञान-तथ्य-तर्क ठूंसकर साहित्य नहीं रच सकते. यह आनंद/यातना के अतिरेक से ही अंकुरित होता है. आपका विवेक/तथ्य आपको संभाले रहते हैं कि यह आवेग किसी कृति में बदल जाए.

कथा के मास्टर गैबरिएल गार्सिया मार्केज कहानी के पहले वाक्य को बहुत महत्व देते हैं. उनका मानना है कि इस पहले वाक्य से ही इसका स्वरूप निर्धारित हो जाता है.

समकालीन हिंदी कथाकार मनीष वैद्य की इस नई कहानी ‘खिरनी’ का पहला वाक्य ही आपका जकड़ लेता है. बिना पूरा पढ़े आप उठ नहीं सकते. इसे मैं किसी भी अच्छी कहानी का पहला आवश्यक गुण मानता हूँ. यह कहानी ३० साल बाद मिले एक लडके और लडकी की है जिनके बीच अधूरे प्रेम की हूक और समय की विद्रूपताए फैली हुई हैं. और एक अंदर से छीलती चुप्पी है.




कहानी

खिरनी                                                    

मनीष वैद्य



ड़का गली में खुलते किवाड़ से सटकर खड़ा था और लड़की आँगन में दीवाल के पास मिट्टी की छोटी-सी ओटली पर बैठी थी. आँगन उन दोनों के बीच था. लड़के ने गौर किया कि इतना वक्त गुजर जाने के बावजूद यह आँगन वैसा ही था. आँगन ही नहीं, कच्ची मिट्टी से बने इस घर के भूगोल में भी कोई ख़ास बदलाव नहीं हुआ था. हाँ, इधर के दिनों में कुछ नई और चमकीली वस्तुएँ ज़रूर इसी पुराने और बेढब घर में बेतरतीबी से ठूंस दी गई है. लगता था कि इस घर ने अभी उन्हें अपने में मर्ज नहीं किया है या अपनेपन से स्वीकार नहीं किया है. फिर भी नए चलन की वे वस्तुएँ अपनी पूरी ढिठाई और बेहयाई से वहाँ मौजूद थी.

जबकि थोड़ी देर पहले ही उसने महसूस किया था कि इधर का गाँव काफी हद तक बदल गया था, अब वहाँ पहले जैसा बहुत कम ही बचा था. ज्यादातर नया-नवेला और सुविधा संपन्न. कच्ची मिट्टी के घर, लिपे-पुते फर्श, दीवारों के मांडने, खपरैलों और फूस की छतें, घंटियाँ टुनटुनाते मवेशियों के झुंड, काँच की अंटिया, लट्टू और गिल्ली-डंडा खेलती टुल्लरें, पनघट, चौपाल और वैसी जीवंत गलियाँ अब वहाँ नहीं थीं. न गाँव पानीदार था और न लोग ही पानीदार बचे थे. उनके चेहरों का नूर खो गया था, उमंग और हंसी-ठठ्ठा भाप बनकर कहीं उड़ गए थे.



लड़के और लड़की के बीच जो आँगन फैला था, उसमें तीस बरस का वक्फा तैर रहा था. आँगन बहुत छोटा था और तीस बरस का वक्फा बहुत बड़ा था, लिहाजा वह उफन-उफन जाता था. लडकी की उजाड़ और सूनी आँखों में कहीं कोई हरापन नहीं था. हरापन तो दूर उनमें गीलापन भी नहीं था. उन थकी-थकी आँखों में पानी का कोई कतरा तक नहीं था. जैसे वह किसी अकाल के इलाके या रेगिस्तान से चली आई हो.

एक पल को उसकी आँखें लड़के को देखकर विस्मय से फैल गई, क्षणभर को मानो कोई बिजली-सी कौंधी और दूसरे ही पल फिर स्थायी बैराग फिर उन आँखों में समा गया. इस एक पल को लड़के ने अपनी आँखों में पकड़ लिया. लड़की ने लड़के की आँखों में झाँका. इस झाँकने में तीक्ष्णता थी और सूक्ष्मता भी. इसमें तीस साल की सहेजी हुई दृष्टि थी. लड़के की आँखों में बागों की ताजगी थी. झरने-सी उत्फुल्लता थी और वासंती बयारों का झौंका था. अपने पूरे सुदर्शन डील-डौल तथा शहरी अभिजात्य के साथ लड़का वहाँ मौजूद था.

