कथा - गाथा : बेदीन : शहादत ख़ान

(पेंटिग : Salman Toor : The Believer with Cap)

युवा कथाकार शहादत ख़ान की कहानियां मुस्लिम परिवेश में आकार लेती हैं और किसी न किसी जरूरी मसले को पकड़ने की कोशिश करती हैं. उनके पास प्रभावशाली भाषा है, किस्सागोई की कला भी आती है पर जहाँ मसला ज़रा अटकता है वह है कथा की तार्किक परिणति. अब इसी कहानी में ‘बे दीन’ अनीस जब मृत्यु के समाने खड़ा है वह एकाएक पाबंद हो जाता है पर फिर भी बचता नहीं. एक तार्किक और मिलनसार आदमी को आख़िरकार पराजित दिखाकर कथाकार क्या कहना चाहता है ?

इस कहानी में मदरसे और तब्लीग जमात वगैरह के ब्यौरे यह बताते हैं कि रौशन दिमाग को कुंद करने की ताकते हमारे आस पास किस कदर मौज़ूद हैं.



बेदीन                                   
शहादत  ख़ान



ल रात अनीस मर गया. उसकी मौत की खबर सुनकर लोगों को, उसमें से भी मनमुताबिक दीनदार लोगों को सुकून मिला. मानो उनके सिरों से एक बहुत भारी बोझ उतर गया हो. जिसकी चुभन से हर वक्त उनके सिरों में तकलीफ होती रहती थी. और अब उसकी मौत उनके लिए एक राहत की तरह आई थी.

अनीस बचपन से ही बेदीन था. उसे सारी ज़िंदगी कभी किसी ने मस्जिद जाते हुए नहीं देखा था. आम नमाज़ तो क्या वह जुमा भी नहीं पढ़ता था. उसने कभी ईद की नमाज़ भी नहीं पढ़ी थी. देखने में वह साँवले रंग का एक दरमियानी कद-काठी का आदमी था. जिसकी ऊँचाई मुश्किल से पाँच फुट तीन इंच होगी. बीड़ी पीने की वजह से उसके होंठ काले पड़ चुके थे और बहुत कम नहाने के कारण उसके बाल हमेशा खिचड़ी के चावलों की तरह आपस में चिपके और उलझे हुए रहते. उसकी तर्जनी उंगली का नाख़ून बढ़ा हुआ था. हिंदुओं की तरह वह अपने हाथ में लाल धागा बांधता और लोहे का कड़ा पहनता था.

अनीस अपने चार भाई बहनों में तीसरे नंबर का था. उससे बड़ी दो बहने और एक छोटा भाई था. बचपन में जब उसे मदरसे में पढ़ने के लिए बैठाया गया तो उसे वहां के मोलाना बिल्कुल भी पसंद नहीं आए. एक तो वह बात-बात पर बच्चों की पिटाई करते थे और दूसरा सबक सुनाने के दौरान यदि गलती से भी एक भी गलती निकल जाए तो सबक को वहीं रोक उसे दोबारा पूरा याद करके लाने के लिए कह देते. इससे बच्चा जिस सबक को दो दिन में पूरा कर सकता था उसमें उसे हफ्तों लग जाता. अनीस को उनका पढ़ाने का यह तरीका बिल्कुल पसंद नहीं था. वह बड़ी मेहनत से सबक याद करता. उससे कई-कई बार दोहराता. लेकिन जब सुनाने जाता तो ज़बर-जेर की गलती आते ही मोलाना उसे वापस कर देते. उनकी इस हरकत से वह इतना तंग आ गया कि उसने एक दिन गुस्से में अपने कायदे को मौलाना के ऊपर पूरी ताकत से गेंद की तरह फेंकते हुए चिल्लाकर कहा, मुझे नी पढ़नी ये सब बकवास की चीज़े. जब देखो बार बार याद करने के लिए कह देते हैं... जब याद नहीं होता तो हम क्या करे? हम क्यों दूसरों की ज़बान सीखने के लिए अपना सिर खपाएं. इसके बाद वह पैर पटकता हुआ उनके सामने से चला गया.

