बहसतलब : २ : ‘कविता की मृत्यु’, मुर्दाबाद : डोनाल्ड हॉल


साहित्य के भविष्य पर आयोजित बहसतलब ’  की अगली कड़ी में डोनाल्ड हॉल का यह लेख प्रस्तुत है जो अमरीकी समाज में कविता के समाप्त होने की आशंका और उसके बचे रहने की उम्मीद के बीच लिखा गया है. कविता की स्थिति कमोबेश हर जगह एक सी है.
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२३ जून को प्रसिद्ध अमरीकी कवि, लेखक, संपादक और आलोचक डोनाल्ड हॉल (सितम्बर 20, 1928–जून 23, 2018) का निधन हो गया. २२ कविता संग्रहों के अलावा आलोचना, जीवनी आदि  उनकी पचास से अधिक किताबें प्रकाशित हैं, उन्हें ख़ासतौर पर कविता के संपादक और आलोचक के रूप में जाना जाता है. 

समालोचन ने चार साल पहले जुलाई २०१२ में 1989 के Harper पत्रिका में छपे उनके लेख ‘Death to the Death of Poetry’ के कुछ हिस्सों का अपर्णा मनोज  द्वारा किया अनुवाद बहसतलब- २के अंतर्गत प्रकाशित किया था.

इस आलेख के अनुवाद का संवर्धित संस्करण प्रस्तुत है. इसे पुन: तैयार करने में श्री शिव किशोर तिवारी की मदद ली गयी है. समालोचन उनका आभारी है.







कविता की मृत्यु, मुर्दाबाद                                           
डोनाल्ड हॉल

अनुवाद – अपर्णा मनोज, पुनरीक्षण – शिव किशोर तिवारी
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कुछ दिनों तक आप अख़बार पढ़ते रहिये तो यह बात आपको साफ़ हो जायेगी कि संयुक्त राज्य अमेरिका कविता को समर्पित देश है. खेल के पन्ने भी आपको इस बात का इल्म दिला सकते हैं. फिगर स्केटिंग (आइस स्केटिंग) और केंटकी डर्बी के विवरण भी कविता की तरह मनोहारी और रमणीय लगते हैं. शोर्टस्टॉप (बेसबॉल का इनफील्डिंग खिलाडी) भी अपनी फील्डिंग का कवि है और नीले आकाश तले दौड़ती पालनौकाएँ भी मुकम्मल कविता हैं.


अख़बार के मज़ाकिया पन्नों पर जिप्पी ज़रबीना की तारीफ़ में कहता दिखेगा कि तुम तो पोलिस्टर में भी कविता हो. (ज़िप्पी और ज़बरीना बिल ग्रिफिथ के फिक्शनल करेक्टर हैं)


अंत्येष्टि निर्वाहक के रोज़मर्रा के विज्ञापन तक कविता की तरह दिखेंगे. यह समझना मुश्किल है कि वह कहना क्या चाहता है, लेकिन यह बात एकदम स्पष्ट है कि इस कविता का कविताओं से कोई लेना-देना नहीं है. ये थकान दूर करने वाली झपकियों की तरह लगते हैं.


तब कविता इस तरह आभासित होती है:

1. कि वह उत्तमता (खेल का सन्दर्भ) या अचेतनता (अंत्येष्टि का सन्दर्भ) का विचारशून्य पर्याय है. आम लोगों के बीच कविता की और क्या धारणा हो सकती है?
2. सभी इस पर एकमत हैं कि कविता कोई नहीं पढ़ता.
3. सभी इस बात पर सहमत हैं कि कविता का न पढ़ा जाना (a) समकालीन है. और ये (b) बढ़ता जा रहा है. (a) का मतलब है कि कुछ समय पहले (भूले-भटके समयों में, पुराने समयों में एक छह साल का बालक तक) हमारे पुरखे कविता पढ़ते थे. और कवि समृद्ध तथा विख्यात होते थे. (b) का अर्थ है कि पहले के मुकाबले प्रतिवर्ष कुछ ही लोग कविता पढ़ते हैं. (या किताबें पढ़ते हैं अथवा कविता पाठ के लिए जाते हैं.)

सामान्य जानकारी के लिए कुछ और बातें:

5. केवल कवि कविता पढ़ते हैं.
6. कवि खुद दोषी हैं क्योंकि कविता ने अपने श्रोताओं को खो दिया है.