तभी अनायास कहीं से एक क्षीण-सी आवाज़ कौंधी- 'कब आए?'

लड़के के लिए यह सवाल अप्रत्याशित था. वह ऐसे किसी सवाल के जवाब के लिए कतई तैयार नहीं था. वह हडबडा गया. फिर कुछ सँभलते हुए बोला- 'कल शाम...'

उसका वाक्य अधूरा ही रह गया. लड़का झेंप गया था. लड़की के सपाट चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान तैर गई. उसने अपनी मुस्कुराहट को होंठों के कोनों में दबाते हुए जाना कि लंबा वक्फा भी कुछ आदतें बदल नहीं पाता.

लड़की उस वक्फे के पार खड़ी थी. वह बहुत पीछे के वक्त में दाखिल हो चुकी थी, जहाँ लड़का उसके पीछे-पीछे जंगल में मीठी खिरनी के लालच में चला जा रहा था. उसे इस तरह जंगल में अकेले आने का अनुभव नहीं था. उसने जंगल के बारे में जो कुछ सुन रखा था, उससे उसे भीतर ही भीतर डर लग रहा था, लेकिन वह उसे लड़की के सामने प्रकट करना नहीं चाहता था. एक बार को उसकी इच्छा हुई कि वह पीछे से भाग निकले पर इतनी दूर आ गए थे कि अकेले लौटने में भटकने की आशंका थी. तभी न जाने कैसे लडकी ने जान लिया कि वह डर रहा है. लड़की ने लड़के का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा- 'डरो मत, मैं यहाँ अक्सर आती हूँ, बस उस पहाड़ी के नीचे खिरनी के बड़े-बड़े पेड़ हैं. उनसे खूब पीली-पीली गलतान खिरनियाँ टपकती हैं. मैं तो पेड़ पर चढ़ जाती हूँ.'

लड़की के हाथ पकड़ लेने लड़के का डर कुछ कम हो गया था. उसने पूछा- 'गलतान...? यह क्या होता है. ' लड़की का हँस-हँस कर बुरा हाल था- 'बुद्धू, तुम्हें तो कुछ भी नहीं मालूम. गलतान मतलब खूब पका हुआ. डाल पर पके हुए खूब रसीले फलों को गलतान कहते हैं न. अब याद रखना.'

लड़की फिर हँसी-मैं भी तुमसे याद रखने को कह रही हूँ, तुम्हारे साथ रहते-रहते मैं भी कितनी बुद्धू हो गई हूँ. पता है कि तुम कभी कुछ याद नहीं रख सकते फिर भी तुमसे कह रही हूँ.'

लड़के को उसकी यही बात बुरी लगती है. हर बात में उसका मजाक उड़ाया करती है. लड़का चिढ गया.

'हाँहाँ, जानता हूँ तुम्हें भी, इतना ही याद रख लेती हो तो फिर स्कूल में हमेशा फिसड्डी क्यों रहती हो. वहाँ तो तेरह का पहाडा याद रखने में जान निकल जाती है.'  लड़का गुस्से में पिनपिना रहा था.

लड़की ने अजीब-सा मुँह बिचकाया और हँसते हुए कहा- 'किताब में खिरनी का पेड़ और यह जंगल नहीं है न. ये होता तो तुम सब फेल हो जाते, मैं अव्वल आती... समझे.'

इतने में सामने खिरनी के पेड़ आ गए. पेड़ के नीचे की जमीन खिरनियों से पीली पड़ चुकी थी. खिरनियाँ बहुत मीठी थीं, लड़के का मुँह मिठास से भर गया. लड़की पकी हुई खिरनियों को बीन कर अपने फ्राक के घेर की खोली में इकट्ठा कर रही थी. लड़का भी पटापट अपने हाफपेंट की जेबें भर रहा था.

लड़के को लगा कि कुछ लडकियाँ खिरनी के पेड़ की तरह होती हैं. दुनिया के कडवेपन को वे मिठास में बदल देती हैं.

लड़की की तंद्रा टूटी तो ऐन सामने लड़के का सवाल था-'तुम कैसी हो?'

लड़की को यह सवाल अजीब-सा लगा. यह भी कोई पूछने की बात है भला. क्या किसी को देखकर ही नहीं मालूम होता कि वह कैसा है. फिर उसे यह पूछने की ज़रूरत क्यों पड़ी. लड़की ने आँखों में हल्की-सी चमक भरते हुए कहा-'अच्छी हूँ...'