मोलाना ने उसके पीछे दो बच्चों को भेजा और उसे पकड़वा कर अपने पास बुलवा लिया. उन्होंने उसकी जमकर पिटाई की और साथ ही उसे मदरसे से भी निकाल दिया था. बाद में जब उसके वालिद साहब ने मोलाना की मिन्नत-समाजत की तो उन्होंने ना चाहते हुए भी उसे वापस मदरसे में रख लिया. पर इस बार वह उससे न तो पढ़ने के लिए कहते थे और न ही उसका सबक सुनते. बस, वह लगातार उसकी गतिविधियों पर ध्यान रखते कि कब मौका मिले और वह उसे मदरसे से निकाल बाहर करे. इसके लिए मोलाना को ज्यादा इंतज़ार भी नहीं करना पड़ा. एक रोज़ मदरसे से छुट्टी मिलने के बाद अनीस जब घर जा रहा था तो रास्ते में कूड़े के एक ढ़ेर पर उसे एक सूअरनी और उसके चार छोटे-छोटे बच्चें घूमते नज़र आए. उसने लपककर सूअरनी के एक बच्चे को यह कहते हुए अपनी गोद में उठाया लिया, कितना छोटा और गोरा है ये... खरगोश जैसे इसके कान... और मुँह तो देखा गोल प्याली की तली की तरह... इसे तो मैं पालूंगा.

लेकिन जब वह गोद में उठाए सूअर के बच्चे को लिए घर पहुँचा तो उसकी वालिदा के पैरों तले से ज़मीन सिखक गई. उन्होंने चिल्लाते हुए कहा, कुजात ये क्या उठा लाया? वापस छोड़के इसे... हराम के खान वाले... नापाक... बदजात कहीं के. साथ ही उन्होंने उसके चेहरे पर कई थप्पड़ और पीठ पर कई मुक्के मारे और धकियाते हुए घर से बाहर निकाल दिया. वह रोता हुआ वापस गया और उस सूअर के छोटे गोरे बच्चे को छोड़ आया. घर आने पर उसकी वालिदा ने उसे साबुन से मलमलकर नहलाया और उसके उन कपड़ों को जिन्हें वह पहने था, भंगन को दे दिया. लेकिन उसे घर में सूअर का बच्चा लाते और फिर रोते हुए उसे वापस छोड़ने जाते हुए मोहल्ले के कई लोगों ने देख लिया था. कुछ बच्चों ने यह खबर मोलाना तक भी पहुंचा दी. मोलाना के भाग से मानो छिंका छूटा. उन्होंने फौरन ही उसे मदरसे से बर्खास्त कर दिया.

मदरसे से निकाले जाने के बाद उसके वालिद ने उसे स्कूल भेजना शुरु किया. लेकिन वहां भी उसकी जमी नहीं. उसने कभी भी अपना होमवर्क पूरा नहीं किया और न ही कभी समय पर स्कूल ही पहुंचा. टीचर बार-बार उससे काम पूरा करके लाने के लिए कहते. उसके डायरी में नोट्स लिखते. 







उसके पैरेंट्स को खुद फोन करते. उनसे उसकी शिकायतें. इससे दुखयाए माँ-बाप ने टीचर्स को उसे मारने की पूरी छूट देते हुए उसे सुधारने के लिए कहा. इधर अनीस पर इन सब कार्रवाइयों का रत्ती भर भी असर नहीं होता. वह मार खा लेता. क्लास से बाहर जाकर खड़ा हो जाता. पर कभी वह नहीं करता जो उसके टीचर्स करने के लिए उसे कहते. वह स्कूल में बैठा सारा दिन अपनी कॉपी के खाली पन्नों पर फूल पत्तियां बनाता रहता था. उसकी इन हरकतों से परेशान होकर एक दिन टीचर ने उसकी जबरदस्त पिटाई कर दी. अपनी पिटाई पर अनीस को इतना गुस्सा आया कि उसने अपने खाने का टिफिन टीचर के सिर में दे मारा और स्कूल से भाग निकला. इसके बाद वह दोबारा लौटकर कभी स्कूल नहीं गया. न ही उसके वालिद ने उसे जाने के लिए कहा.  

पहले मदरसे और फिर स्कूल से निकालने जाने के बाद उसके वालिद साहब ने उसे पढ़ाने की बजाय काम सीखाने की सोची. उन्होंने उसे एक फर्नीचर वाले की दुकान पर काम सीखने के लिए छोड़ दिया. दुकान का मालिक एक दीनदार और परहेज़गार इंसान था. वह पाँचों वक्त की नमाज़ पढ़ता और हर उस बुरे चीज़े से बचता जिसे इस्लाम में मना किया गया था. वह अपनी दुकान में मेहनत से काम करता. अनीस को भी अपने साथ लगाए रखता. पर जब वह नमाज़ पढ़ने जाता तो अपने साथ अनीस से भी नमाज़ पढ़ने के लिए चलने को कहता. अनीस हर बार इंकार कर देता. एक बार जब उसने ज्यादा ज़ोर दिया तो अनीस ने गुस्से में आँख निकालते हुए कहा, तुम्हें पढ़नी है तो तुम पढ़ों... मुझसे ये बदंरों वाली हरकत नी होगी.