आज सभी जानते हैं कि कविता निरर्थक और पूरी तरह से चलन के बाहरहो चुकी है- जैसा कि फ्लॉबर्ट ने एक सदी पूर्व बुवा ए पिकिशेमें प्रस्तावित किया था.


इन लोक-प्रसिद्ध तथ्यों के दोहराव और विस्तार को देखने के लिए टाइमपत्रिका के अंकों की पड़ताल कीजिये, एडमंड विल्सन का लेख इज़ वर्स अ डायिंग टेक्नीक?” (क्या छंद एक मरती विधा है?) देखिये, हालिए समाचारपत्रों को पूरी तरह से उलटिये, प्रकाशकों के साथ हुए साक्षात्कारों को देखिये, कवियों द्वारा लिखी समीक्षाएं पढ़िए और 1988 के अगस्त माह के कमेंट्रीके अंक में निबंधकार जोसफ़ एप्सटाइन के आलेख हू किल्ड पोएट्री?” (किसने मारा कविता को?) को खंगालिए जिसमें निबंधकार ने कविता से सम्बन्धित पिछली दो सदियों की आम रूढ़ियों का जमावड़ा किया है.


टाइमपत्रिका, जिसने 1922 में द वेस्ट लैंडको छद्म करार किया था, 1950 में टी. एस. इलियट को अपनी कवर स्टोरी में केननाइज़ किया. निश्चित रूप से तीस सालों के अंतराल में टाइमके लेखकों और संपादकों में तब्दीलियाँ आयीं, लेकिन वे फिर भी जस के तस रहे: दिग्गज फलते-फूलते हैं और मरते हैं, लेकिन अपने पीछे बौने छोड़ जाते हैं. इलियट, फ्रॉस्ट, स्टीवेंस, मूर और विलियम्स के बाद लोवेलबेरिमैनजरेलबिशप इत्यादि छूट गए थे. फिर जब ये उत्तरजीवी भी सुपुर्द-ए-ख़ाक हो गए तो शोकाकुल युवा पत्रकारों ने ये कहना शुरू कर दिया कि ये पिग्मीज़ तो दिग्गज थे और अब जो नवोदित कवि हैं, वे बौने हैं.


एलन गिन्सबर्ग की स्तुति में निर्विवाद श्रद्धांजलियाँ लिखी गयी हैं, लेकिन क्या किसी को तीस बरस पूर्व के बीट जेनेरेशन के विषय में लाइफपत्रिका के विचार याद हैं?


क्या छंद एक मरती विधा है?” 1928 में एडमंड विल्सन का उत्तर स्वीकारात्मक था. यह निबंध आचार्य के अपेक्षाकृत श्रेष्ठ निबंधों में से एक नहीं है. विल्सन का लम्बा-चौड़ा अवलोकन इस बात को इंगित करता है कि भौतिकी और गणित जैसे विषय कभी पद्य में लिखे जाते थे. ल्युक्रीशस वाकई मर चुका है. और कॉलरिज की कविता सम्बंधित धारणाएँ होरेस से नितांत भिन्न थीं. ताहम, विल्सन ने 1928 में यह घोषणा कर दी थी कि कविता तबाह हो चुकी है क्योंकि सैंडबर्गपाउंड की पीढ़ी से कविता नए ढब से चल पड़ी थी. तीव्रता और ओज का क्षरण हो गया; और बीट पीढ़ी निराशाजनक ऊब में डूबती दिखी. (विल्सन निसंदेह मूर, विलियम्स, फ्रॉस्ट, एच.डी. स्टीवंस और इलियट के सफलतम दिनों पर बोलता है लेकिन बड़ी हिचकिचाहट से 1948 में निबंध के पुनर्प्रकाशन के वक्त ऑडन को रेखांकित करता है जबकि बीस साल पहले उसने उसे नीचे की पंक्ति में शामिल किया था.) वह समस्या के मूल कारण को आश्चर्यजनक रूप से बताता चलता है कि ब्लैंक वर्स से अधिक अप्रचलित और कोई छंद विधि नहीं है. प्राचीन आयंबिक पेंटामीटर्स का आज के जीवन की रफ़्तार और भाषा से कोई तालमेल नहीं है. इनका प्रयोग करने वाला येट्स अंतिम कवि था.

