कथाकार, अनुवादक, संपादक प्रभात रंजन इधर
अपनी कृति, ‘कोठागोई’ के लिए चर्चा में हैं. किस्सों की श्रृंखला ‘देश की बात देस
का किस्सा’ का एक किस्सा आपके लिए. इस श्रृंखला के प्रकाशन की शुरुआत समालोचन से हो रही है.
देश की बात देस का किस्सा
प्रभात रंजन
बात बहुत पुरानी नहीं है. लेकिन
अब किस्सा बन गया है.
मतलब साफ़ है कि मेरे गाँव या कहें मेरे
देस में अब इसे वे भी सुनाते हैं जो इसके किरदारों के बारे में नहीं जानते.
बीतती सदी के आखिरी दशक वह दौर था जब
राजनीति, रोजगार-कारोबार
के हिसाब इतने तेजी से बदले, बदलने लगे कि सब अपना बेगाना लगने लगा
था.
उन्हीं दिनों की यह बात मशहूर है जब
जिले में ऊँची जाति के एक नेता थे. जिले
के सबसे बड़े नेता थे. उनके यहाँ जब उनकी जात के, चाहे
ऊँची जात के विद्यार्थी लोग, नया-नया
खादी पहन कर कभी ‘प्रिंस पान भण्डार’ तो
कभी ‘फ्रेश पान सेंटर’ में
उल्टे पत्ते का पान खाकर रिक्शे पर बैठकर शहर भर में थूकते फिरने वाले नव नेता
पहुँचते तो उनको वे परसौनी बाजार के पश्चिमी कोने पर बनी अपनी विशाल हवेली के
ड्राइंग रूम में बिठाते, टी सेट में चाय पिलाते, बर्फी
खिलाते और विदा करते. जब दूसरी जात के नवयुवक संघ वाले आते
तो उनको बाहर बैठकी में बिठाते चिउड़ा का भूजा खिलाते, साधारण
कप में उनके लिए बिना प्लेट वाली चाय आती.
लोग कहते कि उनका वश चलता तो इस तरह के
लोगों से वे मिलते भी नहीं लेकिन चुनाव, वोट... राजनीति में सबका ख़याल रखना पड़ता है न.
कहते हैं न हवा बदलती है तो कुछ भी काम
नहीं आता. पुराने लोग सुनाते थे कि 77 के चुनाव में बड़ों बड़ों की हवा ऐसी खिसकी कि बस मत पूछिए. कभी
वापसी हवा चली ही नहीं.
जिस दशक की बात है उस दशक में हवा कुछ
ऐसी ही चली, कुछ की वैसी ही खराब हुई. हर
हाल में जीत का साथ बनाए रखने वाले नेता जी को उनके ही गाँव के दक्खिन के टोले के
गुमानी राय ने उनको पटखनी दे दी.
छोट जात...
ऐसी पटखनी कि देखते देखते शहर में उनकी
हवेली वीरान लगने लगी और उनका खुद का वहां आना जाना भी कम होता गया. ड्राइंग
रूम और बैठकी की महफ़िलों की बात ही कौन करे.
देश की राजधानी से उतर गए थे लेकिन राज्य की राजधानी में अपने बनवाये घर में रहने
लगे.सबसे दुःख की बात थी. हार
उस गुमानी के हाथों हुई जो उनके यहाँ आता था, बाहर
बैठकी में भूजा फांकता था.
इस किस्से से जुड़ा किस्सा यह है कि
अपनी खिसकती राजनीति को भांपकर वे एक बार दिल्ली में गुमानी से मिलने गए. यह
सोचकर कि जाने से शायद उसको अच्छा लगे और कभी-कभार
उससे छोटे-मोटे काम करवाए जा सकें. गुमानी
ने उनका स्वागत किया, पैर छूकर प्रणाम किया लेकिन नाश्ते के
लिए अंदर से चिउड़ा का भूजा मँगवा दिया. नेता
जी समझ गए और उसके बाद कभी उसके आसपास भी नहीं फटके.