उसका ये जवाब सुनकर दुकान का मालिक गुस्सा से भर गया और उसने चीखते हुए कहा, निकल जा मेरी दुकान से... सूअर की औलाद. काफ़िर कहीं के.

इस बार दुकान से निकाले जाने की बात उसने अपने वालिद से नहीं कही और खुद ही एक ढाबे पर नौकरी पक्की कर ली. वह ढाबे पर जाने लगा. कुछ दिन तो उसे वहाँ का नया माहौल और नए लोग अच्छे लगे. लेकिन जल्दी ही उसका मन उस सबसे भी उक्ता गया और ढाबे के मालिक के साथ उसकी अनबन रहनी लगी. काम ज्यादा होने की वजह से मालिक उससे सुबह जल्दी आने और शाम को देर से जाने के लिए कहता. इसके बदले अनीस ने उससे ज्यादा भुगतान की माँग की. लेकिन ढाबे के मालिक ने उसकी तनख्वाह बढ़ाने से इंकार कर दिया. अनीस ने भी तय वक्त से ज्यादा काम न करने से इंकार कर दिया. इस पर ढाबे के मालिक ने उसकी कई हफ्तों की तनख्वाह रोक ली. वह उसे थोड़े-थोड़े रुपए देता और बाकी बचे रुपयों के लिए ज्यादा काम करने के लिए कहता. जब कई महीने इसी तरह बीत गए तो एक दिन उसने तंग आकर मालिक की गैरमौज़ूदगी में गल्ला साफ किया और वहां से फुर हो गया.

ढाबे पर चोरी करने के बाद वह वहां रुका नहीं. गाड़ी चलाना सीखने के लिए वह एक ट्रक ड्राईवर से मिला और उसके साथ गुवाहटी चला गया. गुवाहटी में तीन-चार साल रहकर जब वह लौटा तो उसके चेहरे पर दाढ़ी मूँछें उगने लगी थी. घर आकर उसने एक स्कूल में बात की और वहां बच्चों की गाड़ी चलाने लगा. गुवाहटी में रहने और गाड़ी चलाने के दौरान वह कुछ ऐसे लोगों के संपर्क में आया था जिनसे उसे जुआ खेलने, शराब पीने और खैनी खाने की लत लग गई.

बेटे के घर वापस आ जाने और स्कूल में गाड़ी चलाने के काम से उसके माँ-बाप बड़े खुश हुए. लेकिन साथ ही उन्हें अपने बेटे की सही तर्बियत न होने और उसके बुरे आदतों में पड़ जाने का दुख भी था. इससे भी ज्यादा दुख उन्हें इस बात का था कि वह दीन की तरफ बिल्कुल भी नहीं चलता था. लाख कहने के बाद भी वह नमाज़ पढ़ने नहीं जाता था. रोज़ा रखने की बात तो दूर रही.

दोस्त भी उसके सब गैर-मुस्लिम थें. उनमें एक भी मुस्लिम नहीं था. वह खाली समय में अपने दोस्तों के साथ रहता. उनके साथ घूमता-फिरता और खाता पीता. त्यौहार पर वह उनके घर होली खेलने जाता. दिवाली पर जश्न मनाता और नवरात्रों की पूजा में भी शामिल होता. वह किसी शुभ काम पर उनके यहाँ होने वाले हवन में भी जाता. इससे उसने अपने हाथ में लाल धागे बाँधना और लोहे का कड़ा पहनना भी शुरु कर दिया था. अपने दीन को तो जैसे वह बिल्कुल भूल ही गया था.

इसी दरमियान अनीस की शादी हो गई. बीवी भी उसे बहुत अच्छी मिली. वकीला नाम था उसका. गदराये बदन की खूबसूरत औरत. नेक और दीनदार. लेकिन अनीस पर अपनी खूबसूरत बीवी के दीनदार व्यवहार का भी कुछ असर नहीं हुआ. जब वह उससे नमाज़ पढ़ने के लिए कहती तो वह साफ़ इंकार कर देता. उसकी बेदीनी से दुखी होकर वह नमाज़ पढ़ती और उसके लिए अल्लाह से रो-रो कर दुआ माँगती. उसे सबसे ज्यादा परेशानी उसके शराब पीने से थी. अनीस जब अपनी बीवी को दुआ माँगते देखता तो कहता, 

चाहे तू सारी ज़िंदगी इसी तरह मुसल्ले पर सिर पटक-पटक कर और रोते हुए गुज़ार दे, तो भी मेरा कुछ नहीं होने वाला... समझी.