लेकिन येट्स ने थोड़े बहुत ही दिलचस्प ब्लैंक वर्स लिखे, इस दायरे में उनकी द सेकंड कमिंगआती है. इत्तिफाक से विल्सन के समय में शानदार ब्लैंक वर्स लिखने वाले दो अमरीकी हुए. (बल्कि तीन हुए क्योंकि ई. ए. रोबिंसन भी 1928 में पूर्णतः सक्रिय थे. साल में कभी-कबार आनेवाले ब्लैंक वर्स उतने उत्कृष्ट नहीं थे जितने कि शुरूआती दौर के. इसलिए उन्हें सैंडबर्ग और पाउंड की पीढ़ी से पूर्व का दिनांकित किया गया.) रॉबर्ट फ्रॉस्ट वर्ड्सवर्थ की परम्परा के कवि हैं और अमरीकी ब्लैंक वर्स का मुहावरा गढ़ते हैं, विशेषतः अपने नाटकीय एकालापों में. जो संभवत: उन छंदों के सर्वोत्कृष्ट अर्वाचीन उदाहरण हैं. वॉलेस स्टीवेंस टेनिसन की परम्परा में आते हैं और अपनी नज़्म में टिथोनसजैसा भव्य ब्लैंक वर्स का उदहारण प्रस्तुत करते हैं. फ्रॉस्ट की होम बरिअलतथा स्टीवेंस की संडे मोर्निंगपढ़ने के उपरांत बताइये कि क्या वाकई 1928 तक ब्लैंक वर्स चलन में नहीं थे.


कविता के मुआमले में विल्सन कभी भी धुरंधर नहीं थे. यह याद रखना  महत्त्वपूर्ण है कि विल्सन को एडना सेंट विंसेंट मिलेय अपने समय की महान कवि लगी थीं- रॉबर्ट फ्रॉस्ट, मेरियान मूर, टी.एस. इलियट, एज़रा पाउंड, वॉलेस स्टीवेंस और विलियम कैरलोस विलियम्स से भी बेहतर. न्यू योर्कर के अपने एक आत्मसाक्षात्कार में उन्होंने इस बात का उद्घाटन किया था कि समकालीनों में केवल रॉबर्ट लौवेल ही पठनीय हैं. एलिज़ाबेथ बिशप, जॉन ऐशबरी, गॉलवे किनल, लुइ सेम्पसन, एड्रिएन रिच, सिल्विया प्लाथ, रॉबर्ट ब्लाय, जॉन बेरिमैन...को देखने की जरूरत नहीं है. इससे समय की बचत होगी.


एडमंड विल्सन ने हमें बताया कि कविता मर रही है और इसके ठीक साठ साल बाद एपस्टीन ने इस बात का उद्घाटन किया कि कविता की हत्या हो चुकी है. बेशक, स्टीवेंस, फ्रॉस्ट, विलियम का समय एपस्टीन के लिए स्वर्ण युग था जबकि विल्सन के लिए यह निराशाभरी थकान का समय था.

हाहाकार से सच्चाई नहीं बदल जाती, वह यथावत रहती है. बीस या तीस साल पहले भी कविता अच्छे हालातों में थी; लेकिन अब यह हमेशा के लिए नरक में चली गयी है. केवल नामीगरामी आलोचकों और निबंधकारों के मुख से ही नहीं बल्कि प्रोफेसरों और पत्रकारों से भी मैं गत चालीस सालों से यह दुखड़ा सुन रहा हूँ, जिन्हें शंकित होकर संस्कृति को देखने में ही आनंद आता है. किसी भी फार्मूले का दोहराव बदली हुई दशाओं और अलग-अलग ब्यौरों में अपने फार्मूलाबद्ध दावों में अमान्य नहीं हो जाता, बल्कि वह अपने बार-बार के दावों को इससे इतर भी लक्षित करता है.


हू किल्ड पोएट्री में जोसेफ एप्सटाइन शुरुआत में ही इस बात पर जोर देता है कि उसे कविता नापसंद नहीं है. मुझे यही सिखाया गया था कि कविता उदात्त होती है. उसने स्वीकार किया कि उसकी भाषा लगभग धार्मिक भाषा है साथ ही उसने दृढ़तापूर्वक यह भी कहा कि सन 1950 तक कविता धार्मिक प्रभामंडल से स्नात थी.क्या 1950 के दशक में एप्सटाइन स्कूल जाते थे? अगर उन्होंने 1989 में कोई कविता पाठ भावशून्य दशा में (अपलक) सुना होगा तो उन्होंने देखा होगा कि बीस साल के युवा भी ऐसी ही अर्ध धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत हैं और निश्चित रूप से उनमें से कोई 2020 के दशक में एक निबंध लिखेगा, दुनिया को बताएगा कि कविता अपनी कब्र में सड़ रही है.
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1989 के Harper पत्रिका में छपे लेख Death to the Death of Poetry के कुछ हिस्सों का  अनुवाद.