लड़के को लगा कि लड़की ने यह सफ़ेद झूठ बोला है. वह अच्छी कैसे हो सकती है. उसे तो कोई अँधा भी देखकर कह सकता है कि वह ठीक नहीं है. कहाँ वह तीस साल पहले की उद्दंड, चुलबुली और बातूनी लड़की और कहाँ यह आज की घुन्नी, उदास, मेहँदी लगे बालों की उलझी लटों से घिरे रूखे और सपाट चेहरे पर सूनी आँखों वाली, मामूली साडी ओढ़े अपनी मरियल देह को ढोती हुई अधेड़-सी दिखती औरत.

लड़की को भी लगा कि उसका झूठ पकड़ लिया गया है, पर इसका जवाब भी तो यही हो सकता था न. लड़के को यह सवाल पूछना ही नहीं चाहिए था.

लड़की फिर लौट रही थी पीछे की ओर. बहुत पीछे छूट चुके समय में. वे दोनों देवी मन्दिर की सीढियों से छलाँग लगाते हुए नदी में कूद रहे थे. लड़की गंठा लगाकर नीचे तल तक जाती और वहाँ से मुट्ठी में कोई चिकना पत्थर या रेत लिए बाहर आती. लड़का किनारे पर ही तैरता रहता, उसे नदी की धार में जाने से डर लगता. लड़की बिजली की गति से इस पार से उस पार तक दौड़ी जाती. वह पानी की सतह पर चित लेटकर उल्टी तैरती तो कभी ऐसी डूबकी लगाती कि देर तक वह पानी में भीतर ही डूबी रहती और अक्सर अपनी जगह से दूर जाकर निकलती. चकित लड़का उसका दु: साहस देखता रहता.

मछलियाँ लड़की की दोस्त हुआ करती थी. वह हर मछली को पहचानती थी और उनकी खूब सारी बातें उसके पास हुआ करती थी.

नदी में नहाने के बाद वह झाड़ियों के पीछे अपने गीले कपड़ों को इतनी ज़ोर से निचोड़ती कि पानी की आखरी बूँद तक निचुड़ जाए. फिर उन्हें धूप में सूखाती और उनके सूखने तक वहीं खरगोश की तरह दुबककर बैठी रहती. इधर लड़का भी रेत की ढेरियों पर अपने कपड़े सूखाता. कुछ गीले भी होते तो बदन पर सूख जाते. कपड़े सूखने पर ही वे घर या स्कूल लौट सकते थे. कभी घर में पता चलने पर उनकी पिटाई भी हो जाती लेकिन छुपते-छुपाते नहाने और नदी के ठंडे पानी में घंटों पड़े रहने का अपना मज़ा था.

रिमझिम बारिश की एक दोपहर देवी मन्दिर के दालान से नीम की एक टहनी तोड़ते हुए उसने लड़के से पूछा था- 'तुम्हें नीम की पत्तियाँ कैसी लगती है?'

लड़के ने तपाक से कहा- 'यह भी कोई पूछने की बात है. नीम तो कडवा ही होता है. पत्तियाँ कडवी ही लगेंगी न.'

लड़की ने जीत की ख़ुशी में दमकते हुए कहा-

'तभी तो मैं तुम्हें बुद्धू कहती हूँ. नीम की पत्तियाँ हमेशा कडवी ही लगें. यह ज़रूरी नहीं. साँप काटे हुए को जब ये पत्तियाँ खिलाते हैं न तो उसे ये मीठी लगती है. शरीर में जहर हो तो कडवा भी मीठा लगने लगता है, समझे.'

लड़के ने कहा–  यह तो मेरे साथ चीटिंग है. बात साँप के काटे की थी ही नहीं...'

'आगे तो सुनो, मेरी दीदी कहती है जो कोई किसी से प्रेम करता है तो उसे भी नीम की पत्तियाँ मीठी लगने लगती है. तुम खाकर देखो.'- लड़की ने कहा.

लड़के ने बुरा-सा मुँह बनाते हुए एक पत्ती जीभ पर रखी ही थी कि उसके मुँह में कडवाहट भर गई, उसने तुरंत पत्ती थूक डाली.

लड़की ने लड़के की आँखों में देखा और दो-तीन पत्तियाँ चबाने लगी. लड़की पान के पत्ते की तरह उसे बाख़ुशी चबाती रही.