इधर शहर में तब्लीग का काम भी बड़े जोर-शोर से चल निकला था. जमात वाले घर-घर जाते और लोगो को दीन और नमाज़ के फायदे बताकर अल्लाह की ओर मुतवज्ज़े करने की कोशिश करते. वह अनीस के घर भी जाते. लेकिन उस पर उनकी बातों का भी कोई असर नहीं होता. जब जमात वाले उसे बताते, इंसान जब पाँच वक्त की नमाज़ पढ़ता है तो अल्लाह उसे पाँच इनाम देता है. पहला यह कि वह उसके रिज़्क की तंगी दूर कर देता है.

इस पर अनीस कहता,


अगर इंसान काम नहीं करेगा और हरदम नमाज़ पढ़ता रहेगा तो अल्लाह ही उसके यहां सबसे ज्यादा रिज़्क की तंगी पैदा कर देगा. ये सब झूठ है. बिना मेहनत मज़दूर किए किसी को कुछ नहीं मिलता.

जब वो उससे कहते कि पाँच वक्त की नमाज़ समय पर पढ़ने से चेहरे पर नूर आता है तो वह जवाब देता, 


चेहरे पर नूर तो खुद-ब-खुद ही आ जाएंगा जब इंसान दिन में पाँच बार अपना मुँह धोएंगा. ये जो लोग नमाज़ पढ़ते है ये किसी नूर से नहीं बल्कि मुँह धोने से गोरे होते है. अगर नमाज़ से पहले अपना मुँह धोना बंद कर दे तो इनकी शक्ल भट्टों पर काम करने वालों से भी ज्यादा बुरी हो जाएगी.

जमात वाले उसे जहन्नम के अज़ाब और जन्नत की ऐश वाली ज़िन्दगी के बारे में बताते. वो कहते, मरने के बाद दीनदार इंसान को जन्नत में सत्तर हूर मिलेगी. रहने के लिए सोने-चाँदी के महल मिलेंगे. वहां किसी को मौत नहीं आएगी. सब ज़िंदा रहेंगे और ऐश की ज़िंदगी जिएंगे.

उनकी इस बात की हँसी उड़ाते हुए अनीस जवाब देता, 


तो तुम लोग सिर्फ हूरों और सोने-चाँदी के महलों के लिए ही नमाज़ पढ़ते हो... अल्लाह के लिए नहीं. यानी तुम भी लालची हो... एय्याश. औरतों के लिए और ऐश की ज़िंदगी के लिए नमाज़ पढ़ना कौन सी अच्छी बात है. तुम्हारी ये बात मेरी इस बात को सच साबित करती है कि इंसान को अच्छी ज़िंदगी, खूबसूरत औरतों के लालच और जहन्नम के अजाब का डर दिखाकर गुलाम बनाया जा सकता है... बहुत अच्छे.

अनीस के इस तरह के जवाब को सुनकर वे धर्म के प्राचरक अल्लाह से माफी मांगते हुए ला-हौल-विला-कुव्वत पढ़ते और कहते, तौबा, तौबा.... तौबा करले मेरे भाई... तौबा करले. वरना बख्शीश भी नहीं होगी.

बख्शीश के लिए कहा ही किसने है? ये सब बेकार की बातें है. इंसान काम करता है तो ही उसे खाने के लिए मिलता है. अगर वह काम करना छोड़ दे तो तुम्हारा अल्लाह भी उसके मुँह पर हगेगा नहीं... समझे. काम करो मेरे भाई. कहां तुम इन बेकार के झमेलों में पड़ गए. इंसान के पास खाने के लिए रोटी और पहनने के लिए कपड़ा तो है नहीं और तुम हो कि उसे अंतहीन ज़िंदगी, सत्तर हूरों और सोने-चाँदी के महल के बारे में बताने चलो हो. शर्म करो.

अनीस की इस तरह की बाते सुनकर वह उससे इतना खफ़ा हो जाते कि उसे गालियां बकते हुए लौटा जाते. फिर वह हफ्तों तक उससे दूर ही रहते. लेकिन महीने भर बाद वो फिर उसके घर के दरवाज़े पर जा खड़े होते. उसे पहले सी सब दलीलें देते. वह भी उन्हें फिर पहले से ही जवाब सुना देता और फिर अपना-सा मुँह लेकर वापस आ जाते.