aparnashrey@gmail.com

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  1. अच्छा लेख है। अनुवाद भी अच्छा है। अपर्णा जी, बधाई।

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  2. हास्य-व्यंग्य की शैली अपनाकर भी इस मुद्दे की पड़ताल की जा सकती है, यह दिखा देते हैं डोनाल्ड हॉल. पहली सोलह-सत्रह पंक्तियों में जो खाक़ा खींचा है उन्होंने, वह कविता के प्रति लोगों के दृष्टिकोण की दिलचस्प प्रस्तुति है. सब कुछ के बावजूद, कविता को ख़ारिज कर देने के हालात के सामने वह एक सवालिया निशान लगाकर उम्मीद की किरण की ओर इशारा भी कर देते हैं. रचना-बाहुल्य और समीक्षा-संकट वहां भी है.

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  3. बढ़िया लेख व अनुवाद. [ '' बहुत महान कवियों के लिए उतने महान श्रोताओं का होना जरुरी है, किन्तु आज के समय में यह एक निकम्मा ख्याल है''-वोल्टविटमेन ].. अमेरिका के बहाने हर देश काल की कविता की समस्या को चिन्हित करता एक सहज आलेख.. अच्छा लगा पढना.

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  4. बहुत ज़रूरी और शानदार लेख है यह... इसे पढ़ते हुए मुझे समकालीन हिंदी कविता का परिदृश्‍य साफ-साफ दिखाई दे रहा है... कमोबेश यही हालात इधर भी हैं... कुछ सुकवि हैं, कुछ कुकवि हैं, कुछ अकवि हैं, कुछ नकवि हैं, कुछ बकवि हैं, कुछ हकवि हैं... इतनी सारी प्रजातियों के कवियों में 'सही कवि' की ही नहीं 'सही कविता' की भी खोज की जानी है...

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  5. कविता पर रोचक और शानदार लेख...

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  6. आलेख तो जो है सो है ही , लेकिन अनुवाद के लिए अपर्णा को हार्दिक मुबारकबाद . अच्छा हिंदी अनुवाद पढ़ने को तरसती आँखों की ओर से.
    इलियट पर टाइम के रवैये का उदाहरण बताता है कि कविता की लोकप्रियता नापने के लिए कमोबेश एक सदी का काल -मान चाहिए .

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  7. उपयोगी आलेख। बढि़या अनुवाद के लिए अपर्णा जी और सही समय पर प्रस्‍तुति के लिए 'समालोचन' का आभार...

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  8. लेख तो निस्संदेह बढ़िया है ही, अनुवाद भी प्रशंसनीय है।

    लेख को पढ़ने से अधिक महत्वपूर्ण रहा बिट्वीन द लाईन्स को पढ़ना।
    जैसे - "ये ख्यात है कि कविता की अपाठ्यता ही (अ) उसकी समकालीनता है. (ब) और प्रगतिशीलता है".

    लेख कुछ अलग ही अर्थ देने लगा इस अलिखित को पढ़ने के बाद।

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  9. लेख पढ़कर यह लगा कि जहाँ कविता के हालात और विमर्श सारे विश्व में कमोबेश एक जैसे ही हैं वहीँ कविता के सामने मौजूद प्रश्न और आशाएं भी |
    बहुत कीमती लेख और अनुवाद का क्या कहूँ जिसने मूल लेख पढ़ा हो वही अनुवाद कि गुणवत्ता देखे मेरे लिए तो यही मूल लेख है !
    आभार अपर्णा जी और आभार समालोचन !