लड़की ने कहा-'यह तो मीठी हैं.'

लड़की को लगा कि लड़का उससे पूछेगा कि क्या तुम्हें भी प्रेम है. किस से?

लेकिन लड़के ने कुछ नहीं पूछा. वह बार-बार अपना गला खंखार रहा था. जैसे कडवाहट उसके भीतर तक चली गई हो. न जाने क्यों लेकिन उसे लगा कि लड़के के मुँह में नीम की वह कडवाहट अब तक घुली है.

लड़की उस कडवाहट के बारे में पूछना चाहती थी लेकिन उसने पूछा-'तुम्हारे कितने बच्चे हैं?'

लड़के को लगा कि उसने जान-बूझकर शादी के बारे में नहीं पूछते हुए सीधे बच्चों के बारे में पूछा है. लड़के ने झिझकते हुए कहा-' दो...एक बेटा एक बेटी...दोनों वहीं पढ़ते हैं.

लड़की उसकी पत्नी के बारे में कुछ पूछना चाहती थी लेकिन क्या पूछे, यह सोचती रही फिर 'अच्छा' कहकर कुछ भी पूछने का विचार निरस्त कर दिया.

तब स्कूल में बच्चे कपड़े के झोले में अपना बस्ता लाते थे. लड़के के झोले पर उसकी माँ ने कढाई के रेशमी धागों से बहुत सुंदर हिरण बनाया था. भूरे धागों से उसका शरीर, काले धागों से उसके सिंग और पैर की टापें. हिरण की आँखों में दो मोती जड़े थे. हिरण इतना सजीव था कि उसकी तरफ़ देखते तो लगता कि वह अभी कुलाँचे मारते दौड़ पड़ेगा. उसकी आँखे झमझम हुआ करती. लड़की को वह हिरण बहुत पसंद था. लड़की उसके पेट पर हाथ घुमाती तो लगता असली हिरण का ही स्पर्श है. हिरण उसकी तरफ़ प्यार से देखने लगता. उसे भी हिरण बहुत भाने लगा था.


उसे हमेशा डर बना रहता कि कहीं यह हिरण किसी रात जंगल की तरफ़ लौट तो नहीं जाएगा. उसकी आँखों में खूब तेज़ दौड़ने का सपना वह देख चुकी थी. जमाने से उसकी होड़ थी. उसे आगे बढने का जूनून था, वह हर दौड़ जीत लेना चाहता था. हर बाज़ी उसके हक़ में करना चाहता था. दौड़ के लिए वह सब कुछ छोड़ सकता था. लड़की को अब यह हमेशा लगता कि कहीं वह उसे छोड़कर तो नहीं चला जाएगा.

एक रात वह हिरण बस्ते के झोले से निकल गया और सजीव होकर लड़के की आत्मा में उतर गया. तब से अब तक लड़का उसी की तरह चौकड़ियाँ भरता रहता है. उसने लड़की को छोड़ा, घर छोड़ा, अपनी मिट्टी छोड़ी, गाँव छोड़ा, नाते-रिश्ते छोड़े और सुनने में तो यहाँ तक आता है कि उसने अपनी आत्मा तक छोड़ दी है.

तभी गुलाबी फ्राक पहनी हुई एक लडकी दौडकर हाँफती हुई उसके पास आई और उसके गाल सहलाते हुए बोली- 'माँ देखो, मैं जंगल से कितनी गलतान खिरनियाँ लाई हूँ, तुम खाओगी. तुम्हें बहुत पसंद है न... खाओगी न माँ.'

लड़के ने कहा- 'तुम्हारी बेटी बड़ी क्यूट है.' आगे जोड़ना चाहता था 'तुम्हारी तरह'  लेकिन हमेशा की तरह इस बार भी वह हडबडा गया.

लड़की प्रशंसा भाव से कभी बेटी की तरफ़ तो कभी लड़के की तरफ़ देखती रही.


उसी वक्त लड़के का मोबाइल बज उठा. उसने लड़की की ओर देखा, बाँया हाथ हिलाकर विदा ली और दाएँ हाथ से मोबाइल को कान पर सटाए तेज़ कदमों से गली की ओर बढ़ गया. लडकी उसे गली में गुम होते हुए देखती रही.
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मनीष वैद्य
16 अगस्त 1970, धार (म.प्र.)