इसी तरह उसकी ज़िंदगी गुज़र रही थी साथ ही बढ़ रही थी उसके घर के सदस्यों की संख्या भी. शादी के कुछ सालों बाद ही उसके यहां पाँच बच्चे हुए. उनमें पहले चार बेटी और फिर सबसे आख़िर में कई सालों बाद पैदा हुआ घर का चिराग, वंश चलाने वाला इकलौता बेटा. उसने अपने किसी भी बच्चें को मस्जिद-मदरसे में पढ़ने नहीं भेजा. वे सब स्कूलों में पढ़ने जाते. दो बड़ी बेटियों को उसने बारहवीं तक पढ़या और उसके तुरंत बाद ही उनकी शादी कर दी. दामाद भी उसने अपने जैसे ही ढूँढ़े. मेहनती देहाती. नमाज़, रोज़े से दूर. बिल्कुल बेदीन.




उसने अपनी ज़िंदगी के दो हिस्से ऐसे ही बेदीनी और नास्तिकता में गुज़ार दिए. अब उसे किसी खास चीज़ से लगाव नहीं रहा था. बेटियों की शादी के बाद जैसे वह सब कामों से फारिग़ हो गया था. सुबह काम पर जाता और शाम को अपने दोस्तों के साथ ताश खेलने चला जाता. अब यही उसकी दिनचर्या थी. हाँ, उसे अपने बेटे अरमान से बहुत लगाव था. वह उसकी हर ख्वाहिश पूरा करता. उसने उसका एडमिशन भी शहर के सबसे अच्छे स्कूलों में से एक में कराया था. अरमान दस साल का हो चुका था और चौथी कक्षा में पढ़ता था. उसने अपने अब्बू जी से कहकर खुद के लिए एक साइकिल मँगवा ली थी. उसे वह शाम को घर की छत पर चलाया करता था.

वह इतवार का दिन था. अरमान शाम को ट्यूशन के बाद रोज़ की तरह छत पर साइकिल चला रहा था कि तभी साईकिल की चैन टूट गई और वह गिर पड़ा. पहले तो उसने खुद ही चैन लगाने की कोशिश की लेकिन जब कामयाबी नहीं मिली तो वह अपने अब्बू के पास चला गया. उसके अब्बू साईकिल को नीचे उतार लाए और बरमादे में बैठकर उसकी चैन ठीक करने लगे.

चैन ठीक करते-करते अनीस के हाथों ने काम करना बंद कर दिया. वह विपरीत दिशा में घूम गया. उसके मुँह से झाग निकलने लगे और वह बैठा का बैठा ही पीछे की ओर गिर पड़ा. उसकी यह हालत देखकर अरमान डर गया और चीख मारकर रोने लगा. अरमान के रोने की आवाज़ सुनकर उसकी अम्मी दौड़ी आई और उसने अपने सामने अनीस को ज़मीन पर औंधे मुंह बेहोश पड़ा देखा. उसके मुँह से अब भी झाग निकल रहे थे. उसने अपने सास-ससुर और देवर को आवाज़ दी. वे लोग दौड़ते हुए आए और उसे गाड़ी में डालकर अस्पताल ले गए.

अस्पताल में डॉक्टर ने बताया कि उसे मिर्गी का दौरा पड़ा है. शराब और बीड़ी-सिगरेट पीने से उसके दोनों फेफड़े खराब हो चुके है और उसे पहले स्तर का कैंसर है. हम उसे बचा तो नहीं सकते पर हाँ उसकी ज़िंदगी के दिनों में कुछ इज़ाफा ज़रूर करते सकते हैं. वह अभी कुछ दिन अस्पताल में ही रहेगा. कैंसर की बात सुनकर वकीला को तो मानो चक्कर ही आ गए. वह अपने पास रखी बैंच पर किसी टूटे हुए दरख्त की तरह ढह पड़ी और सुबक-सुबक कर रोने लगी. 

अस्पताल में हर रोज़ अनीस के यार-दोस्त, नाते-रिश्तेदार मिलने आते. वे सब उससे कैंसर से संबंधित बात करने से बचने की कोशिश करते. लेकिन अनीस को पता चल चुका था कि उसे मिर्गी का दौरा पड़ा था और वह अब कैंसर का मरीज़ है. वह पिछले एक हफ्ते से अस्पताल में है और अभी भी यहीं रहना है, पर पता नहीं कब तक. हर रोज़ घर का कोई एक सदस्य उसके पास रात में रहने के लिए रुकता. कभी उसके वालिद तो कभी उसका भाई. कभी वकीला तो कभी उसके दामाद.