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  10. आलेख बढ़िया लगा।कविता की जरूरत हर समय और समाज में रहेगी बस उसका रूप बदल जाएगा।

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  11. लेख पढ़ा . यूं ही मज़े मज़े में .अनुवाद में ताजगी और रवानगी है . मूल में कहीं न कहीं जरूर कुछ गहरे तंज़ छिपे होंगे जो रह रह कर कभी मुखर होते हैं और कभी कविता की हालत और हालात पर ली गयी चुटकियों तथा फिकरेबाजी को अहमियत देते नज़र आते हैं . शुक्र है कि इसका लोकवृत्त अमेरिकी है . बड़े बड़े कवियों के बरक्स छुटभैयों कि लानत मलामत का ज़ायका चखाया गया ही . यही चीज़ यहाँ के किसी कवि ने आज के परिदृश्य को सामने रख कर लिखी होती तो अब तक बवंडर उठ गया होता . बावजूद इस बात के कि यहाँ भी आलोचक लोग कविता को लेकर कुछ भिन्न किस्म का रवैया नहीं अपनाते हैं , लेकिन फिर भी . कविता की मृत्यु की घोषणाएं पिछली सदी से चलकर आज तक कितनी ही बार की जा चुकी हैं लेकिन कविता , कैसी भी कविता , किसी न किसी तरह अपनी नयी से नयी राह पर चलती हुई उसे खोजने ,निर्मित करने वालों के बीच और अपने पाठकों की तलाश में अग्रसर न होती रही हो , यह कहना तथ्य से मुकरना होगा . बहस्तलब को बह्स्तलब माना जाना चाहिए और पढने और
    आलोचना करने वालों को इसमें अपना योगदान देने के लिए अपनी मूर्छा और आलस्य में से बाहर आना होगा . लिखने वाले तो अपने लेखन में मसरूफ हैं ही और कुछ सम्माननीय छापने वाले भी हैं जिनका
    जो भी क्रिएटिव इंटेरेस्ट हो या चलो वेस्टेड भी हो तो उसे सराहा जाने में क्या बुराई है?

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  12. Arun जी , भले ही यह मुद्दा डोनाल्ड हॉक को लेकर उठाया गया हो, लेकिन अत्यंत प्रासंगिक है | इसे आप यूँ भी कह सकते हैं कि अब श्रोता के लिये कविता लिखी ही नहीं जा रही है | वर्तमान कविता के कवि, कविता को केवल अपनी बौद्धिक योग्यता ( प्रलाप ) का माध्यम बना चुके हैं | अत्यंत क्लिष्ट, तकनीकी शब्दों का प्रयोग कविता से उसके पाठक और श्रोता दोनों छीन चुका है | आलेख में सही लिखा गया है कि छन्द परम्परा की मृत्यु हो चुकी है, तुकबन्दी की जगह अकविता ले चुकी है | श्रोताओं को जोड़ने के लिये यही विधा अनिवार्य शर्त होती है |
    मुझ जैसे कविता को लगभग ना समझने वाले लोग, जो पहले लगभग हर कवि सम्मेलन में इसलिये पहुँचते थे कि कुछ समझ आने वाला सुनने को मिलेगा | किंतु अब के कवियों ने कविता से उसकी सहजता ही खत्म कर दी तो ,श्रोता तो खुद बा खुद खत्म होने ही थे | कमोबेश यही स्थिति पाठकों के साथ भी हो रही है |

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  13. इतिहास को देखते हुए, दो बातें तो तय हैं: (1) कविता को आम तौर पर कम लोग पढ़ते हैं। (2) अच्छी कविता को और भी कम लोग पढ़ते हैं। पर इस मुआमले में कविता अकेली नहीं है। फिल्मों को देखें। कितने लोग बुनुएल, तारकोवस्की, कुरोसावा या बर्गमैन की फिल्में देखते हैं? बहुत कम। ये दुनिया के सबसे बढ़िया फिल्मकारों में हैं। तीसरा, यह भी देखा गया है कि शुरू में जिन कविताओं को क्लिष्ट या अपठनीय कह कर कर खारिज किया गया, वे बाद में न केवल प्रसिद्ध बल्कि कई बार कुछ हद तक लोकप्रिय कविताएँ बन गईं। यानी वर्तमान पाठकों की बजाय बाद वाली पीढ़ियों ने उन्हें ज़्यादा पसन्द किया। अतः, कुल मिला कर, कवि को पाठक की परवाह किये बगैर कविता लिखते रहना चाहिए। यदि कविताएँ वाकई अच्छी हैं तो देर-सवेर कुछ पाठक उन्हें मिल ही जायेंगे। अन्त में, छन्द कविता का अनिवार्य तत्व नहीं है। मुड़-घुड़ कर उसकी मांग करते रहने में कोई तुक नहीं है।

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