कहानी संग्रह : टुकड़े-टुकड़े धूप (2013), फुगाटी का जूता (2017)

पुरस्कार :  प्रेमचन्द सृजनपीठ उज्जैन से कहानी के लिए सम्मान, यशवंत अरगरे सकारात्मक पत्रकारिता सम्मान (2017), कहानी के लिए प्रतिलिपि सम्मान (2018)

पत्रकारिता और सामाजिक सरोकारों से जुडाव

11  , मुखर्जी नगर, पायोनियर स्कूल चौराहा देवास
(मप्र) पिन 455 001
manishvaidya1970@gmail.com

मोबाइल नं 98260 13806

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  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-05-2017) को "आम और लीची का उदगम" (चर्चा अंक-2978) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत सीधी सरल कहानी - मध्यवर्गीय भारतीय समाज में स्त्री पुरुष के गैरबराबर रिश्ते को रेखांकित करती हुई ..... नीम के मीठे होने का प्रसंग बेहद मार्मिक। जैसे खिरनी हमारे जीवन से लुप्त हो गयी वैसे ही लुप्त हो रहा है तीस चालीस साल पुराना वाला प्रेम भी जिसमें तब प्राप्ति और अधिकार का अहंकार नहीं हुआ करता था।
    यदि परदे पर देखी जा सके तो यह कहानी "रेनकोट" का ग्रामीण संस्करण कहलाएगी।
    मनीष वैद्य और आपका शुक्रिया इतनी मुलायम कहानी पढ़वाने के लिए।

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  3. अच्छी कहानी है। इसे पढ़ते हुए बचपन के दिनों में गाँव में कच्ची मिट्टी का हमारा घर याद आ गया। और गरीबी के वो दिन भी। पहले पैरे में अँग्रेज़ी के merge शब्द का उपयोग ठीक नहीं लगा। जब उसी अर्थ वाले शब्द हिन्दी में हों तो अँग्रेज़ी शब्द के उपयोग से बचना चाहिए। चरित्रों की आपसी बातचीत में 'न' के उपयोग की कई जगह ज़रूरत नहीं है। यानी लेखक 'न' का उपयोग ज़रूरत से ज़्यादा करते हैं।

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  4. Premshankar Shukla21 मई 2018, 6:49:00 pm

    बेहतरीन। मनीष हमारे समय के बेहद महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं। समालोचन और मनीष जी को बधाइयाँ। शुभकामनाएँ

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  5. कहानी मुंह में एक मिठास छोड़ जाती है जबकि इसका अंत नीम की पत्तियों के स्वाद जैसा है.

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  6. एक अच्छी कहानी जिसे पढ़कर खिरनी और नीम दोनों का स्वाद ज़ेहन में घुल गया।

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  7. लय और आंतरिकता से भरी कथा.

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  8. मुझे बहुत पसंद आयी ये कहानी। बहुत ही सरस गद्य में बुनी हुई एक सुंदर कहानी। कुछ कहानियों का अंत न तो हमारे मुताबिक़ होता है और न ही कुछ स्मृतियाँ कभी स्मृति पटल से ओझल होती हैं। जीवन इन्ही अधूरी कहानियों का ताना बाना है। खिरनी शब्द ने कौतूहल जगाया तो गूगल करने पर इसे पकी निम्बोली के समकक्ष पाया। सभी के बचपन में ऐसी सुखद स्मृतियाँ और खोए हुए साथी होते हैं पर कुछ ही की किस्मत में उनका सुंदर कहानी में बदलना लिखा होता है। इस कहानी में आंचलिकता की पृष्ठभूमि और भाषाई प्रयोगों से इसका सहज सौंदर्य उभर कर आया है। सतत प्रवाह और सुगठित शिल्प इसे पठनीय बनाए हुए है। कुल मिलाकर एक सुंदर कहानी के लिए हार्दिक बधाई मनीष जी ��

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  9. अच्छी मार्मिक कहानी। भावनाओं को सादगी से पिरोया गया है, प्रतीकों के लिए ग्रामीण परिवेश का अच्छा सामान जुटाया है।

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  10. एक मीठी सी कहानी जिसमें हमारे समाज का कड़ुआ यथार्थ है। बधाई मनीष जी।

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  11. मनीष जी कहानी की भाषा और उसकी बुनावट अद्भुत होती है यही जादू इस कहानी में है

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