दिसंबर महीना बीत चुका है और जनवरी के महीने ने अपनी हड्डियाँ कंपाने देने वाली ठंड, ठिठुरन और अंतहीन कोहरे के साथ दस्तक दी. शाम होते ही सारे शहर में कोहरा पड़ना शुरु हो जाता है. कोहरे की परत इतनी घनी होती है कि पास खड़ा इंसान भी दिखाई नहीं देता. सांस लेने के लिए मुँह खोलो तो हवा की जगह भाप निकलती है. मानो शरीर के अंदर भट्टी सुलग रही हो. लोग ठंड और कोहरे से बचने के लिए घरों से कम ही निकलते हैं. शाम को भी वो जल्दी ही अपने घरों में दुबक जाते है. सात बजते ही दुकाने बंद होने लगती है और बाज़ार खाली हो जाता है. दस बजते-बजते सब कुछ किसी अंधकारमय खामोशी में डूब जाता है. कुछ भी दिखाई या सुनाई नहीं देता. सड़के, गलियाँ सब सूनी. कहीं से कोई आवाज़ नहीं आती. हाँ, कभी कभी उस खामोशी को भंग करने के लिए कहीं दूर से कोहरे की परत को चीरती किसी कुत्ते के कुकराने, रोने और अपने कानों को फड़फड़ाने की आवाज़ आ जाती.

आधी रात बीत चुकी है. आज वकीला अनीस के पास ठहरी है. वह उसके सफेद चादर वाले लोहे के पलंद के बराबर में ही एक तिपाई पर रजाई ओढ़े लेटी है. वह ठंड से बचने के लिए बार बार करवटे बदलती है. बीच बीच में उठकर अनीस को देखती है कि वह जाग रहा है या सो गया है. उसे किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं. जब उसे सब कुछ व्यवस्थित और ठीक ठाक लगता है तो वह फिर पीछे को लेट जाती और सोने के लिए ऊंघने लगती. वकीला की तरह  ही पूरा अस्पताल भी खामोशी में लिपटा हुआ सो रहा है. काफी लंबा वक्त गुज़र जाता है और तीन पहर रात बीत जाती है. अब ऊंघने और रजाई को खिंचने ओढ़ने से होने वाली सरसराहट की आवाज़ भी नहीं सुनाई पड़ती. सब चुप-चुप और खामोश है. तो भी इस खामोशी को कोई तोड़ रहा है. किसी के सिसकने की आवाज़ आ रही है. कोई धीरे से बुदबुदाता रहा है, रो रहा है और अपने हाथों से गालों पर बहते आँसूओं को साफ़ कर रहा है.

बिस्तर पर लेटा अनीस दूर आसमान में अपने नीड़ की ओर जाते पंछी के पंखों की तरह अपनी पलकों का फड़फड़ा रहा है. उसकी आँखों से आँसू पानी की तरह बह रहे है. वह उसके गालों और हाथ की उंगलियों से होता हुए तकिये के खोल को गीला कर रहे है. बहते पानी की धार के साथ वह कहता जा रहा है, 


या अल्लाह मुझे माफ कर दे... मुझे इस अजाब से बचा ले.... बेशक, मैं मानता हूँ कि सब कुछ करने वाली ज़ात तेरी ही है... तू जो चाहता है वही होता है. मैं जानता हूँ कि तू ही मुझे ठीक कर सकता है... ये डॉक्टर ये दवाएं सब झूठी है... जब तक तू नहीं चाहेगा तब तक ये कुछ असर न करेगी... या अल्लाह मुझे बचा ले. ऐ खुदा, मैंने अपनी सारी ज़िंदगी तेरे हुक्मों को तोड़कर गुज़ार दी... तेरी नाफरमानी करते हुए गंवा दी... मैं इसके लिए तुझसे माफी चाहता हूँ... मुझे माफ़ कर.... मैं वादा करता हूँ कि आज के बाद कोई गुनाह नहीं करुँगा. या अल्लाह मुझे माफ कर दे... मैं तुझे माफ़ी चाहता हूँ.



फिर अचानक ही अनीस के होठों के फड़कने के साथ ही उसके सिसकने की आवाज़ भी तेजी होती गई. फिर उसे एक हिचकी आई. उसने दो बार, पहले दाएं फिर बाएं करवट बदली और फिर सीधा होकर चुपचाप लेट गया. उसने अपनी आँखों बंद कर ली. मानो उसे नींद ने अचानक आ दबोचा हो.