कई साल बाद दिल्ली के सबसे बड़े अस्पताल
में मरे नेताजी तो अखबारों में भी कई दिन बाद खबर छप पाई. सो
भी भीतर के पन्ने पर. किसी का ध्यान गया नहीं गया. वैसे
भी इलाके-जिले में लग उनको भूल चुके थे.
भूजा का जवाब भूजा से- कहावत
ही बन गई!
इसी किस्से से इस असली किस्से का
सम्बन्ध है. गुमानी बाजार में सिनेमा वाले सेठ के
पिता के नाम पर बने कॉलेज में पढता था तो डीलक्स हेयर कटिंग सैलून में बाल कटवाने
जाता था. वहीं नंदन ठाकुर के कटिंग की बड़ी मांग
थी. सब कहते कि शाहरुख़ खान, संजय
दत्त सबकी कटिंग की ट्रू कॉपी बाल काटता था. वह
भी पलक झपकते. जैसे जड़ो हो उसकी उँगलियों में. कहीं
बाहर गया होता तो...
वैसे नंदन को भी बाहर जाने की ख़ास
परवाह नहीं थी. कहता- सब
का बाल काट काट कर बाहर वाला बना देंगे लेकिन बाहर नहीं जायेंगे.
वह उँगलियों का जादूगर था इधर गुमानी
बातों का. उसकी बातों ने नन्दन ठाकुर को ऐसा
प्रभावित किया कि उसने उससे कभी कटिंग के पैसे भी नहीं लिए, हद
तो यह कि बीच बीच में वह उससे दाढ़ी भी बनवा जाता था. रामपुर
परोरी गाँव के नंदन को सब समझाते कि गाँव से यहाँ दो पैसा कमाने ही आया हैं. अब
वह भी नहीं लेगा तो क्या खायेगा, क्या
बचाएगा.
उसका एक ही जवाब होता, ‘ई बोलता ऐसे है जैसे किशोरी मैदान में हेलिकॉप्टर से उतरने वाले
नेताजी लोग भाषण में बोलता है. ई
भी कुछ बनेगा. तब एक दिन सब मांग लूँगा. इसकी
एक बात मुझे बड़ी अच्छी लगती है. कहता
है जिन कुछ लोगों ने देश को कब्जे में कर रखा है उनसे देश आजाद करवाएगा. ई
जो हेलीकाप्टर वाले नेता लोग आता है ऊ लोग भी यही बात करता है. देश
को आजाद करवाएंगे.’
उसकी बात सुनकर सब हँसते थे. ‘रामपुर परोरी का नाम ऐसे ही थोड़े नामी हुआ’, कह कर सब उसका मजाक उड़ाते.
बात इसलिए भी मशहूर हुई कि जब गुमानी
सांसद बन गया तो एक दिन ‘माननीय संसद’ लिखी
अपनी गाड़ी में बैठकर डीलक्स हेयर कटिंग सैलून गया. नंदन
से बोला- बोल का चहिये!
नंदन बोला, ‘ज्यादा कुछ नहीं. बाकी
बात ये है कि बचपन में स्कूल हम भी गए. ज्यादा
पढ़े नहीं. लेकिन जो पढ़े सब समझ गए मगर एक बात
नहीं समझे.’
‘ऊ
का है रे?’
‘विश्राम
मास्साब पढाये थे कि हम भारत देश के वासी हैं जिसकी राजधानी दिल्ली है. ई
बात हम कभी न समझ पाए. कोई जाने वाला दिल्ली गए न रहे कि इ
बात पूछ पाते, कुछ मन के कह पाते. अब
आपसे यही प्रार्थना है कि आप दिल्ली में पहुँच गए, देश
के संसद में. तो हमें ऊ देश से मिलवा दीजिए, दिखा
दीजिए, जिसके संसद में बैठने के लिए इतना
महाभारत होता है. हमें दिल्ली लिया चलिए. आप
भी तो बोले थे कि देश आजाद करवाएंगे. आपकी
अब वहां खास इंट्री हो गई है तो हमें देश देखा दीजिए.’