सुबह में रोज़ की तरह अस्पताल में चहल पहल शुरु हो गई. वकीला भी सोकर उठ गई. सबसे पहले उसने अनीस को देखा. वह सीधा, खामोश लेटा था. ऐसे जैसे गहरी नींद में हो. सब कुछ ठीक-ठाक उसने सुकून की एक लंबी सांस. वह उसके सिरहाने गई. उसने उसकी रजाई हटाई. दवा देने के लिए उसे जगाना चाहा. पर जब उसने उसके ठंडे हाथ और माथें को छुआ तो वह सन्न रह गई. वह  डॉक्टर को बुलाने को दौड़ी. जबकि वह सूरज निकलने से पहले ही मर चुका था.
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शहादत  ख़ान
रेख़्ता (ए उर्दू पोएट्री साइट) में कार्यरत, दिल्ली
7065710789. /786shahadatkhan@gmail.com 

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  1. यह शातिरी,ऐय्यारी और बुज़दिली से लबरेज़ दोमुँही नामुमकिन कहानी है जो दोनों जहान को साधने की हास्यास्पद कोशिश में नाकामयाब रही है.ग़ौरतलब है कि चालाक युवा लेखक अपने नाम के आगे मुक़द्दस 786 भी लगाता है.

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  2. राहुल द्विवेदी26 मई 2018, 11:39:00 am

    कहानी पढ़ी , और ऊपर के विमर्श भी । लेखक ने कहानी के अंत मे जो दिखाया वो कहीं से भी अतार्किक नहीं लगता ।अभी कुछ ही दिन हुए इसी आभासी दुनिया के प्लेटफार्म पर, एक नामचीन कद्दावर लेखक जो कि ता उम्र नास्तिक रहे पर उम्र के इस पड़ाव पर आकर ईश्वर का नाम ही न लिया वरन ईश्वर का शुक्रिया भी अदा किया , कई प्रगतिशीलों ने इस पर विरोध दर्ज किया (जबकि ऐसा कहीं से भी अनुचित न कहा था उन्होंने ...)।
    शहादत की मैं तारीफ करता हूँ कि उन्होंने बहुत ही बेबाकी से मानव मनोविज्ञान से उकेरा है (मेरा निजी मानना है कि व्यक्ति कितना भी प्रोग्रेसिव दिखा ले पर अंततः वह उसी दायरे में बँधा हुआ है । नवजागरण काल को ही देखिये केशवचन्द्र सेन ने बालविवाह के विरोध में आंदोलन किया और खुद की अवयस्क पुत्री का विवाह किया..)।
    एक और तरह से देखा जाय कि जब व्यक्ति अशक्त हो जाता है या फिर दुनियावी ताकतों से भरोसा उठ जाता है तो वह रूहानी ताकतों की तरफ रुख करता है ।सहज मनोविज्ञान है.. इस पर किंतु परन्तु मानसिक जुगाली के लिए तो ठीक हैं पर वास्तविकता से परे हैं.. ।

    मेरा मानना है कि शहादत ने सहज और सरल भाषा मे बहुत कुछ कह दिया । आप चाहे जितने प्रोग्रेसिव(?) हो जाओ अंत में उसी खूंटी में बंधना है...जिसे हम धर्म या फिर दीन कहते है..

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  3. Tewari Shiv Kishore26 मई 2018, 5:50:00 pm

    मैं भी वही मान रहा हूं जो राहुल द्विवेदी कह रहे हैं। लेखक दिखाना चाहता है कि तार्किक के अंदर भी प्रायः फ़ेथ एक प्राइमोर्डियल इंस्टिंक्ट के रूप में छिपा रहता है। परंतु लेखक इसे विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत नहीं कर पाया है।

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  4. कहानी बेहतर हो सकती थी। जहां तक तर्क का सवाल है, जीवन में भी साधारण लोग हमेशा किसी एक तर्क के अनुसार नहीं चलते, नहीं चल पाते। परिस्थितियां उन्हें इधर-उधर खींचती हैं, किसी एक तर्क को तोड़ देने की कोशिश करती रहती हैं। तब भी, ज़रूरी नहीं कि इस कहानी का तर्क यह है कि अनीस को अन्त तक नास्तिक बने रहना चाहिए था। जिस तरह से कहानी खत्म होती है उसमें भी एक तर्क है। यह कहानी का अपना तर्क है, जो ज़रूरी नहीं कि वास्तविक जीवन के किसी तर्क से मेल खाए। दूसरी बात यह है कि "पेरेंट्स" शब्द हिंदी का शब्द नहीं है। उसकी जगह माता-पिता इत्यादि लिखा जा सकता था। बेमतलब अँग्रेज़ी शब्द क्यों लाया जाए? "टीचर" शब्द अब हिन्दी में आ चुका है, पर उसका बहुवचन "टीचर्स" नहीं हो सकता। यह शब्द क्योंकि अब हिन्दी में भी है, तो उसका बहुवचन हिंदी व्याकरण के मुताबिक ही करना होगा। उदाहरण : उसके टीचर उसे पीटते थे। या, उस दिन उसके दोनों टीचरों ने उसे पीटा। इत्यादि।