गुमानी नेता ने उसको बहुत समझाया कि
देश और कुछ नहीं हम सब से बना है, हमारे
गाँव, सड़कों से मिलकर बना है, ई
जो झंडा 15 अगस्त, 26 जनवरी को फहराते हैं, जिसे
देखकर स्कूल में गाते थे- झंडा ऊँचा रहे हमारा... सब देश है..
लेकिन नंदन नहीं माना. बोला- सब
देश है तो राजधानी इतना दूर क्यों है? वहां
हम लोग कभी जा काहे नहीं पाते हैं?
गुमानी समझ गया कि नंदन को दिल्ली ले
जाए बिना कोई गुजारा नहीं.
खुद जाकर पूछे थे इसलिए और कोई चारा
नहीं था. वापसी के सफ़र में उसे भी साथ लेकर चले.
नंदन को दिल्ली ले गया. देश
के राष्ट्रपति का निवास दिखाया, बाहर
से ही सही, देश का सर्वोच्च न्यायालय दिखाया, देश
की संसद दिखाई और कहा कि अभी संसद की कार्यवाही नहीं चल रही है नहीं तो मैं
तुम्हें इसके अंदर भी ले जाता. ये
सभी देश को चलाने जगहें हैं.
बस समझ लो यही देश है. जो
इनको चलाता है वही देश बन जाता है. वह
किसी को दिखाई नहीं देता लेकिन सबसे ऊपर वही होता है. ‘और सुन लो, हम इसी में बैठने लगे हैं’ अंत
में उसने धीरे से उसके कान की तरफ झुकते हुए कहा.
‘अब
समझे कि देश क्या होता है?’ गुमानी सांसद ने पूछा.
उसने कुछ नहीं कहा. बस
सर हिला दिया.
सांसद महोदय ने सांसद कोटे से नन्दन की
वापसी का टिकट कटवा दिया. साथ में, यह
आश्वासन भी दिया कि कोई काम पड़े उसको जब चाहे याद कर ले. उसको
अपना ख़ास फोन नंबर भी दिया. कहा किसी और को मत देना.
नंदन वापस आया. सैलून
में, गाँव में, बाजार
में सबने पूछा- क्या देखा, कहाँ
घूमे, राजधानी देश कैसा होता है.... देख लिए?’
‘सब
देख लिए. अपने आँख से देख लिए.
बाकी एक बात है, ई जो देश है न वह है बड़ा ताकतवर तभी
उसको बड़े बड़े दीवार बनवाकर छिपा रखे हैं सब. दीवारें
इतनी मोटी कि यहाँ सौ कोस में किसी के यहाँ नहीं देखे. बाहर
उतने पुलिस, ताक देने पर भी डंडा दिखाने वाले पुलिस.
‘देख
के बड़ा तकलीफ हुआ कि इतने मजबूत देश को कुछ लोगों ने कैद कर रखा है. उ
के कौनो छोड़ाने वाला नहीं है.
‘पहले
बात बात में गुमानी कहता था कि दिल्ली जाकर देश को कुछ लोगों के चंगुल से आजाद
करवाना है. दुःख तो ई बात का है भैया कि अपना
गुमानी भी वहीं जाकर बैठने लगा है. का
पता का करे...’
बात देश की चली किस्सा देस का बन गया !
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प्रभात की कहानी पत्र लेखक, साहित्य और खिड़की और अनुवाद की गलती यहाँ पढ़े तथा आलेख प्रभात रंजन और सीतामढ़ी (गिरिराज किराडू) .
प्रभात की कहानी पत्र लेखक, साहित्य और खिड़की और अनुवाद की गलती यहाँ पढ़े तथा आलेख प्रभात रंजन और सीतामढ़ी (गिरिराज किराडू) .
कोठागोई को कुछ दिन पहले पढा था, आज एक भोले इंसान और नेता के विचार को जानने का मौका मिला। लेखन शैली से प्रभावित हूँ।
जवाब देंहटाएंबहुत दिलचस्प होने के अलावा बहुत मार्मिक और तीखा व्यंग्य भी है । लेखनी को सलाम ।
जवाब देंहटाएंविश्राम मास्साब पढाये थे कि हम भारत देश के वासी हैं जिसकी राजधानी दिल्ली है. :)
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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