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  5. मुझे अच्छी लगी यह कहानी

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  6. अर्चना वर्मा27 मई 2018, 10:46:00 am

    चरित्र के आचरण को हमेशा कहानी के मन्तव्य की तरह पढ़ना उचित नहीं। कहानी की मंशा मुझको तो यह समझ में आती है कि असल में चरम निरुपायता और हताशा ईश्‍वर मं हमारी आस्था और शरणागति का स्रौत है। परम तार्किकता के बावजूद अक्सर मौत के सामने उभर ही आता है क्योंकि आदमी ज़िन्दग़ी से अतार्किक रूप से प्यार करता है। लेकिन इस शरणागति का मतलब यह नहीं कि मरने से वह बच जायेगा। मरना तो उसे फिर भी है। तो अन्त में जो शान्ति इस किरदार के चेहरे पर है, उसके बारे में यह अस्पष्ट छोड़ दिया गया है कि वह मौत की शान्ति है याकि जीते जी प्रार्थना कर लेने की वजह से उसको शान्ति मिल गयी थी। तो उसको यूँ भी पढ़ा जा सकता है कि आस्थासम्मत जीवन पद्धति में शान्ति होती है, और यूँ बी पढ़ा ही जा सकता है कि मरना तो आखिर होगा ही तो चाहे अन्त तक जी भर के आस्था की ऐसी की तैसी करते रह सकते हो, अगर उतनी निडरता भीतर हो तो ! इस पात्र को तो जीवन भर आस्थासम्मत रास्तों ने खिझाया और अधीर ही बनाया है। एक पाठ यह भी कि जब तक ज़िन्दग़ी और उसके नतीजे अपने हाथो में और मनमुताबिक से निकलते हुए लगते हैँ, तब तक आस्था को चुनौती देकर बेपरवाह जीने का हौसला संभव और आसान होता है, कि अपने हाथो से लिखी जाती सी महसूस होती है ज़िन्दग़ी लेकिन निरुपायता का अहसास सबकुछ बदल देता है।

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  7. अबीर आनंद27 मई 2018, 1:27:00 pm

    चूँकि कहानी का शीर्षक इंगित करता है, लेखक की मंशा यही है कि बेदीन को भी अंततः ईश्वर की शरण मे सिर झुकाना पङता है। विशलेषण के लिए यहाँ तक ठीक है। पहली बार में मुझे लगा कि बिखरी हुई कहानी है, भाषा और सरोकार समाहित है, बाकी जो कमियाँ हैं लेखक स्वतः सीखेगा। दूसरी बार, ईमानदारी से कहूँ तो जब इतनी बहस होते हुए देखी तो दोबारा मनन करना पङा। फिर लगा कि कहानी कम से कम बहस में विस्तार की हकदार है।
    बहुत से सिरे खुले छोङे गए हैं। उन सिरों को नए मायनों में कोष्ठक से बाहर खींचा जाए तो मालूम चलता है कि अनीस ने दीन को औरों से बेहतर समझा। दीन आदमी के लिए है - आदमी दीन के लिए नहीं। इसे दीन का स्वार्थी exploitation कहा जा सकता है पर मुझे लगता है दीन का यह as and when required वाला संस्करण ही बेहतर है।
    दूसरी बात ये कि तर्क का दीन से कोई खास लगाव नहीं है। मुस्लिम परिवेश में चूँकि शिक्षा दीन से जुङी हुई है, यह अलगाव घर्षण उत्पन्न कर सकता है। अन्यथा तर्क दीन का मोहताज नहीं है।
    ऊपर एक बहुत अच्छी टिप्पणी है कि लेखक ने दीन पर बहादुरी दिखाने की मंशा रखी पर ऐसा लगा कि फिर पैर वापस ले लिए हों। बहरहाल, गहराई में उतरने का न तो स्कोप था और न जरूरत। कहानी अपना काम कर गई, मान सकते हैं।
    विषय वस्तु में कुछ खास नहीं लगा। निस्संदेह आगे की कहानियों पर नजर रहेगी। कहन में सादगी है और किस्सागोई में प्रवाह है।

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